कांग्रेसियों की वेदनाÓ
02-Feb-2017 10:22 AM 1234818
चुनावी चक्रव्यूह में बार-बार निढाल होने के बाद भी कांग्रेसी फिर से खड़ा होने की कोशिश करते हैं, लेकिन दिग्गजों का असहयोग और गुटबाजी उन्हें खड़ा नहीं होने दे रही। वैसे मप्र के दिग्गज नेताओं को असहयोग और उनकी गुटबाजी चुनावों के दौरान तो दिखती ही है, अब तो कार्यक्रमों में यह अनिवार्य जैसा हो गया है। तभी तो पिछले तीन साल में प्रदेश में जितने भी कार्यक्रम आयोजित हुए हैं पार्टी के नेता एक साथ नहीं दिखे हैं। अभी हाल ही में राजधानी भोपाल में आयोजित जनवेदना कार्यक्रम में भी यही नजारा दिखा। नोटबंदी पर सवाल खड़े कर मतदाताओं की वेदना को हवा देकर केंद्र और राज्य सरकार को घेरने के लिए आयोजित जनवेदना कार्यक्रम में तो ऐसे घटनाक्रम हुए की कांग्रेसियों की खुद की वेदना चर्चा में आ गई। बंद कमरे में जिम्मेदार नेताओं का भाड़े के टट्टू वाला बयान हो या फिर बाहर मीडिया से चर्चा के दौरान किसी नेता द्वारा बंद कमरे में जनवेदना पर सवाल खड़ा करने के साथ सामने आई वेदना हो जिसने एक बार फिर कांग्रेस के कुनबे में मची कलह को उजागर कर यह संदेश दे दिया कि आखिर कांग्रेस अपनी गलतियों से सीख कब लेगी और कमजोर कडिय़ों को कैसे और कब दुरुस्त करेगी। सवाल कांग्रेस के कार्यक्रमों में लगातार दिग्गज नेताओं की गैरमौजूदगी पर एक बार फिर खड़े हुए लेकिन मौजूद नेताओं के विरोधाभाषी और विवादित बयान उसकी गंभीरता और रणनीति पर भी खड़े हो रहे हैं। जिस तरह नोटबंदी को लेकर कांग्रेस ने जोर-शोर से विरोध प्रदर्शन शुरू किया था, कांग्रेस का हताश कार्यकर्ता सड़क पर उतर आया था। बेजान पड़ी कांग्रेस में जान नजर आने लगी थी। नोटबंदी को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व के निर्देश पर कांग्रेस ने जनवेदना सम्मेलन का आयोजन भोपाल में किया था। इसमें शामिल होने के लिए प्रदेश कांग्रेस ने पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को आमंत्रण भेजा था। बस, सुरेश पचौरी ही आ सके। दिग्विजय और ज्योतिरादित्य ने गोवा चुनावों का हवाला दिया तो कमलनाथ को विदेश जाना था। जबकि प्रदेश नेतृत्व यह सोच रहा था कि ये आएंगे तो कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ेगा। भाजपा सरकार के लिए भी परेशानी बढ़ेगी। नहीं आने से सभी निराश हुए। अपनी बेबाक राय रखने के लिए जाने- जाने वाले पूर्व मंत्री और इंदिरा गांधी जन्म शाताब्दी समारोह के संयोजक महेश जोशी ने तो कहा है कि अब हालात ये हो गए हैं कि पार्टी के दूसरी पंक्ति के नेताओं को तैयार करना चाहिए। क्योंकि, बड़े नेता आते नहीं हैं। उनके भरोसे हर काम सवालों के घेरे में आ जाता है। कब तक पार्टी बड़े नेताओं की उम्मीद पर टिकी रहेगी। पूर्व सांसद और एआईसीसी के सचिव सज्जन सिंह वर्मा भी अपनी पार्टी के नेताओं को आईना दिखाने से नहीं चूके। उनका मानना है कि दूसरी पंक्ति के नेताओं का सीधा जुड़ाव जनता और कार्यकर्ताओं से है। इसलिए इन्हीं नेताओं को लीडरशिप में ज्यादा महत्व मिलना चाहिए। हालांकि, संगठन में जिम्मेदार पदों पर बैठे नेता इन सवालों से कन्नी काटते नजर आते हैं। मध्यप्रदेश में कांग्रेस के हालात यह संदेश दे रहे हैं कि वह सुधरने को तैयार नहीं है। राष्ट्रीय मुद्दों को भुना पाना तो दूर स्थानीय मुद्दों पर भी उसकी पकड़ ढीली साबित हो रही है। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत कांग्रेस ने नोटबंदी से परेशान जनता की नब्ज पर हाथ रखने के लिए जिस जनवेदना सम्मेलन का आयोजन जोर-शोर के साथ किया वह अपने मकसद से भी भटक गया तो उसका कारण पार्टी के जिम्मेदार नेताओं के बयान हैं जो नेताओं के रवैया पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी हैं। निश्चित तौर पर नोटबंदी को लेकर उसके नेता राहुल गांधी सुर्खियों में हैं और उसका बड़ा कारण प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा हमला करना है। कांग्रेस चाहती है कि पूरे देश में माहौल बने लेकिन जब सबका ध्यान उत्तर प्रदेश चुनाव पर है और नोटबंदी का नफा-नुकसान अभी तक बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया तब मध्यप्रदेश में जनवेदना का आंकलन कांग्रेस कर रही है। कांग्रेस भले ही रिजर्व बैंक के सामने प्रदर्शन कर चुकी हो और मुख्यमंत्री निवास की ओर बढ़कर विरोध जता चुकी हो लेकिन जनता उसके साथ खड़ी नजर आई हो ऐसा उसने कुछ हासिल नहीं किया। शायद यही कारण था कि पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता ने अरुण यादव और मोहन प्रकाश द्वारा जवाहर भवन में बंद कमरे के अंदर जनवेदना को लेकर अपने नेताओं को भड़ास निकालने का मौका दिया जिसे न तो जनता ने देखा और न ही यह स्पष्ट संकेत गया कि कांग्रेस नोट बंदी से परेशान-हैरान जनता का दुख-दर्द बांटना चाहती है। जनवेदना में क्यों गायब रहे दिग्गज नेता बचे खुचे सक्रिय कांग्रेसियों को अब पूरा भरोसा हो गया है कि मप्र में कांग्रेस के लिए तीनों दिग्गज (दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया) हानिकारक हैं। लोग निराश हैं और अब उन्हें एक ही युक्ति सूझ रही है कि यदि मप्र में कांग्रेस को बचाना है तो एक साथ तीनों दिग्गज व खुद को इनके समकक्ष मानने वाले सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को प्रदेश की राजनीति से बेदखल कर देना चाहिए। अभी विधानसभा चुनाव में लगभग दो साल बचे हैं, लेकिन बड़े नेताओं की बेरुखी से नाराजगी बढ़ रही है। मांग हो रही है कि दूसरी पंक्ति के नेताओं को कमान सौंप दी जाए। जमीन पर कांग्रेस लगातार कमजोर हो रही है। गुटबाजी हावी है और मप्र से ज्यादा दिल्ली की राजनीति रास आती है इन बड़े नेताओं को। जब भी किसी बड़े मौके पर उनको बुलाया जाता है तो वे कन्नी काट लेते हैं या बहाने बना लेते हैं। जबकि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया तो अगले चुनाव में सीएम कैंडिडेटशिप के दावेदार हैं। -भोपाल से अरविंद नारद
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