20-Jan-2017 10:23 AM
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आगामी पांच राज्यों में चुनावों के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए स्वजनों और रिश्तेदारों के नाम पर टिकट न मांगने की अपील पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से की। लोकतांत्रिक व्यवस्था में वंशवाद नई समस्या नहीं है। देश के पहले चुनाव से लेकर आज तक, हर चुनाव के साथ वंशवाद की जड़ें गहरी होती जा रही हैं। मजे की बात तो यह है कि हर पार्टी वंशवाद को राजनीति का रोग बताती है, लेकिन कोई भी पार्टी इस रोग से खुद को नहीं बचा सकी है। शायद इसीलिए न इसे राष्ट्रीय समस्या माना जाता है और न ही कोई इस विषय पर बात करना चाहता है। आखिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। क्या मोदी अपनी पार्टी में परिवारवाद पर रोक लगाएंगे।
भारत में कांग्रेस ही वह पहली पार्टी है, जहां से आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में वंशवाद का अंकुर फूटा। लेकिन अब तो भाजपा के साथ करीब-करीब सभी राष्ट्रीय और राज्य स्तर की पार्टियों में वंशवाद अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस मर्ज से दूर नहीं रह पाई हैं। ऐसी स्थिति में मोदी जब भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं से ऐसी अपील करते हैं तो शायद वह और नीतीश सरीखे नेता, अकेले ऐसे नेता हैं जो इस विषय पर बोल सकते हैं। मोदी के कड़े से कड़े आलोचक भी मोदी पर वंशवाद को सींचने का इल्जाम नहीं लगा सकते। नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी के परिवार में पांच भाई और एक बहन हैं और इनमें से (नरेंद्र मोदी को छोड़कर) एक भी सदस्य राजनीति में नहीं है। कोई पेट्रोल पंप पर नौकरी करता है, कोई परचून की दुकान चलाता है, किसी का चाय-स्टाल था, तो कोई कबाड़ी का काम करता है। यह हाल तब है जब मोदी 15 साल गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और अब तो वही सब कुछ हैं।
क्या वंशवादी वे दीमक हैं जो लोकतंत्र को अंदर ही अंदर खोखला कर रहे हैं? इस सवाल को छोड़ ही दीजिए, क्योंकि हर पार्टी में ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जो वंशवाद के इतने फायदे गिना देंगे कि आपको लगेगा कि शायद यह वंशवाद ही असली लोकतंत्र है। शिरोमणि अकाली दल के एक बड़े कद्दावर नेता तो सियासत में वंशवाद की इस परंपरा के पक्ष में इतनी अचूक मिसाल देकर बोलती बंद कर देते हैं। राजनीति में परिवारवाद दरअसल विश्वसनीयता की गारंटी है।.. लोग मर्सिडीज कार खरीदना क्यों पसंद करते हैं? या बीएमडब्ल्यू?... क्योंकि उन्हें इन कारों की विश्वसनीयता पर भरोसा है। तुम बाजार में एक ऐसी कार लेकर आओ जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं खरीदेगा उसे। यानी लोकतंत्र बाजार है, सियासत कार है और परिवार ब्रांड है। राजनीतिक विरासत हमारे संस्कार में, हमारे मूल्यों में है। 2014 के चुनावों में अपने पिता, यशवंत सिंहा की हजारीबाग सीट से चुनाव में उतरे उनके पुत्र जयंत सिन्हा बड़े फख्र से कहते हैं। जब राहुल गांधी या सोनिया गांधी चुनावी रैलियों को संबोधित करने जाते हैं तो उनके मंच पर राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के बड़े-बड़े कटआउटÓ परिवारवाद का महिमामंडन करते नजर आते हैं। ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति में सभी परिवार या वंशवाद के समर्थक हों। वैसे लोग भी हैं जो पूरी ताकत से इसका विरोध करते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भले ही अलग-अलग विचारधाराओं के तहत परस्पर विरोधी हों लेकिन इस बिंदु पर दोनों एक हो जाते हैं।
हालांकि वंशवादियों की यह दलील है कि राजनीति की समझ और सार्वजनिक कार्यों में उनकी दक्षता गैर-परिवारवादी विधायकों या सांसदों से कहीं बेहतर है लेकिन आंकड़ों में हकीकत कुछ और है। 2004 और 2009 की लोकसभा में वंशवादी गैर-वंशवादियों की तुलना में ज्यादा धनी और पढ़े-लिखे जरूर थे लेकिन लोकसभा के कार्यकलापों में दोनों की उपलब्धियां लगभग एक जैसी हैं। सबसे खास बात यह थी कि वह परिवारवादियों की तुलना में गैर-परिवारवादियों में स्थानीय स्तर की समझ कहीं ज्यादा विकसित थी। एक सवाल जो स्वाभाविक तौर पर दिमाग में उभर सकता है कि देश की लोकतांत्रिक राजनीति और परिवारवादी सियासत का संगम कैसे हो गया? इसका जवाब शायद इस उत्सुकता में छुपा हुआ है कि राजनेताओं के बच्चे और रिश्तेदार क्यों राजनीति में आना चाहते हैं? क्योंकि 1990 से पहले तक यह आकर्षण देखने को नहीं मिलता है।
कहा जा सकता है कि देश की अर्थ-व्यवस्था को स्वतंत्र करने के बाद से राजनीति के प्रति नेताओं के परिवार वालों का आकर्षण शायद इसलिए बढ़ गया क्योंकि मुक्त अर्थव्यवस्था के बाद सरकारी कार्यकलापों का दायरा बहुत अधिक बढ़ गया। भूमि अधिग्रहण, सरकारी छूट और निजी व्यवसाय के लिए सरकारी ऋण आदि एक लंबी फेहरिस्त की कुछ मिसालें हैं। जाहिर है कि सरकारी कामकाज जिनके अधीन होगा, उनके लिए लाभ के अनगिनत रास्ते खुल जाएंगे।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में वंशवाद का सबसे बड़ा नमूना खुद मुलायम परिवार है। मुलायम सिंह खुद जमीनी राजनीति करते हुए 1967 में पहली बार विधायक हुए लेकिन समाजवाद के नाम पर पिछले 40 वर्षों में उन्होंने प्रदेश में सियासत का साम्राज्य खड़ा कर लिया है। उनके परिवार के 11 सदस्य (भाई-बेटे-बहू-भतीजे) राजनीति में हैं। हालांकि मुलायम सिंह यादव खुद किसी परिवारवाद की उत्पत्ति नहीं हैं। लेकिन उन्हें उनके राजनीतिक कार्यों से ज्यादा, इस वंशवाद के संस्थापक तौर पर इतिहास में दर्ज किया जाएगा।
भाजपा कैडर बेस पार्टी है। इस पार्टी में व्यक्तिवाद और वंशवाद कभी भी पोषित नहीं हुआ है। पार्टी का आधार राष्ट्रवाद है। लेकिन कांग्रेस, सपा और राजद सहित अन्य दलों की तरह यह पार्टी भी व्यक्तिवाद और वंशवाद की राह पर चल पड़ी है। तभी तो मोदी ने स्वजनों और रिश्तेदारों के नाम पर टिकट न मांगने की अपील पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं से की। वहीं दूसरी तरफ मप्र के सागर में संपन्न भाजपा प्रदेश कार्यसमिति बैठक में ज्यादातर नेता परिवारवाद के पक्ष में दिखे। नेता यह कहने से नहीं चूके की यदि किसी राजनीतिक परिवार के परिजन की अपनी स्वयं की पृष्ठभूमि मजबूत है तो उसे परिवारवाद की श्रेणी में नहीं रखा जाए। किसी नेता का भाई-भतीजा होना कोई गुनाह नहीं है। कुछ अन्य नेता भी यह कहते सुने गए कि जिनकी छवि साफ-स्वच्छ है, ऐसे व्यक्ति को परिवारवाद की श्रेणी में नहीं लेना चाहिए। अगर नेता के पुत्र में राजनीति के गुण हैं तो टिकट देने में क्या हर्ज। यानी मोदी ने अपने नेताओं से परिवारवाद से दूर रहने की जो अपील की है उसे उन्हीं के नेता मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मोदी नोटबंदी की तरह अपनी पार्टी में पनपती वंशवाद की परिपाटी को रोकने के लिए कोई कठोर कदम उठाएंगे या फिर मामला सुझाव तक ही सीमित रह जाएगा।
बहुत अहम मुकाम पर राजनीति!
भारत की राजनीति और आर्थिकी दोनों इस समय निर्णायक मुकाम पर हैं। नए साल की पहली तिमाही में बहुत कुछ साफ हो जाना है। जनवरी से मार्च तक राजनीति जो करवट लेने वाली है और आर्थिकी में जो नतीजे आने वाले हैं, उनसे बहुत कुछ तय होगा। भारत के लिहाज से दोनों अहम हैं। सरकार का भविष्य और उसका इकबाल इसके नतीजों पर निर्भर करेगा तो विपक्ष का अस्तित्व इससे जुड़ा हुआ है। जाहिर है 2017 में तय होगा कि भारत पटरी पर बना रहता है या पटरी से उतरता है। देश की राजनीति और आर्थिकी दोनों के लिए 2017 आर-पार वाला वर्ष है। यह तय करना मुश्किल है कि नया वर्ष राजनीति के नाते ज्यादा गंभीर है या आर्थिकी में? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का भविष्य 2017 में तय होगा। रंग या तो गहरा बनेगा या उतरेगा। जनवरी से ही चुनौतियां शुरू हो गई है। नोटबंदी, आर्थिकी और विधानसभा के चुनावों की आपदा वाला वक्त है। उधर विपक्ष के लिए भी 2017 चुनौतीपूर्ण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके विरोधियों की जिद्द, जुनून से विधानसभा चुनाव लडऩा है। जनता के बीच अपनी साख, क्रेडिबिलिटी को या तो बचाना है या बहाल करना है। लाख टके का सवाल है कि दोनों तरफ इस परीक्षा को कितनी गंभीरता से लिया हुआ है?
इस रोग का मुख्य जिम्मेदार कौन?
राजनीति में वंशवाद के बढऩे के लिए जिम्मेदार कौन है। सबसे बड़ा सवाल कि क्या मतदाता इस प्रभाव को नहीं समझता? अगर समझता है तो फिर ऐसे उम्मीदवारों को वोट क्यों देता है? सच पूछिए तो मतदाता तक आते-आते वंशवाद या गैर वंशवाद के समीकरण इतने गड़मड़ हो जाते हैं कि इन सवालों का कोई आसान जवाब नामुमकिन हो जाता है। इसकी मुख्य वजह है कि एक बार टिकट मिल गया तो कई और परिस्थितियां भी उसमें शामिल हो जाती हैं। मसलन पार्टी, धर्म और जाति या फिर विपक्ष में खड़ा उम्मीदवार। ऐसे में यह जिम्मेदारी केवल राजनीतिक पार्टियों पर ही आती है कि वह लोकतंत्र के चुनावी उत्सवों में जमीनी नेताओं को ज्यादा महत्व देती हैं या परिवारवाद को। यही कारण है कि कभी समाजवाद के पहरुए रहे नेता आज परिवारिक समाजवाद पर विश्वास करने में लगे हैं।
-रेणु आगाल