एक नाव, एक पतवार
02-Feb-2017 09:15 AM 1234848
बिहार की राजनीति में भाजपा और जनतादल यूनाइटेड एक-दूसरे के पूरक के तौर पर देखे जाते हैं। प्रदेश के लोग राजनीति की नदी में एक को नाव और दूसरे को पतवार के तौर पर देखते हैं। यानी एक के बिना दूसरा प्रदेश में चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सकता। हालांकि जनतादल यूनाइटेड ने ऐसा करने की कोशिश की और नदी भी पार की है लेकिन उसकी नाव में इतने छेद हो गए हैं कि वह अगली बार बिना भाजपा के चुनावी मैदान में उतरने लायक भी नहीं बची है। 2013 के जून में लंबे समय से एक साथ चल रहे जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी औपचारिक तौर पर अलग-अलग सियासी रास्तों पर चल पड़े। बिहार की सत्ता से लालू यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को उखाडऩे का काम इन दोनों दलों ने मिलकर किया था। इनके बीच तब तक सबकुछ ठीक था जब तक भाजपा के केंद्र में नरेंद्र मोदी नहीं थे। जैसे ही पार्टी ने यह तय किया कि मोदी लोकसभा चुनावों के लिए उसकी चुनाव अभियान समिति के प्रमुख होंगे, वैसे ही यह भी तय हो गया कि अब भाजपा और जदयू एक साथ नहीं चल सकते। कई राजनीतिक जानकारों ने इसे नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार के आपसी टकराव के तौर पर देखा। मोदी और नीतीश ने कई मौकों पर एक-दूसरे के खिलाफ जमकर हल्ला भी बोला। यह सब 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव तक खूब चला। लेकिन पिछले तकरीबन छह महीनों में कई ऐसी चीजें हुई हैं, जिनसे लगता है कि नीतीश कुमार और भाजपा के बीच नजदीकी बढ़ रही है। इसकी शुरुआत तब हुई जब बिहार में बाढ़ की समस्या पर नीतीश कुमार प्रधानमंत्री से मिलने पहुंचे। इस मुलाकात में दोनों पक्षों की गर्मजोशी देखने लायक थी। इसके बाद भी कई मौके ऐसे आए जब एक-दूसरे पर हमलावर रुख अपनाए रखने वाले मोदी और नीतीश कुमार एक-दूसरे की तारीफ करते नजर आए। संबंध ठीक करने के लिए इन छोटी-छोटी कोशिशों का सबसे बड़ा फायदा खुद नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार और उनकी पार्टी को तब हुआ जब नोटबंदी के मामले पर नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार का समर्थन किया। वे ऐसा तब कर रहे थे जब उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता शरद यादव राष्ट्रीय राजधानी में नोटबंदी का विरोध कर रहे थे। साथ ही नीतीश जिन विपक्षी दलों के साथ मिलकर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश करते दिखते हैं, वे सब भी नोटबंदी के विरोध में थे। यहां तक कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी कई लोग नोटबंदी के निर्णय को आशंका से देख रहे थे। ऐसे में नीतीश कुमार का समर्थन मोदी के लिए बड़ी राहत देने वाला साबित हुआ। इसके अलावा प्रस्तावित वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी पर भी नीतीश ने मोदी सरकार का साथ दिया। अगर जदयू एक कदम आगे बढ़ रही है तो भाजपा भी गर्मजोशी से उसकी ओर बढ़ रही है। सवाल उठता है कि आखिरी ऐसी क्या वजहें हैं कि दोनों दल एक बार फिर से नजदीक आ रहे हैं? नीतीश कुमार के लिहाज से देखें तो सामान्य तौर पर सभी को यही लगता है कि वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि सरकार चलाने में उन पर लालू यादव का दबाव कम से कम रहे। बिहार सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने सत्याग्रह को बताया कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में लालू यादव और उनकी पार्टी लगातार दबाव बनाए रखना चाहती है और नीतीश कुमार एक हद से अधिक इस मामले में किसी को ऐसा नहीं करने देना चाहते हैं। वे कहते हैं कि हाल ही में पटना में जिलाधिकारी की पोस्टिंग को लेकर दोनों पक्षों में काफी मतभेद रहा लेकिन अंतत: चली नीतीश की ही। लेकिन यह कोई इकलौता मामला नहीं है। बिहार की वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं। नीतीश कुमार का तो ठीक है पर भाजपा एक बार फिर से उनके करीब क्यों जाना चाहती है? राजनीतिक जानकारों के बीच चर्चा है कि इसकी तात्कालिक वजह इस साल के मध्य में होने वाला राष्ट्रपति चुनाव है। अभी भाजपा और उसके सहयोगी दल इस स्थिति में नहीं हैं कि वे अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति बना सकें। जरूरी संख्या बल तब पूरा होगा जब भाजपा को वैसे कुछ दलों का साथ मिले जो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में नहीं हैं। अगर भाजपा उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतकर वहां भी सरकार बना लेती है तब भी अपने उम्मीदवार को राष्ट्रपति बनाने के लिए उसे कुछ अन्य दलों का साथ चाहिए होगा। राजनीतिक मजबूरी जिस तरह की राजनीति बिहार में है, उसमें अगर नीतीश और लालू अलग नहीं हुए तो भाजपा की दाल गलना लगभग नामुमकिन है। ऐसे में भाजपा को लगता है कि अगर नीतीश से संबंध ठीक रखे जाएं तो राष्ट्रपति चुनावों में वे भाजपा का साथ उसी तरह से दे सकते हैं जैसे उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी के मसले पर दिया। जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक महासचिव बनीं शशिकला और तमिनलाडु के मुख्यमंत्री पनीरसेल्वम से भाजपा के लगातार संपर्क में रहने को भी राष्ट्रपति चुनावों से ही जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन यह तो भाजपा की ओर से नीतीश से संबंधों को ठीक करने की तात्कालिक या यों कहें कि मध्यम अवधि की वजह हुई। क्या इसके पीछे कोई दीर्घकालिक योजना भी है? इसके जवाब में बिहार भाजपा के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, 2015 के विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद पार्टी के कई नेताओं की यह राय बनी कि जिस तरह की जातिगत राजनीति बिहार में है, उसमें अगर नीतीश और लालू एक साथ रहते हैं तो भाजपा के लिए अपनी स्थिति ठीक करना बेहद मुश्किल होगा। -कुमार विनोद
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