02-Feb-2017 10:46 AM
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बैलों के साथ बर्बरता हो तो उन्हें उससे बचने का अधिकार है।Ó यह कहते हुए दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने तमिलनाडु में जल्लीकट्टू यानी बैलों से लड़ाई, बैलगाड़ी दौड़ और बैलों के मुकाबलों पर प्रतिबंध लगा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के जजों का कहना था कि इन खेलों की तैयारी के समय बैलों को उनकी नकेल से जबर्दस्ती खींचा जाता है और बैल को आक्रामक करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं जो इस निरीह पशु के साथ बर्बरता है।
जल्लीकट्टू के सबसे ज्यादा आयोजन पोंगल के समय होते हैं। इस प्रतिबंध पर तमिलनाडु में विरोध तो पहले से ही चल रहा था लेकिन, इस साल पोंगल के पहले यह और तेज हो गया। अब चेन्नई सहित राज्य के कई हिस्सों में जलीकट्टू पर लगा प्रतिबंध हटाने की मांग को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। गुरुवार को मुख्यमंत्री ओ पनीरसेलवम ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की थी और उनसे स्थिति में दखल देने का अनुरोध किया था। पिछले साल भी चेन्नई के नजदीक वल्लुवरकोट्टम में तकरीबन तीन हजार लोगों ने प्रतिबंध के विरोध में उपवास किया था। सबसे हैरानी की बात है कि इसमें खेल प्रेमियों के साथ-साथ पशु कल्याण कार्यकर्ता भी शामिल थे। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि कार्यकर्ताओं के एक वर्ग की वजह से ही जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगा और अब इन्हीं का एक वर्ग इसे बैलों के लिए अलग तरह का खतरा बताकर खत्म करने की मांग कर रहा था। इनकी मांग थी कि केंद्र सरकार 2011 का वह नोटिफिकेशन रद्द कर दे जिसमें बैलों को उन पशुओं की श्रेणी से निकाल दिया गया था जिन्हें मनोरंजन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
पिछले कुछ सालों को छोड़ दें तो तमिलनाडु में यह खेल बिना किसी विरोध के आयोजित होता रहा है। तकरीबन 400 साल पुरानी परंपरा वाले इस आयोजन में हर साल लोगों के गंभीर रूप से घायल होने, यहां तक कि मरने की खबरें भी आती रही हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से पशु कल्याण कार्यकर्ता इस खेल में बैलों के साथ होने वाली बर्बरता पर सवाल उठा रहे थे। 2006 में उन्होंने इस खेल पर प्रतिबंध लगवाने के लिए मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै ब्रांच में एक याचिका लगाई थी। इसी के चलते 2009 में राज्य सरकार ने जल्लीकट्टू के नियमन के लिए एक कानून पास कर दिया। अब इसके आयोजन की वीडियोग्राफी, पशुओं और इंसानों के डॉक्टरों की तैनाती और सुरक्षा के विशेष इंतजाम के साथ ही आयोजन के लिए कलेक्टर की अनुमति सहित कई नियम बना दिए गए।
इस कानून के बाद दुर्घटनाओं में काफी हद तक कमी आई लेकिन पशु कल्याण कार्यकर्ताओं की मांग जारी रही कि खेल पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। यह मामला मद्रास हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया। 2011 में केंद्र सरकार ने एक नोटिफिकेशन जारी करके बैलों को उन पशुओं की श्रेणी से निकाल दिया जिन्हें मनोरंजन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके विरोध में जल्लीकट्टू समर्थकों ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी। इन सभी मामलों पर आखिरी फैसला मई 2014 में आया जिसके आधार पर खेल पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया गया।
शुरुआत में जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध का विरोध सिर्फ इसलिए हो रहा था कि यह तमिल संस्कृति का एक अनिवार्य हिस्सा है। लेकिन बाद में इसमें कुछ और ऐसे आयाम जुड़ गए जिनके आधार पर प्रतिबंध का तार्किक विरोध बढ़ गया है और अब इससे बुद्धिजीवी भी जुड़ रहे हैं। राज्य के दोनों प्रमुख दलों से लेकर रजनीकांत, कमल हसन, विजय, रविचंद्रन अश्विन जैसी हस्तियां तक इस पर लगा प्रतिबंध हटाने के पक्ष में आवाज उठा चुकी हैं। इस समय भाजपा भी तमिलनाडु में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है। माना जा रहा है कि ये सारी परिस्थितियां केंद्र सरकार पर दबाव बनाने का काम कर सकती हैं।
नस्ल को बचाने की कोशिश
जल्लीकट्टू में खास प्रकार की सात-आठ देसी नस्लों के बैल शामिल किए जाते हैं। इनमें कांगीयम, उम्मलचेरी, बरगूर मलईमाडू जैसी उत्तम नस्लें शामिल हैं जो इन खेलों के लिए ही विकसित की गई थीं। लेकिन खेल पर प्रतिबंध के चलते अब इन बैलों का कोई दूसरा उपयोग नहीं है। राष्ट्रीय पशु आयोग के सदस्य और पशु कल्याण कार्यकर्ता गौहर अजीज ने बताया था कि जल्लीकट्टू के बहाने बैलों की कुछ मूल नस्लों को बचाने का काम अपने आप हो रहा था लेकिन इस पर प्रतिबंध के बाद इन नस्लों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
-रजनीकांत पारे