03-Jan-2017 06:47 AM
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राम चरित मानस के सुंदरकांड की एक चौपाई-ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी सकल ताडऩा के अधिकारीÓÓ को लेकर हमेशा विवाद रहा है। जब श्री राम को असहाय अवस्था में देख समुद्र को अपने ऊपर घमंड हो गया था और श्रीराम के विनय को ठुकरा कर रास्ता नहीं दे रहा था तब तुलसीदास जी ने प्रसंगवश इस चौपाई को प्रस्तुत किया।
दरअसल, लोगों ने इन पंक्तियों का गलत अर्थ निकालकर तुलसीदास जी की रामचरित मानस को कलंकित किया है। मानस में नारी जाति के लिए अन्यत्र भी ऐसी अशोभनीय धर्मविरूद्घ और नीति विरूद्घ बातें कही हैं या एक ही स्थान पर ऐसा कहा है? अन्य स्थानों पर हम देखते हैं कि तुलसीदास जी ने नारी को पुरूष की पूरक ही माना है। वेद के शब्दों में उसे पति की पोष्या ही स्वीकार किया है। उन्होंने युग धर्म (जमाने के दौर) के अनुसार पोष्या को दासी शब्द से बांधा है, लेकिन दासी का अर्थ कहीं भी पांव की जूती या ताडऩा की अधिकारी के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है। भक्त भगवान का दास है तो उसका अभिप्राय ये नहीं है कि वह भगवान की ताडऩा अर्थात दण्ड का अधिकारी हो जाता है, बल्कि इसका अभिप्राय है कि वह ईश्वर की करूणा का, तारन का, त्राण का अधिकारी हो गया है, ऐसा माना जाता है। तुलसीदास जी ने भी ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी को तारन का अधिकारी कहा है। ताडऩ शब्द तारन के स्थान पर प्रक्षिप्त हो गया है। वैसे भी हिंदी की रÓ ड़Ó में और ड़Ó रÓ में स्थान-2 पर परिवर्तित हो जाती है।
अब हम इस विषय में थोड़ा रामचरित मानस में तुलसीदास जी के नारी जाति के प्रति दृष्टि कोण पर विचार करते हैं। बालकाण्ड (121) में श्रीराम के जन्म लेने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम असुरों को मारकर देवताओं को राज्य देते हैं और अपनी बांधी हुई वेद मर्यादा की रक्षा करते हैं। यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि राम वेद मर्यादा का निरूपण करते हैं, अत: राम वेद मर्यादा के रक्षक सिद्घ हुए। वेद पत्नी की मर्यादा का निरूपण करते हुए स्पष्ट करता है...
त्वं सम्राज्ञयेधि पत्युरस्तं परेत्य (अथर्व 14/1/43) अर्थात पति के घर जाकर पत्नी घर की महारानी हो जाती है। पत्नी को गृहस्वामिनी कहने की परंपरा भारत में आज तक है। ये परंपरा वेद की ही देन है। करोड़ों वर्ष से हम इस व्यवस्था में जी रहे हैं और इसे ही मान रहे हैं। पत्नी को देहात में घरवाली भी कहा जाता है, उस शब्द का अर्थ भी गृहस्वामिनी ही मानना और जानना अभिप्रेत है। अथर्ववेद (अथर्व 14/1/27) में पति को पत्नी की कमाई खाने से निषिद्घ किया गया है। अत: वेद का निर्देश है कि पति ही पत्नी का पोषण करेगा। वह उसकी कमाई नहीं खाएगा। यदि तुलसी के राम इसी मर्यादा के रक्षक हैं तो उनके लिए नारी तारनÓ की अधिकारिणी ही सिद्घ होती है।
जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जाते हैं तो कहा जाता है कि समुद्र उन्हें रास्ता नहीं दे रहा था, (वास्तव में समुद्र का अर्थ यहां किसी ठेकेदार अर्थात निविदाकार से लेना चाहिए, जिसके क्षेत्राधिकार में संबंधित समुद्री क्षेत्र आता होगा। उसके छोटे-छोटे कर्मचारी राम को निकलने नहीं दे रहे होंगे, लेकिन जब राम ने लक्ष्मण से बाण संभालने की बात कही तो उन लोगों में हड़कंप मच गया और तब उनका उच्चाधिकारी अर्थात निविदाकार वहां पहुंचा होगा) तो तब उस निविदाकार ने प्रभु राम को मनाने का अनुरोध किया। तब उस निविदाकार रूपी समुद्र ने राम से याचना करते हुए कहा कि आप मेरे सब अपराध क्षमा करें।
यहां समुद्र स्वयं को जड़ बता रहा है और कह रहा है कि इस समय आप अपने कोप को शांत करें। मेरे लोगों से जो अपराध हो गया है उसे क्षमा करें। तब वह कहता है-
ढोल, गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताडऩा के अधिकारी।।
अर्थात हे राम! ढोल अपनी कसैली आवाज से लोगों को परेशान करता है लेकिन उस पर कोप इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि वह एक जड़ वस्तु है, इसलिए मुझ पर भी कोप मत करो। जड़ वस्तु पर कोप करना नीति विरूद्घ है, इसलिए समुद्र जैसी जड़ वस्तु पर कोप करते हुए इसे एक ही बाण से सुखाने की बात मत करो, क्योंकि इससे अनेकों जीवों का विनाश हो जाएगा। इससे पहली चौपाई में समुद्र जड़ वस्तुओं पर क्रोध न करने की बात कह रहा है, और अगली चौपाई में जड़ वस्तु को वह प्रचलित अर्थ के अनुसार दंडित करने की बात कहने लगे तो यह बात जंचती नहीं।
मेरे लोगों से मूर्खता वश, गंवारूपन से अपराध हो गया है, जिस कारण उन्होंने आपको निकलने का मार्ग नहीं दिया। उन्हें आपकी शक्ति का अनुमान नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने गंवार होने का परिचय दिया है। उनसे अनजाने में गलती हुई है इसलिए उन्हें क्षमा करें। अत: उन्हें मूर्ख, शूद्र और नारी के समान अपनी कृपा का पात्र बनाओ अर्थात उनके अपराध पर अधिक ध्यान उसी प्रकार मत दो जिस प्रकार शूद्र, पशु और नारी की किसी गलती पर नहीं दिया जाता है। नारी अबला होने के कारण दंड की अधिकारिणी नहीं है। लेकिन आज भी इस चौपाई का अर्थ का अनर्थ लगाया जाता है।
-ओम