03-Jan-2017 07:15 AM
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राजधानी भोपाल से 17 किमी दूर गुड़ारी घाट गांव के रहने वाले रामकुमार की पत्नी सीमा पेट से थी। रामकुमार गरीब परिवार का था। बहुत कोशिशों के बाद भी उसका बीपीएल कार्ड नहीं बना था। इस वजह से गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों को मिलने वाले सरकारी फायदे भी नहीं मिल रहे थे। दलित जाति का होने के चलते उसके पास जमीन का कोई पट्टा भी नहीं था। उसकी पत्नी पेट से हुई, तो गांव की स्वास्थ्यकर्मी आशाÓ ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में ले जाकर दवाएं दिलवा दी थीं। सीमा कमजोर थी। यह उसका तीसरा बच्चा था। बच्चा जनने के दिन उसे बहुत दर्द हो रहा था। गांव में पहले वह स्वास्थ्य केंद्र गई। वहां डिलिवरी कराने की अच्छी सुविधा नहीं थी, तो डाक्टर ने उसे जिला अस्पताल, भोपाल भेज दिया। रास्ते में ही उसे दर्द शुरू हो गया। कमजोर होने के चलते वह डिलिवरी नहीं कर पाई और उसकी सांसें समय से पहले ही थम गईं।
सीहोर के एक गांव की रहने वाली सुभावती भी बच्चा जनने के दौरान गुजर गई। उसे जब दर्द उठा, तो सबसे पहले गांव की कुछ औरतों ने घर में ही बच्चा पैदा कराने की कोशिश की। इस दौरान बच्चे का सिर अंग से बाहर आ गया, पर आगे का हिस्सा बाहर नहीं आ पाया। सुभावती को खून बहने लगा। उसका पति ब्रजेश और गांव के लोग अस्पताल ले जाने लगे, तभी रास्ते में उसकी मौत हो गई। ब्रजेश अतिपिछड़ी जाति का था। गांव से सड़क तक आने में 2 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता है। आसपास कोई डाक्टर या दूसरी स्वास्थ्य सेवाएं न होने के चलते ऐसी घटनाएं कई बार घट जाती हैं। गांव में रहने वाली गरीब औरतों के मामलों में सबसे ज्यादा बच्चा जनने के दौरान मौत होती है। ये लोग गरीब और नासमझ दोनों होते हैं। ऐसे में इनको किसी तरह की सरकारी मदद भी नहीं मिल पाती है। ऐसी घटनाएं केवल मप्र में ही नहीं, देश के बाकी प्रदेशों में भी होती हैं। देश में बच्चा जनने के दौरान मरने वाली औरतों की तादाद काफी है। देशभर के सरकारी अस्पतालों में 3429 महिला डाक्टर होनी चाहिए, पर केवल 1296 पदों पर ही महिला डाक्टर तैनात हैं।
एक तरफ सरकार ने संसद में मातृत्व अवकाशÓ यानी मैटरनिटी लीव के लिए बिल लाकर उसे 6 हफ्ते से बढ़ा कर 12 हफ्ते करके ऐसा जताया है, जैसे औरतों के लिए बहुत बड़ा काम कर दिया हो, दूसरी ओर अभी भी देश में बच्चा जनने के दौरान हर घंटे 5 औरतों की जान जा रही है। मातृत्व अवकाशÓ का फायदा चंद औरतों तक ही पहुंच रहा है। जरूरत इस बात की है कि देश में बदहाल महिला स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर किया जाए, जिससे गांव में काम करने वाली मजदूर औरतें भी महफूज तरीके से बच्चा पैदा कर सकें। उन्हें अपनी जान से हाथ न धोना पड़े। मातृत्व अवकाशÓ का फायदा लेने वाली औरतें हर तरह से जागरूक और सक्षम हैं। वे अपना इलाज और देखभाल बेहतर तरीके से कर सकती हैं।
गांव की रहने वाली गरीब औरतें न तो सक्षम हैं और न ही जागरूक। ऐसे में जननी सुरक्षा योजनाÓ के तहत केवल एक हजार रुपए की मदद देकर महफूज तरीके से बच्चा पैदा करने की सोचना बेमानी बात है। जननी सुरक्षा योजनाÓ भी दूसरी तमाम सरकारी योजनाओं की तरह लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की शिकार है, जिससे इसका सही फायदा औरतों को नहीं मिल पा रहा है। अभी हाल ही में राजधानी के सुल्तानिया जनाना अस्पताल में घटित घटनाएं मप्र के स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल रही है। ऐसी बेबुनियादी सेवाओं से जननी की सुरक्षा की कामना कैसे की जा सकती है।
काम नहीं आ रही योजना
बच्चा जनने के दौरान होने वाली मौतों को रोकने और जच्चा-बच्चा की सेहत का ध्यान रखने के लिए साल 2005 में जननी सुरक्षा योजनाÓ शुरू की गई। इस योजना में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली औरतों का खास खयाल रखने की कोशिश शुरू हुई। इस योजना के तहत अस्पताल में बच्चा जनने वाली औरतों को एक हजार रुपया दिया जाने लगा। इस योजना में यह तय किया गया कि बच्चा अस्पताल में पैदा हो या ट्रेनिंग दाई द्वारा ही कराया जाए। इस योजना के फायदे उन तक पहुंचाने के लिए महिला स्वास्थ्यकर्मी आशा बहूÓ को तैयार किया गया। जननी सुरक्षा योजनाÓ का लाभ लेने के लिए बच्चा पैदा कराने वाली औरत को अस्पताल में अपना रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है। इसके बाद भी अस्पतालों में सौ फीसदी बच्चे पैदा नहीं हो रहे हैं। इस वजह से ही बच्चा जनने के दौरान होने वाली मौतों को रोका नहीं जा सका है। आंकड़े बताते हैं कि 80 फीसदी अस्पतालों में तय मानक से दोगुना मरीज होते हैं। 62 फीसदी सरकारी अस्पतालों में महिला डाक्टर यानी गाइनिकोलौजिस्ट नहीं होती हैं 30 फीसदी जिलों में एएनएम यानी आरर्जिलरी नर्स मिडवाइफ ही महिला मरीजों को देखती हैं, इन पर भी दोगुना मरीजों को देखने का भार होता है। 22 फीसदी स्वास्थ्य केंद्र ऐसे होते हैं, जहां पर एएनएम तक नहीं मिलतीं।
-ज्योति आलोक निगम