02-Feb-2017 09:30 AM
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नोटबंदी के बाद पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में हो रहे विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए अग्नि परीक्षा की तरह हैं। क्योंकि नोटबंदी के बाद भाजपा पहली बार बड़े चुनाव का सामना करने जा रही है। हालांकि अब तक हुए उपचुनाव में जनता नोटबंदी के पक्ष में नजर आई है। विधानसभा चुनावों की तिथियां घोषित होते ही चुनावी चौसर बिछने लगी है। क्षत्रप अपनी-अपनी जीत के दावों की हुंकार भरने लगे हैं। विधानसभा चुनाव में जहां राज्य के मुद्दे हावी रहते हैं, वहीं पार्टी की साख और जनता के बीच उसके कामों का आंकलन भी होता है। जनता सभी दावेदारों को परख रही है और उसकी कसौटी जाति, मजहब और कुनबे की राजनीति नहीं, बल्कि विकास की राह है चुनाव पूर्व हुए विभिन्न सर्वेक्षण ऐसा ही संकेत दे रहे हैं।
पांचों राज्यों में चुनाव की जो तस्वीर निकल कर आ रही है उसमें भाजपा मजबूत स्थिति में नजर आ रही है, लेकिन पूरा विपक्ष जिस तरह भाजपा के पांव को उखाडऩे की कवायद में लगा हुआ है उसके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। हालांकि भाजपा इन चुनावों के माध्यम से ढाई साल पहले ही लोकसभा चुनाव के लिए मैदान तैयार करने में जुटी हुई है। इसीलिए पांचों राज्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह का चेहरा आगे करके चुनाव लड़ा जा रहा है। वहीं कांग्रेस राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को आगे करके चुनाव लड़ रही है। जो इस बात का संकेत है कि इन पांचों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस का नेतृत्व खत्म हो गया है। उत्तरप्रदेश में भाजपा के पास राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह जैसे चेहरे हैं, लेकिन शायद केन्द्रीय नेतृत्व को इन पर विश्वास नहीं है। वहीं कांग्रेस में तो उत्तरप्रदेश में कोई चेहरा ही नहीं बचा है। पहले पार्टी ने हेमवती नंदन बहुगुणा फिर उनकी बहन रीता बहुगुना को पार्टी का चेहरा बनाया, लेकिन दोनों पार्टी से बाहर हो गए और भाजपा में शामिल हो गए। यही हाल पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी है।
किसके पाले उत्तर प्रदेश
इन पांचों राज्यों में सबसे ज्यादा महत्व उत्तर प्रदेश का है। उत्तरप्रदेश के चुनाव देश की दिशा और दशा तय करने वाले होते हैं। जहां से देश में सबसे ज्यादा 403 विधायक एवं 80 सांसद आते हैं। भाजपा के लिए यह राज्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसने लोकसभा चुनाव में अकेले 71 तथा अपना दल के साथ 73 सीटें जीतीं थीं। इसलिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह सबसे अधिक उत्तरप्रदेश पर ही ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। यूपी का चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण होता जा रहा है। वजह, कमोबेश सभी पार्टियां चाहे जो भी हो पूरे दम से बाजी मारने में जुट गई हैं। वहीं भाजपा को घेरने के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने बेमेल गठबंधन कर सबको चौका दिया है। गठबंधन की नींव अखिलेश-राहुल ने डाली है इसलिए दोनों जीत के लिए उन सभी बिंदुओं पर ध्यान दे रहे हैं जिससे राह आसान हो सके। सपा इस चुनाव में 298 व कांग्रेस 105 सीटों पर लड़ रही है। दोनों प्रत्येक सीटों पर पिछले चुनावों में जीत के अंतर का परीक्षण कर रहे हैं। देखा जा रहा है कि इस जीत के अंतर को कैसे घटाया बढ़ाया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश में सामान्यत: जातीय समीकरणों का बहुत ज्यादा महत्व रहता है। 2014 में नरेन्द्र मोदी नाम से जो माहौल पैदा हुआ, उसने सारी जातीय दीवारों को ध्वस्त कर दिया। हालांकि इस बार मतदाताओं को नरेन्द्र मोदी को मुख्यमंत्री नहीं बनाना है, लेकिन वे पार्टी की गारंटी हैं। वे कहते हैं, हमें वोट दीजिए, हम ऐसी सरकार देंगे जो अपराध खत्म करेगी, अपराधियों को खत्म करेगी, प्रदेश को भ्रष्टाचार से मुक्त करेगी तथा विकास की धारा में प्रदेश को ले जाएगी। वे केन्द्र सरकार के ढाई साल से ज्यादा के तथा भाजपा शासित राज्यों के कार्यों का उदाहरण देते हैं। यह बात लोगों को कितनी लुभा रही है, इसका पता तो चुनाव परिणाम के साथ ही चलेगा। किंतु एक बात साफ है कि भाजपा 2007 और 2012 में जिस दुर्दशा का शिकार हुई थी, उससे पूरी तरह से बाहर निकल चुकी है।
2012 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में ज्यादातर स्थानों पर सपा और बसपा के बीच दो दलीय मुकाबला ही था। भाजपा लड़ाई में थी ही नहीं। भाजपा को उसके उभार के बाद से सबसे कम केवल 15 प्रतिशत मत तथा 47 स्थान आए। वह केवल 55 क्षेत्रों में दूसरे स्थान पर थी। यानी भाजपा कुल मिलाकर केवल 102 स्थानों पर ही लड़ाई में थी। कांग्रेस तो लंबे समय से उत्तर प्रदेश में केवल नाम की पार्टी रह गई है। कांग्रेस ने 11.63 प्रतिशत मत पाकर 28 सीटें जीतीं तथा केवल 31 में दूसरे स्थान पर थी। यानी कांग्रेस केवल 59 स्थानों पर ही लड़ाई में थी। द्विपक्षीय टक्कर में 29.15 प्रतिशत मत पाकर सपा ने बाजी मार ली थी, उसे 224 सीटें मिली। बसपा को 25.91 प्रतिशत मत एवं 80 सीटें मिलीं। भाजपा के धुर विरोधी भी यह स्वीकार करेंगे कि इस बार स्थिति बदली हुई है। कांग्रेस ने पूरा दमखम लगाकर देख लिया कि उसकी दाल ज्यादा गलने वाली नहीं है। प्रशांत किशोर एंड कंपनी के नुस्खे भी कांग्रेस को ऊर्जा नहीं दे पाए। राहुल की 3,000 किमी की यात्रा तथा खाट सभाएं कांग्रेस के लिए रामबाण नहीं बन सकीं। इसलिए अंतत: उसे अपनी रणनीति बदलकर अखिलेश यादव की सपा के साथ समझौता करना पड़ रहा है। उसने अपने को सिमटा लिया है।
2014 का लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में एक मोड़ साबित हुआ जिसमें प्रदेश के दोनों मुख्य खिलाडिय़ों सपा और बसपा को मुंह की खानी पड़ी। भाजपा ने 42.30 प्रतिशत मत तथा 71 सीटें पाईं। समाजवादी पार्टी को 22.20 प्रतिशत मत मिले थे एवं केवल 5 सीटें मिलीं। बहुजन समाज पार्टी को मत तो 19.60 प्रतिशत मिले पर वह एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुई। सपा एवं बसपा को यह परिणाम सकते में डालने वाला था। इन्होंने दु:स्वप्नों में भी ऐसी बुरी पराजय की कल्पना नहीं की थी। कांग्रेस की तो पूछिए ही नहीं, वह 7.50 प्रतिशत मत पाकर दो सीटें जीतने में कामयाब रही। ये दोनों सीटें भी सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी की ही थीं। लोकसभा चुनाव के अनुसार भाजपा को 328 सीटों पर बढ़त थी तथा उसके साथी अपना दल की 9 पर। समाजवादी पार्टी-42,कांग्रेस-15 एवं बसपा केवल 9 स्थानों पर ही आगे थीं। कह सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव तथा 2017 के होने वाले विधानसभा चुनाव की प्रकृति, परिवेश में अंतर है, लेकिन इतना तो मानेंगे कि भाजपा मुख्य लड़ाई मेंं है और प्रभावी है। चुनाव शास्त्र के अनुसार विश्लेषण करें तो इस बार 27-28 प्रतिशत मत पाने वाला सरकार बना सकता है। इसके आधार पर भाजपा की पराजय तभी होगी जब लोकसभा चुनाव में उसके प्राप्त मतों में से कोई एक पार्टी 15 प्रतिशत मत काट ले। यह सामान्य बात नहीं है। ऐसा प्राय: कम ही होता है। बिहार में 4 प्रतिशत मत काटने से चुनाव परिणाम बदला था। उत्तर प्रदेश में 15 प्रतिशत मत काटने होंगे। उत्तर प्रदेश का राजनीतिक-सामाजिक समीकरण वही नहीं है जो 2012 में था। सपा का विभाजन हो चुका है। इससे उसका मूल यादव-मुस्लिम (भाई) समीकरण दरका है। सपा को आपकी लड़ाई का खामियाजा भी भुगतना पड़ेगा।
बसपा की हालत भी पतली
मायावती ने 2007 और 2012 के दलित-ब्राह्मण के समीकरण के उलट आरंभ में इस बार दलितों और मुसलमानों का गठबंधन बनाने की कोशिश की। एक दिन में 21 ब्राह्मणों का टिकट काटकर वे सभी मुसलमानों को दे दिए। उन्होंने कुल 97 मुसलमानों को टिकट दिया है। वे खुलेआम मुसलमानों को कह रही हैं कि सपा आपसी संघर्ष में है, वह भाजपा को नहीं हरा सकती इसलिए आप हमें वोट दीजिए। हालांकि बाद में उनकी नीति बदली और फिर उन्होंने ब्राह्मणों की ओर झुकाव दिखाया। फिर लगा कि नहीं, जो पिछड़ी जातियां हमें वोट देती थीं, उनको भी मिलाने की कोशिश की जाए तो वे पिछड़ों का सम्मेलन करने लगीं। तो, मायावती की ढुलमुल नीतियां रही हैं। अभी ऐसा लगता है कि इन सबका लाभ भाजपा को मिलना चाहिए। सपा और बसपा, दोनों का पुराना सामाजिक समीकरण दरककर भाजपा की ओर आ सकता है। भाजपा यदि उम्मीदवारों का चयन ठीक से करे तथा चुनाव प्रचार को थोड़ा और आक्रामक कर दे तो उसके पक्ष में मतों का सुदृढ़ीकरण हो सकता है।
भाजपा को याद आया मंदिर
चुनाव से पूर्व तक मंदिर की राजनीति से दूर रही भाजपा ने चुनावी जंग शुरू होते ही राम मंदिर को मुद्दा बना लिया है। भाजपा को केंद्र सरकार के कार्यों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे से अधिक राम मंदिर पर भरोसा है इसीलिए उसने घोषणा पत्र में राम मंदिर बनाने की बात कही है। हालांकि कांग्रेसी नेता राज बब्बर इसे चुनावी शिगूफा बता रहे हैं। वह कहते हैं कि अब जनता भाजपा के झांसे में नहीं आने वाली। वहीं मायावती का कहना है कि प्रदेश की सबसे अधिक लोकसभा सीट जीतने वाली भाजपा ने विकास के कोई भी कार्य नहीं किए हैं। इसलिए वह अब राम मंदिर के नाम पर जनता का भावनात्मक शोषण करने जा रही है।
कांग्रेस से फिसलता उत्तराखंड
उत्तराखंड में सोनिया कांगे्रस बनाम मोदी कांग्रेस के बीच मुकाबला नजर आ रहा है। यानी भाजपा पूर्व कांगे्रसियों को अपने साथ करके चुनाव लड़ रही है। इसलिए उसकी स्थिति मजबूत नजर आ रही है। दरअसल उत्तराखंड में कांग्रेस की बजाय मुद्दा हैं मुख्यमंत्री हरीश रावत। नरेन्द्र मोदी ने अपनी सरकार का समर्पण गरीबों के लिए बताया तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ऋषिकेश में कुर्ते की फटी जेब दिखा कर कहा, देखो, ये होती है गरीबी। ऐसी स्टंटबाजी से लोगों को आकर्षित नहीं किया जा सकता। वैसे उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार जरूर है लेकिन 2012 के चुनाव में उसे बहुमत नहीं मिला था। 70 सदस्यीय विधानसभा में उसे 32 सीटें तथा भाजपा को 31 सीटें मिली थीं। मतों का अंतर देखिए। कांग्रेस को 33.79 प्रतिशत मत तथा भाजपा को 33.13 प्रतिशत मत मिले थे। तो दोनों के बीच केवल 0.66 प्रतिशत मत का ही अंतर था। इतने कम मतों का अंतर पलट देना कठिन है क्या? वैसे भी हरीश रावत के विरुद्ध कांग्रेस में विद्रोह हुआ और वे सब भाजपा का दामन थाम चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा तक भाजपा में हैं। उत्तराखंड में बसपा भी कुछ मत पाती रही है। पिछले चुनाव में उसने 12.19 प्रतिशत मत पाकर 3 सीटें जीतीं, लेकिन उसके विधायक सत्ता के लिए कांग्रेस के समर्थन में चले गए। उत्तराखंड डेमोक्रेटिक पार्टी ने भी 1 सीट जीती। तीन निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे। इन सबके समर्थन से कांग्रेस की सरकार बनी थी। कहने का तात्पर्य यह कि परिस्थितियों ने कांग्रेस को सत्ता में पहुंचा दिया अन्यथा....। हर बार बिल्ली के भरोसे छींका नहीं टूटता। वैसे भी 2014 के लोकसभा चुनाव के अनुसार विश्लेषण करें तो भाजपा ने प्रदेश की पांचों सीटें जीती थीं और 63 विधानसभा क्षेत्रों में उसे बढ़त मिली थी। कांग्रेस केवल 7 विधानसभा स्थानों में आगे थी। अर्थात् पासा बिल्कुल पलट गया था। भाजपा को 55.30 प्रतिशत तथा कांग्रेस को 34 प्रतिशत मत मिले थे। 21 प्रतिशत का अंतर बहुत बड़ा होता है।
कांग्रेस यदि भाजपा के मतों में से कम से कम 11 प्रतिशत मत काटे तो ही उसकी संभावना बन सकती है। इसके लिए नेतृत्व के प्रति जैसा अप्रतिम आकर्षण चाहिए, सरकार के कामों से जनता में जितना गहरा संतोष तथा पार्टी के प्रति बहुमत की सहानुभूति चाहिए। लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है।
पंजाब में त्रिकोणीय मुकाबला
ड्रग्स, अपराध, बदहाल किसान और बढ़ती बेरोजगारी के साए में पंजाब विधानसभा चुनाव में पहली बार आम आदमी पार्टी ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया है। वहीं, कई छोटे दल भी इस बार मजबूती से ताल ठोक रहे हैं। सभी की नजरें इस पर लगी हैं कि ये छोटी पार्टियां क्या गुल खिलाएंगी। पंजाब में अभी तक आमने-सामने का मुकाबला परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों कांग्रेस और शिअद-भाजपा गठबंधन में होता आया है। पहली बार 2014 के लोकसभा चुनाव में आप ने दस्तक दी। पंजाब में अकाली दल और भाजपा ने 1967 के बाद 2012 में सत्ता में लगातार दोबारा लौटने का इतिहास रचा था। हालांकि कांग्रेस के साथ जीत का अंतर केवल 1.82 प्रतिशत था। आम आदमी पार्टी की उपस्थिति ने लड़ाई को कई जगह त्रिकोणीय जरूर बना दिया है, लेकिन ऐसी स्थिति नहीं दिख रही कि वह बाजी मार ले। ज्यादातर स्थानों पर मुख्य लड़ाई अकाली-भाजपा तथा कांग्रेस के बीच ही है। यहां भाजपा अकाली दल के छोटे साझेदार के रूप में लड़ती है। 113 सीटों में उसे 23 स्थान मिलते हैं। इसलिए यहां की जीत-हार का पूरा दारोमदार अकाली दल पर आता है।
लोकसभा चुनाव परिणामों को देखें तो भाजपा को 16, अकाली दल को 29, कांग्रेस को 37 तथा आप को 33 स्थानों पर बढ़त थी। तो भाजपा-अकाली गठबंधन उसमें भी आगे था। हां, वह बहुमत से पीछे था। आम आदमी पार्टी इन्हीं दोनों पक्षों का मत काटेगी। यह पार्टी दोनों पक्षों की जीत-हार का अंतर तय करने की भूमिका निभा सकती है। नवजोत सिद्धू के कांग्रेस में जाने से पार्टी को लाभ कम, नुकसान ज्यादा होने की संभावना है, क्योंकि सिद्धू ने अपनी साख पूरी तरह गंवा दी है। अब कोई उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं है।
अब विधानसभा चुनाव में भी आप मजबूती के साथ इन्हें चुनौती दे रही है। वहीं, आप के ही पूर्व सूबा कन्वीनर और पार्टी को नए सिरे से पंजाब में खड़ा करने वाले सुच्चा सिंह छोटेपुर ने आपणा पंजाब पार्टी बना ली है, जिसने अमृतसर लोकसभा उपचुनाव के साथ-साथ विधानसभा चुनाव में भी 85 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। पार्टी ने बाकायदा छोटेपुर को सीएम उम्मीदवार भी घोषित किया है। आप के ही निलंबित सांसद डॉ. धरमवीर गांधी की अगुवाई में सियासी फ्रंट बनाया गया। इस फ्रंट ने भी 25 उम्मीदवार खड़े किए हैं। फ्रंट में शामिल डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी के इनमें से नौ उम्मीदवार हैं। इसी पार्टी के चुनाव चिह्न आरी पर सभी उम्मीदवार लड़ रहे हैं। कांग्रेस से निष्कासित पूर्व सांसद जगमीत बराड़ अब तृणमूल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं। बसपा सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। टीएमसी ने भी 21 उम्मीदवार उतारे हैं। टीएमसी के ज्यादातर उम्मीदवार मालवा से हैं। वाम दल इस बार पंजाब में मिलकर लड़ रहे हैं, उनका कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं हुआ। वामपंथी पार्टियों ने भी 57 उम्मीदवार उतारे हैं। लेकिन यहां
वर्तमान समय में जो लहर है उसमें कांगे्रस सबसे आगे है।
गोवा में बहुदलीय मुकाबला
गोवा में भाजपा की सरकार है। यहां आप ने ताल ठोककर चुनाव गणित बिगाड़ दिया है। इससे संभावना जताई जा रही है कि यहां त्रिशंकु विधानसभा होगी। यह बात ठीक है कि भाजपा को 2012 में केवल 21 यानी बहुमत से एक ही सीट ज्यादा आई थी लेकिन उसने केवल 28 स्थानों पर चुनाव लड़ा था। शेष 12 स्थान उसने साथी दलों को दे दिए थे। लोकसभा चुनाव में भाजपा को दोनों सीटों के साथ 59.10 प्रतिशत मत आए जबकि कांग्रेस को 32.90 प्रतिशत मत प्राप्त हुए यानी 26 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर था। भाजपा 32 सीटों में आगे थी तो कांग्रेस केवल 8 में। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मनोहर पर्रिकर एवं नितिन गडकरी को गोवा चुनाव का प्रभार सौंपा है। दोनों का अनुभव वहां काम करेगा। इस बार वहां चार समूह हो गए हैं। भाजपा, कांग्रेस के अलावा आम आदमी पार्टी है। फिर भाजपा से गठजोड़ तोड़कर महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ने शिवसेना तथा सुभाष वेलिंगकर के गोवा सुरक्षा मंच के साथ गठबंधन किया है। जाहिर है, मतों का बंटवारा होगा, लेकिन इतना होगा कि भाजपा बिल्कुल पिछड़ जाएगी, अभी ऐसा नहीं लगता।
मनोहर पर्रिकर की सक्रियता ने भाजपा के पक्ष को मजबूत किया है। भाजपा आलाकमान को लगता है कि मौजूदा मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर में वो बात नहीं जो पर्रिकर में है। पर्रिकर की छवि पहले से ही ईमानदार नेता की रही है और सर्जिकल स्ट्राइक के बाद वो मजबूत नेता के तौर पर भी उभरे हैं। बावजूद इसके भाजपा मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर सस्पेंस बनाये हुए है।
दिल्ली की तर्ज पर गोवा की लड़ाई
आम आदमी पार्टी दिल्ली स्टाइल में गोवा में चुनावी जंग लड़ रही है। पार्टी की स्ट्रैटिजी उसी तर्ज पर दिख रही है, जो दिल्ली में पार्टी को फतह का स्वाद चखा चुकी है। आप के सीएम कैंडिडेट के इर्द-गिर्द अपनी कैंपेनिंग के साथ ही पार्टी ठीक दिल्ली की तरह गोवा में भी विरोधी पार्टी को उनके सीएम कैंडिडेट के सवाल पर घेर रही है। आप ने गोवा के लिए अपने सीएम कैंडिडेट के तौर पर एल्विस गोम्स के नाम का ऐलान किया। जिसके बाद पार्टी गोम्स को सीएम बनाने के लिए गोवा की जनता से वोट मांग रही है। साथ ही पार्टी चुनावी जंग को पर्सनैलिटी की लड़ाई में तब्दील करने के लिए वही तरीका अपना रही है जो दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपनाया था।
मणिपुर में कांटे की टक्कर
मणिपुर में भी मोदी की लहर देखी जा रही है। वैसे तो मणिपुर लंबे समय से कांग्रेस का गढ़ रहा है। लेकिन इस बार उसे भाजपा एवं एमएनएफ की ओर से कड़ी टक्कर मिल रही है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने दोनों सीटें जीती थीं। उसे 41.70 प्रतिशत मिले थे। भाजपा को 11.90 प्रतिशत तथा नागा पीपुल्स फ्रंट को 19.90 प्रतिशत आए थे। तो ये मत 31 प्रतिशत से ज्यादा होते हंै। पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक हेमंत बिस्वशर्मा वहां लगातार सक्रिय हैं जिसका परिणाम स्थानीय निकाय चुनावों में देखने को मिला जहां भाजपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। कांग्रेस से काफी संख्या में नेता भाजपा में शामिल हुए हैं। हालांकि मुख्यमंत्री इबोबी सिंह ने नए जिलों का गठन कर वहां हिंसा की ऐसी स्थिति पैदा की है जिसमें कांग्रेस हारी हुई बाजी जीत सकती है, लेकिन ऐसा होगा ही, यह कहना कठिन है। अभी तक का संकेत यही है कि भाजपा पिछले सारे विधानसभा चुनावों से वहां अच्छा प्रदर्शन करेगी। अब सबको इंतजार है 11 मार्च का। जिस दिन पांचों राज्यों की मतगणना एक साथ होगी।
खोखले वादे
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी करके जनता को भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की बात कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ भाजपा सहित सभी पार्टियों ने फ्री की सुविधाएं देने की घोषणा करके अपने खोखले वादों की झड़ी लगा दी है। चुनाव जीतने के लिए पार्टियों ने सारी हदें पार कर दी हैं।
बदत्तर स्थिति में कांग्रेस
उत्तर प्रदेश कांग्रेस का गढ़ रहा है। इस राज्य से पार्टी ने देश को चार प्रधानमंत्री दिए है, लेकिन आज स्थिति यह है कि कांग्रेस को अपना वजूद बनाए रखने के लिए सपा
जैसी क्षेत्रीय पार्टी से गठगबंधन करने की नौबत आ गई है। आज यूपी में कांग्रेस की यह स्थिति हो गई है कि उसके नेता सपा द्वारा निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार प्रचार
कर रहे हैं। इससे प्रदेश में कांग्रेस की
रही-सही साख भी खतरे में है।
अबकी बार मुफ्त में घी, दूध, चीनी, प्रेशर, स्मार्टफोन
चुनाव आते ही पार्टियां जनता से लोक-लुभावन वादों की बौछार कर देती हैं। इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर एक खास चीज यह देखने को मिल रही है कि पार्टियां इस बार मुफ्त में जनता को ढेर सारी सहूलियतें देने का वादा कर रही हैं। आमतौर पर इस तरह की घोषणाएं अभी तक दक्षिण भारत की चुनावी राजनीति का हिस्सा रही हैं। वहीं सबसे पहले मुफ्त में खाना, कलर टीवी, सिलाई मशीन बांटने का ट्रेंड शुरू हुआ था। पांच राज्यों में होने जा रहे चुनावों के मद्देनजर अब पहली बार उसकी झलक उत्तर भारत की चुनावी सियासत में भी देखने को मिल रही है। यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने दोबारा सत्ता में आने पर लोगों को फ्री में स्मार्टफोन देने का वादा किया है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के मुताबिक पिछले चुनावों में सरकार ने छात्रों को मुफ्त में लैपटॉप देने का वादा किया था। सरकार बनने के बाद एक साल तक इस वादे को निभाया भी गया। उस दौरान जो लैपटॉप बांटे गए, उनमें अखिलेश यादव और पिता मुलायम सिंह यादव की तस्वीर होती थी। अभी तक पार्टियां, बिजली, पानी को मुफ्त में देने का वादा करती रही हैं। इस बार पहली बार इस कड़ी में पेट्रोल को जोड़ा गया है। गोवा में कांग्रेस ने अपने जारी घोषणापत्र में छात्रों को हर महीने पांच लीटर पेट्रोल मुफ्त में देने का वादा किया है। इसके अलावा छात्रों को फ्री कोचिंग देने की बात कही गई है। यूपी में सपा ने कुपोषित बच्चों को घी और मिल्क पाउडर के पैकेट देने का वादा किया है। गरीब महिलाओं को प्रेशर कुकर देने की बात कही गई है। पंजाब में कुछ इस तरह का वादा अकाली दल-भाजपा गठबंधन ने किया है। वहां पर इस गठबंधन ने गरीब तबके को 25 रुपये किलो के हिसाब से दो किलो घी, 10 रुपये किलो के हिसाब से पांच किलो शक्कर का वादा किया है। पंजाब में आप ने गांवों और शहरी क्षेत्रों में फ्री वाई-फाई सुविधा देने का वादा किया है।
पांचों राज्यों में मतदाता मौन
देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने तौर-तरीकों से मतदाताओं को अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रही हैं। वहीं हमेशा की तरह मतदाता भी प्रत्येक दल और उनके नेताओं के वादों और बातों पर बारीक नजर बनाए होंगे, क्योंकि अंतत: अंतिम फैसला उन्हें ही करना होता है। इन सबके बीच इन चुनावों को देश के सेफोलॉजिस्ट यानी चुनाव नतीजों का आंकलन करने वाले, पत्रकार, समाज विज्ञानी समझने की कोशिश में लगे हैं। यह तथ्य है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनाव एक उत्सव की तरह आयोजित किए जाते हैं। भारतीय जनतंत्र में चुनाव को समझने का तात्पर्य है, भारतीय समाज को समझना। क्योंकि भारतीय समाज को ठीक ढंग से समझे बिना सेफोलॉजिस्टों, पत्रकारों, राजनीतिक विश्लेषकों को चुनाव के संबंध में किसी भी प्रकार की सटीक व्याख्या करने में तमाम तरह की समस्याएं आती हैं। उनके आंकलन प्राय: तीर-तुक्के के आंकलन बनकर रह जाते हैं, जो प्राय: गलत साबित होते हैं। ऐसे में उन्हें कई बार समाज में मजाक का पात्र बनना पड़ता है। वे अक्सर लोगों के कहे हुए पर अक्षरश: विश्वास कर अपने आंकड़े निकाल लेते हैं, जबकि किसी का बोलना, नहीं बोलना, क्या बोलना या क्या नहीं बोलना उस समाज की संस्कृति, शक्ति-संरचना, अवसर तथा बोलने वाले के मूड पर निर्भर करता है।
तीन राज्यों में भाजपा की खाट खड़ी करना चाहते हैं जाट
भाजपा द्वारा पिछले 3 सालों में अपने वादे पूरे न करने से खिन्न जाट समुदाय ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में भाजपा का न केवल विरोध करने का निर्णय किया है बल्कि पार्टी उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करेंगे। जाटों ने अकेले उत्तर प्रदेश के लिए 125 टीमों का गठन किया है। उत्तराखंड और पंजाब के लिए भी ऐसी ही एक-एक टीम बनाई गई है। उनकी रणनीति साफ है। वे हर हाल में भाजपा उम्मीदवार की हार सुनिश्चित करना चाहते हैं। इसके लिए वे भाजपा के सामने खड़े विरोधी उम्मीदवारों को वोट देकर उन्हें जिताने की कोशिश करेंगे। अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति अध्यक्ष यशपाल मलिक ने कहा, हम हर सीट पर या तो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को जिताएंगे या बसपा उम्मीदवार को। ऐसी ही रणनीति पंजाब और उत्तराखंड के लिए भी बनाई गई है। हमारा एक मात्र उद्देश्य लोगों को यह संदेश देना है कि जो पार्टी धर्म और जाति के नाम पर लोगों को बांटने का काम करती है; ऐसी पार्टी की सरकार किसी राज्य में नहीं बनने देंगे।