20-Jan-2017 08:07 AM
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म्हाभारत का नायक भले ही अर्जुन हैं लेकिन महानायक तो भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। क्योंकि श्रीकृष्ण ने न केवल पांडवों को जीत का मार्ग प्रशस्त किया बल्कि भागवत गीता में उन्होंने जो कुछ भी कहा उस पर अमल भी किया। गीता के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अनासक्त कर्म यानी फल की इच्छा किए बिना कर्म करने की प्रेरणा दी। इसका प्रमाण उन्होंने अपने निजी जीवन में भी प्रस्तुत किया। मथुरा विजय के बाद भी उन्होंने वहां शासन नहीं किया।
श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के एक अवतार हैं। यह अवतार उन्होंने द्वापर में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। उस समय चारों ओर पाप कृत्य हो रहे थे। धर्म नाम की कोई भी चीज नहीं रह गई थी। इसलिए धर्म को स्थापित करने के लिए श्रीकृष्ण अवतरित हुए थे। श्रीकृष्ण ने तब पापों का नाश करके धर्म की स्थापना तो की ही उस काल में महाभारत में भी उनका अमूल्य योगदान रहा।
भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने कला से प्रेम करने की बात कही है। क्योंकि संगीत व कलाओं का हमारे जीवन में विशिष्ट स्थान है। भगवान ने मोरपंख व बांसुरी धारण करके कला, संस्कृति व पर्यावरण के प्रति अपने लगाव को दर्शाया। इनके जरिए उन्होंने संदेश दिया कि जीवन को सुंदर बनाने में संगीत व कला का भी महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने कहा है कि कमजोर व निर्बल का सहारा बनो। निर्धन बाल सखा सुदामा हो या षड्यंत्र का शिकार पांडव, श्रीकृष्ण ने सदा निर्बलों का साथ दिया और उन्हें मुसीबत से उबारा। श्रीकृष्ण ने कहा है कि अन्याय का सदा विरोध होना चाहिए। श्रीकृष्ण की शांतिप्रियता कायर की नहीं बल्कि एक वीर की थी। उन्होंने अन्याय कभी स्वीकार नहीं किया। शांतिप्रिय होने के बावजूद शत्रु अगर गलत है तो उसके शमन में पीछे नहीं हटें।
भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया है कि महिलाओं के प्रति सम्मान व उन्हें साथ लेकर चलने का भाव हो। भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला दरअसल मातृशक्ति को अन्याय के प्रति जागृत करने का प्रयास था और इसमें राधा उनकी संदेशवाहक बनीं। उन्होंने कहा है कि व्यक्तिगत जीवन में हमेशा सहज व सरल बने रहो। जिस तरह शक्ति संपन्न होने पर भी श्रीकृष्ण को न तो युधिष्ठिर का दूत बनने में संकोच हुआ और न ही अर्जुन का सारथी बनने में। एक बार तो दुर्योधन के छप्पन व्यंजन को छोड़ कर विदुरानी (विदुर की पत्नी) के घर उन्होंने सादा भोजन करना पसंद किया। उदारता व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाती है। श्रीकृष्ण ने जहां तक हो सका मित्रता, सहयोग सामंजस्य आदि के बल पर ही परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास किया, लेकिन जहां जरूरत पड़ी वहां सुदर्शन चक्र उठाने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। वहीं अपने निर्धन सखा सुदामा का अंत तक साथ निभाया और उनके चरण तक पखारें।
श्रीकृष्ण ने कहा है कि व्यक्तिगत जीवन में हमेशा सहज व सरल बने रहो। जिस तरह शक्ति संपन्न होने पर भी श्रीकृष्ण को न तो युधिष्ठिर का दूत बनने में संकोच हुआ और न ही अर्जुन का सारथी बनने में। एक बार तो दुर्योधन के छप्पन व्यंजन को छोड़ कर विदुरानी (विदुर की पत्नी) के घर उन्होंने सादा भोजन करना पसंद किया। उदारता व्यक्तित्व को संपूर्ण बनाती है। श्रीकृष्ण ने जहां तक हो सका मित्रता, सहयोग सामंजस्य आदि के बल पर ही परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास किया, लेकिन जहां जरूरत पड़ी वहां सुदर्शन चक्र उठाने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया। वहीं अपने निर्धन सखा सुदामा का अंत तक साथ निभाया और उनके चरण तक पखारें।
समस्त देवताओं में श्रीकृष्ण ही ऐसे थे जो इस पृथ्वी पर सोलह कलाओं से पूर्ण होकर अवतरित हुए थे। महाभारत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। इस ग्रंथ के मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। निरूशस्त्र होते हुए भी भगवान श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन द्रौपदी स्वयंवर के अवसर पर होता है। जब अर्जुन के लक्ष्यवेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है तब कौरव पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिए युद्ध की योजना बनाते हैं। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि इन लोगों ने द्रौपदी को धर्मपूर्वक प्राप्त किया है, अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देखकर सभी लोग शांत हो गये और द्रौपदी के साथ पांडव सकुशल अपने निवास पर चले गये।
इसी प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब यह प्रश्न खड़ा हुआ कि यहां सर्वप्रथम किस की पूजा की जाए तो उस समय महात्मा भीष्म ने कहा कि वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलय रूप हैं और इस जगत का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं, अतएव वे ही प्रथम पूजनीय हैं। भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निंदा की और भीष्म पितामह को भी खरी खोटी सुनाई। भगवान श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक दिव्य तेज निकला और भगवान श्रीकृष्ण में समा गया। इस अलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान के हाथों मरकर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है। महाभारत में पांडवों को भगवान श्रीकृष्ण का ही सहारा था। महाभारत काल में हुए युद्ध को रोकने के लिए श्रीकृष्ण शांतिदूत बने, लेकिन धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन के अहंकार के कारण युद्ध हुआ। दिव्यास्त्रों से भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों की रक्षा की। आखिरकार युद्ध का अंत
हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ।
-ओम