20-Jan-2017 11:02 AM
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एक दौर था जब ओम पुरी नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल और शबाना आजमी के साथ मिलकर हिंदी के समानांतर सिनेमा की पहचान बनाते थे। किसी फिल्म में इन सबका या इनमें से किसी एक का होना भी उसके गंभीर होने की गारंटी माना जाता था। इनकी मौजूदगी भर किसी फिल्म को कला फिल्म का दर्जा दिला देती थी। यह वह दौर था जब सतही किस्म के एक्शन और रोमांस की फिल्मों से हिंदी सिनेमा की मुख्य धारा बनती थी। निस्संदेह इसी दौर में कुछ साफ-सुथरीÓ मानी जाने वाली पारिवारिक फिल्में और कुछ स्वस्थÓ समझी जाने वाली हास्य फिल्में भी बनती रहीं, लेकिन उस दौर के सिनेमा के बौद्धिक विमर्श की केंद्रीय जमीन इन्हीं समानांतर, सोद्देश्यपूर्ण या कला फिल्मों से बनती थी।
आज कुछ दूरी से उन फिल्मों को याद करते हुए या उन्हें नए सिरे से देखते हुए कुछ अजीब सा लगता है। सिनेमा की अपनी उन दिनों की समझ कुछ संदेह में डालती है। जो फिल्में तब बेमिसाल लगती थीं, वे अचानक कृत्रिम और आडंबरी बौद्धिकता की शिकार जान पड़ती हैं। उनके संवाद नकली लगते हैं, उनके कथा सूत्र स्वाभाविक नहीं मालूम होते, उनका कैमरा बहुत सायास ढंग से कुछ दिखाने की कोशिश करता दिखता है, वे फिल्में यथार्थÓ को यथार्थ के सरलीकरण के साथ पकडऩे वाली फिल्में थीं जो हमें इसलिए प्रिय थीं कि उस कारोबारी फिल्मी दुनिया के बहुत सारे भोंडेपन से दूर वे एक राजनीतिक-सामाजिक संदेश देने की कोशिश करती थीं।
लेकिन इन फिल्मों की कौन सी चीज हमें सबसे अच्छी लगती थी? निस्संदेह, वह अभिनय जो इन फिल्मों को एक अलग तरह की आभा देता था। फिल्म आक्रोशÓ में आदिवासी ओम पुरी की सुलगती हुई खामोश आंखें जैसे हमारा पीछा नहीं छोड़ती थीं। अर्धसत्यÓ में एक बेबस पुलिस इंस्पेक्टर के भीतर पैदा होने वाली कुंठा और गुस्से को ओम पुरी के अभिनय के साथ हम अपने भीतर लिए लौटते थे। मिर्च मसालाÓ का चौकन्ना चौकीदार यह भरोसा दिलाता था कि उसके होते लड़कियों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। बेशक, यही बात कई अन्य फिल्मों के बारे में नसीर और स्मिता पाटिल को लेकर भी कही जा सकती है। यह उन फिल्मों का सौभाग्य था कि उन्हें इन जैसे विलक्षण अभिनेता मिले। ऐसी फिल्मों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जिसमें इन सबने साथ या अलग-अलग काम किया और अपने अभिनय से इन्हें हमारे लिए यादगार बनाया।
ओम पुरी शायद इन सबमें सबसे अनगढ़ थे- बहुत ही सामान्य और खुरदरी शक्ल-सूरत के मालिक। बेशक उनकी आवाज में एक अलग तरह का खुरदरापन था। लेकिन वे इस आवाज का भी बहुत करीने से इस्तेमाल करते थे। शायद यह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के प्रशिक्षण का असर रहा हो कि वे जटिल से जटिल भूमिकाएं बिल्कुल सहजता से कर जाते थे। रंगमंच, सिनेमा, टीवी हर जगह उन्होंने अपनी गहरी छाप छोड़ी। एनएसडी की कुछ बेहतरीन और यादगार प्रस्तुतियां उनके बिना अधूरी होतीं। तमस, राग दरबारीÓ और कक्का जी कहिनÓ जैसे टीवी सीरियलों में उनका अभिनय एक अलग आयाम जोड़ता था। बाद के दौर में वे मुख्यधारा वाली कारोबारी फिल्मों से भी जुड़े और कई चुलबुली और हास्य भूमिकाओं में भी दिखे जिनमें खासकर चाची 420 और मालामाल वीकली में उनका काम यादगार कहा जा सकता है।
लेकिन यह सच है कि हिंदी सिनेमा जिस ओम पुरी को याद करता है, वह अब भी सत्तर और अस्सी के दशकों में लरजती आंखों और खुरदरी आवाज वाला वह अभिनेता था जिसके बगैर कई फिल्में वह प्रामाणिकता हासिल न कर पातीं जो कर पाईं। यह कुछ उदास करने वाला अफसाना है कि किस तरह समानांतर सिनेमा के सभी कलाकार धीरे-धीरे उस दुनिया से दूर होते चले गए। स्मिता पाटिल तो सबसे पहले विदा हो गईं। अमरीश पुरी, ओम पुरी और नसीरुद्धीन शाह ने भी रास्ता बदल लिया। बाद में नसीरुद्दीन शाह ने तो समानांतर फिल्मों की नकली बौद्धिकता और कला के नाम पर कलाकारों के शोषण के प्रति अपनी चिढ़ को सार्वजनिक करने में कोई कोताही नहीं बरती। ओम पुरी के अभिनय की विरासत जिन दो कलाकारों में सबसे साफ ढंग से पहचानी जा सकती है, वे इरफान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं। वे किन्हीं कला फिल्मों के नहीं, ठेठ कारोबारी फिल्मों के अभिनेता हैं और अमिताभ बच्चन से लेकर शाहरुख खान तक को अपने अभिनय से चुनौती देते हैं। हां, यह मलाल जरूर बना रहेगा कि वह आक्रोश और प्रतिबद्धता शायद किन्हीं पुराने जमानों की चीज हो गए हैं जिनके बीच ओम पुरी और कई कलाकारों ने अपने-आप को रचा था। यह पता भले न चले, मगर दुनिया को ये सारी चीजें चुपचाप कुछ-कुछ बदलती रहती हैं।
-धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया