20-Jan-2017 09:06 AM
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मप्र जहां एक तरफ अनाज उत्पाद में पिछले चार साल से कृषि कर्मण सम्मान पा रहा है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में किसान निरंतर आत्महत्या कर रहे हैं। है न चौंकाने वाली बात। दरअसल, प्रदेश में किसान सरकार के लक्ष्य को पूरा करने के लिए रिकार्ड अनाज उत्पादन तो करता है लेकिन इसके लिए उसे बड़ी राशि व्यय करनी पड़ती है। जब उत्पादित अनाज या समान का वाजिब दाम उसे नहीं मिलता है तो वह आत्महत्या करने को मजबूर होता है। अभी हाल ही में कर्ज की वजह से खरगोन जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर उमरखली गांव में एक किसान दिनेश ने अपनी जान दे दी। दिनेश ने खेत में ही कीटनाशक दवाई पीकर खुदकुशी कर ली। उस दिन दिनेश ने ही नहीं बल्कि कुछ छह किसानों ने आत्महत्या की होगी। क्योंकि एनसीआरबी के अनुसार, मप्र में रोजाना 6 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
एक तरफ सरकार पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के बीच किसानों की बदहाली की एक बेहद दुखद तस्वीर सामने आई है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने खुलासा किया है कि वर्ष 2015 में कुल 8007 किसानों ने आत्महत्या की, जो वर्ष 2014 में आत्महत्या करने वाले 5650 किसानों की संख्या की तुलना में 42 फीसदी अधिक है। हालांकि, इस दौरान कृषि श्रमिकों की खुदकुशी दर में 31 फीसदी से अधिक की कमी भी दर्ज की गई। वर्ष 2014 में जहां 6710 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की थी, वहीं वर्ष 2015 में 4595 कृषि श्रमिकों ने जीवन त्याग दिया।
दरअसल प्रदेश में किसान बैंक, महाजन या अन्य स्रोतों से कर्ज लेकर खेती करता है ताकि फसल बेचकर वह चुकता कर देगा। लेकिन किसान की उत्पादित फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल पाता है। इसका नजारा पिछले साल प्याज और अब टमाटर और आलू की फसल आने के बाद साफ दिख रहा है। आलम यह है कि किसान जब अपनी फसल लेकर मंडी पहुंच रहा है तो उसे अपनी फसल के बदले भाड़े तक की रकम
नहीं मिल पा रही है। ऐसे में किसान के
पास आत्महत्या करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष अरुण यादव ने इस मामले में सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि मप्र सरकार की नीतियां किसान विरोधी हैं। लगातार प्रकृति की मार से किसान और कर्जदार हुआ है, लेकिन सरकार उन्हें सिर्फ आश्वासन ही दे रही है। परेशान किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं पर सरकार मानने को तैयार नहीं है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि 1995 से 3.18 लाख से किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बीते दो दशक में हर साल यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। नीतियां बनाने वालों के लिए ये बस आंकड़े हैं। मौत का ग्राफ बढ़ ही रहा है। दरअसल, तमाम आधुनिक उपकरणों की उपलब्धता के बावजूद तथ्य यह है कि ज्यादातर किसान अब भी फसलों की बुवाई और सिंचाई के मामले में बारिश पर ही निर्भर हैं। लेकिन बीते कोई डेढ़ दशक से मौसम के लगातार बदलते मिजाज और बेमौसमी बरसात ने उनकी तबाही के रास्ते खोल दिए हैं। कहीं जरूरत से ज्यादा बारिश उनकी तबाही की वजह बन जाती है तो कहीं बेमौसम बारिश फसलों की काल बन जाती है। सूखा और बाढ़ की समस्या तो लगभग हर साल सामने आती है। इसके अलावा कर्ज का लगातार बढ़ता चक्र भी एक अहम वजह है। बैकों से कर्ज की खास सुविधा नहीं होने की वजह से किसानों को बीज, खाद और सिंचाई के लिए पैसों की खातिर महाजनों और सूदखोरों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह लोग 24 से 50 फीसदी ब्याज दर पर उनको कर्ज देते हैं। लेकिन फसलों की उपज के बाद उसकी उचित कीमत नहीं मिलने की वजह किसान पहले का कर्ज नहीं चुका पाता। वह दोबारा नया कर्ज लेता है और इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्ज के भंवरजाल में फंसती रहती है। आखिर में उसे इस समस्या से निजात पाने का एक ही उपाय सूझता है और वह है मौत को गले लगाना।
मप्र में रोजाना छह किसान कर रहे आत्महत्या
मप्र में किसानों के खुदकुशी के मामले बढ़े हैं। 2015 में रोजाना औसतन चार किसान जान दे रहे थे, जो 2016 में बढ़कर छह हो गए। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2015 में 1290 किसान-श्रमिकों ने जान दी। एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2015 की रिपोर्ट के अनुसार किसानों की 87 फीसदी आत्महत्या महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र और तमिलनाडु में हुई हैं। गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने पिछले दिनों विधानसभा में जवाब दिया था कि एक फरवरी 2016 से 15 नवंबर 2016 के बीच 1685 किसानों ने जान दी। इनमें डिंडोरी में सबसे ज्यादा 68 किसानों ने अपने प्राण त्यागे। वहीं सागर में 45, झाबुआ में 33, अलीराजपुर में 32, खरगौन में 30 किसानों ने खुदकुशी की। बड़े जिलों में भोपाल में एक, जबलपुर में 12, ग्वालियर में खुदकुशी के 2 मामले सामने आए।
-अक्स ब्यूरो