20-Jan-2017 09:09 AM
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संगठित क्षेत्र में अपनी शिक्षा और काबिलीयत के दम पर अपना परचम लहराने वाली महिलाएं भारतीय प्रशासनिक सेवा से लेकर सेना में, शिक्षा के क्षेत्र से लेकर सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में, यहां तक कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी अपना नाम रौशन कर रही हैं। सेना से लेकर मैडिकल, हॉस्पिटैलिटी से लेकर बैंकिंग तक में उनकी भागीदारी दिखाई देने लगी है। यहां तक कि पुरुषप्रधान क्षेत्र माने जाने वाले रेलवे चालक और आटो ड्राइवरी में भी इक्का-दुक्का ही सही, महिलाओं की भागीदारी के किस्से सुनने को मिल जाया करते हैं। कामकाजी महिलाएं वक्त का इस्तेमाल वाकई सही तरीके से करती हैं और इसके एवज में असंगठित वर्कफोर्स को मिलने वाले काम के रूप में समाज को दिया गया उनका योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। एक बड़ी ई कॉमर्स कंपनी की सीईओ अकसर कहा करती हैं, या तो मैं घर से बाहर निकलूं और एक बड़ी कंपनी को और बड़ा बनाऊं, करोड़ों का बिजनैस करूं, अपने साथ-साथ अपने 50 कर्मचारियों के बारे में सोचूं, एक कुक, एक मेड और एक ड्राइवर को नौकरी दूं व उन्हें अच्छी तनख्वाह दूं या फिर घर में रहूं, कुक, मेड और ड्राइवर का काम करूं और 12-15 हजार रुपए की बचत कर लूं। समझदारी भरा निवेश किसे कहेंगे?ÓÓ यह दोहराने की अब आवश्यकता नहीं कि वाकई समझदारी भरा निवेश किसे कहा जाएगा।
यह निवेश परिवार की माली स्थिति को भी बेहतर बनाने में काम आया है। महिलाओं की ओर से आने वाली पूरक या अतिरिक्त आय ने शहरों में घर और संपत्ति में निवेश करने के रास्ते खोले, बच्चों को बेहतर स्कूलों में भेजा गया और जरूरतें पूरी होने के बाद शौक को पूरा करने में भी कोताही नहीं बरती गई।
आंकड़े एकत्रित करने वाली एजेंसियां स्वीकार करती हैं कि कामकाजी होने के तौर पर महिलाओं की भागीदारी को अक्सर वास्तविकता से बहुत कम आंका जाता है। बावजूद इसके, पिछले सालों में पेड वर्कफोर्स यानी वेतनभोगी जनबल में महिलाओं की भागीदारी तेजी से बढ़ी है। आप को जानकर हैरानी होगी कि सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में कुल वर्कफोर्स का 30 फीसदी महिलाएं हैं और तनख्वाह, पोजिशन या सुविधाओं के लिहाज से वे अपने पुरुष सहयोगियों से पीछे नहीं हैं।
2001 में भारत में शहरी महिलाओं की औसत मासिक आमदनी साढ़े 4 हजार रुपए से कम थी, जो 2010 तक बढ़ कर दोगुनी से भी ज्यादा यानी 9,457 रुपए हो गई। महिलाओं की आमदनी में हुई इस वृद्धि का असर सीधे तौर पर परिवार की आमदनी पर पड़ा जो 10 सालों में 8,242 रुपए से बढ़कर 16,509 रुपए हो गई। इतना ही नहीं, भारत में प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी (पर कैपिटा इनकम) 16,688 रुपए से बढ़कर 54,825 रुपए हो गई, यानी आमदनी में 228 फीसदी वृद्धि हुई।
आमदनी बढऩे का असर परिवार के रहन-सहन और खर्च करने की ताकत पर भी पड़ा। कृषि और कृषि से जुड़े क्षेत्रों के वर्कफोर्स का बड़ा हिस्सा महिलाएं हैं। बल्कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तकरीबन 90 फीसदी है। वल्र्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, खेतों में महिलाएं कुल मजदूरी की 55 फीसदी से 66 फीसदी तक की भागीदारी निभाती हैं जबकि डेयरी प्रोडक्शन में तो उनकी भागीदारी 94 फीसदी है। जंगलों से जुड़े छोटे और गृह उद्योगों में 51 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं और यही बात हथकरघा उद्योग के मामले में भी लागू होती है। साक्षर महिलाओं ने अपने आसपास दिखाई देने वाले काम के अवसरों का भरपूर फायदा उठाया और परिवार तथा समाज की बेहतरी में योगदान दिया। पंचायत में महिलाओं को मिलने वाले 33 फीसदी आरक्षण ने न सिर्फ गांवों और पंचायतों में उनके नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया बल्कि कई पिछड़े इलाकों से महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए उठाए गए कदमों की खबरें भी आईं। राष्ट्रीय राजनीति में अभी भी महिलाएं बड़ी भूमिका में नहीं आ पाई हैं। 11 फीसदी सांसद और मंत्री पदों पर मौजूद 10 फीसदी महिलाओं के कंधों पर ही सत्ता के केंद्र में जाकर आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का दारोमदार है।
बदली है हमारी भी सोच
धीरे-धीरे ही सही, लेकिन वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को न सिर्फ अहमियत दी जा रही है बल्कि तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद उन्हें शिक्षित होने और काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। शहरीकरण और भूमंडलीकरण का नतीजा कह लीजिए कि शहरों में डबल इनकम यानी दोगुनी आय की आवश्यकता महसूस होने लगी। 20 साल पहले तक महिलाएं किसी मजबूरी की वजह से काम करने निकला करती थीं। उनके लिए काम भी तय थे, स्टैनोग्राफर, टाइपिस्ट, रिसैप्शनिस्ट या फिर टीचर। वक्त के साथ-साथ नए आयाम खुले और ये सोच भी बदली। कुछ समाज बदला, कुछ समाज की जरूरतों के हिसाब से नीतियां बदलीं। मैटरनिटी लीव और बेहतर वेतन की मांग धीरे-धीरे पूरी होने लगी तो महिलाओं के लिए काम करना थोड़ा आसान हुआ। हालांकि, वर्कप्लेस पर बराबरी की मांग अभी भी जोर-शोर से उठाई जाती है। हम इस सफर में आगे बढ़े हैं और नए रास्ते भी खुलने लगे हैं।
-ज्योति आलोक निगम