20-Jan-2017 08:29 AM
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पंजाब में नई राज्य सरकार चुनने के लिए 4 फरवरी को मतदान होने वाले हैं, और कईयों के जेहन में सवाल है, क्या आम आदमी पार्टी 2015 में दिल्ली की अपनी जीत को यहां दोहरा सकेगी या फिर पार्टी राज्य में अपनी धूमिल छवि से नहीं उबर पाएगी? विधानसभा चुनावों में दांव 117 सीटों पर खेला जाएगा जहां भाजपा के साथ गठबंधन में सत्ताधारी शिरोमणि अकाली दल विकास के मुद्दे को लेकर मैदान में उतरेगी और लगातार तीसरी बार बढ़त बनाए रखने की कोशिश करेगी।
पटियाला के राजवंशी खानदान के मुखिया कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के लिए यह चुनाव राज्य में अपने आप को बचाने का संघर्ष ही रहेगा। लेकिन पारंपरिक पार्टियों के विकल्प के तौर पर उभरी आम आदमी पार्टी यानी आप के लिए पंजाब में अगली सरकार बनाने की संभावना से इंकार करना मुश्किल है। पार्टी ने कई मुद्दों पर ऊंचे नैतिक मूल्य अपनाए हैं, खास कर भ्रष्टाचार, नशाखोरी, बेरोजगारी, सार्वजनिक संपत्ति का गलत इस्तेमाल, माफिया राज और सत्ता में वंशवाद और ताकत के गलत इस्तेमाल के मुद्दों पर। पार्टी को भरोसा है कि साल 2014 में हुए संसदीय चुनावों में उसे जो सफलता मिली थी, वो उससे बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर देश के कई राज्यों में देखी गई थी लेकिन पंजाब में मोदी की लहर कोई खास असर नहीं दिखा पाई थी। राज्य की कुल 13 लोकसभा सीटों में से आप ने 4 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि एक सीट पर पार्टी कुछ वोटों के कारण दूसरे स्थान पर आई थी। ये साल 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में तीसरे मोर्चे के प्रदर्शन से बेहतर था। उस चुनाव में हाल में कांग्रेस में शामिल हुए पीपुल्स पार्टी ऑफ पंजाब, वामपंथी दल, अकाली दल से अलग हुए कुछ दल को लेकर बने इस मोर्चे को 6 फीसदी वोट ही मिल सके थे।
पंजाब में आप के उभरने के कारणों को देखें तो ये राज्य में आतंकवाद के बाद के समय में जुड़े हैं। साल 1997 से पहले के राज्य विधानसभा चुनावों में धर्म और जाति के नाम पर मतदान होता था, जो अब अपनी पंजाबी पहचान के इर्द-गिर्द सिमटने लगा था। जैसे-जैसे एकमात्र धार्मिक पहचान नए उभरे सामाजिक ढ़ांचे में घुलती चली गई, एक तरह के तीसरे मोर्चे के लिए जगह बनती चली गई जिसमें ताकतवर जाट समुदाय, दलित, शहरों में बसे हिंदू थे और वे साझा मंच पर आने लगे थे। ऐसे में आप के नेतृत्व खास कर इसके प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार और ड्रग्स के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की।
पार्टी ने प्रधानमंत्री मोदी की दक्षिणपंथी राजनीति, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के वंशवादी शासन और पंजाब में अकाली दल खासकर मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल के परिवारवाद को चुनौती दी और मतदाताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने में सफल हुई। लेकिन साल 2017 के चुनाव में जीत आप के लिए आसान न होगी। साल 2015 में राज्य में कई जगहों पर धार्मिक स्थानों को अपवित्र करने की घटनाएं और छाबा गांव में सरबत खालसा के एकजुट होने से एक बार फिर राजनीति और धर्म के रिश्ते को सामने ला दिया है। आप सत्तारूढ अकाली-भाजपा गठबंधन को भ्रष्टाचार और ड्रग्स के मुद्दे पर घेरने की कोशिश करती रही है, लेकिन धर्म व जाति के आधार पर बंटे हुए मतदाताओं के बीच अच्छा आधार नहीं बना सकी है।
खुद को सुच्चा साबित
करने की चुनौती
आप ने कम समय में राज्य में पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को इक_ा किया है। लेकिन टिकटों की बिक्री, पार्टी फंड के इस्तेमाल में पारदर्शिता न होने, कुछ नेताओं की संपत्ति और कुछ संवेदनशील मुद्दों पर गलतबयानी के आरोपों के कारण बैकफुट पर आना पड़ा। इनमें से कई आरोपों से पार्टी ने इंकार किया और कहा कि विरोधी दल आप को भी अन्य पार्टियों की तरह दिखाना चाहते हैं। इधर दिल्ली में आप सरकार पर काम न कर पाने के आरोप लगते रहे हैं। नोटबंदी के फैसले के साथ पीएम मोदी काफी हद तक नैतिक मूल्यों की सोच को बदलने में सफल हुए हैं। मध्यवर्गीय युवा के एक वर्ग के लिए वो एक आइकन की तरह उभरे हैं जिन्होंने उन्हें नए मौके दिए हैं। साल 2014 के बाद से कांग्रेस को केंद्र में एंटी इंकमबेंसी का सामना नहीं करना पड़ा है। पंजाब में सत्तारूढ़ गठबंधन अपने विकास कार्यों जैसे कि आधुनिक इमारतें, सड़कें और सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बढ़ाने की कोशिशों को जनता के पास लेकर जा रही है। वहीं दूसरी ओर आप के पास ना तो कोई नाकामियां हैं, ना ही पार्टी सतलुज-यमुना लिंक कनाल बनने और नवंबर 1984 में हुए सिख-विरोधी दंगों जैसे मुद्दों में किसी तरह की सफलता के दावे ही कर सकती है। मार्च 11, 2017 को वोटों की गिनती होगी और इसका फैसला हो जाएगा कि पंजाब के मतदाताओं ने साल 2014 वाला रुख अपनाया या उन्होंने आगे बढ़ किसी नए विकल्प पर मुहर लगाई।
-अक्स ब्यूरो