तरक्की की राह नहीं आसान
17-Nov-2016 06:40 AM 1234898
लोकतंत्र की सबसे छोटी संसद में हालांकि महिलाएं 50 फीसदी सीटों पर काबिज हैं, लेकिन इन महिला जनप्रतिनिधियों में से कई पढ़ी-लिखी होने के बाद भी ग्राम सभाओं में घूंघट में बैठी रहती हैं। जुबान ही नहीं खोलतीं। वे कहने को तो सरपंच हैं, लेकिन पंचायत का सारा काम घर के पुरुष सदस्य करते हैं। महिलाएं सिर्फ रबर स्टैंप बनकर रह गई हैं। कागजों में दस्तखत भी पुरुष करते हैं। इन महिला सरपंचों को मोबाइल करो तो घर के पुरुष ही फोन उठाते हैं। हर निर्णय वही करते हैं। गांवों में अब सरपंच पतिÓ जैसा पद भी ईजाद हो गया है। महिला सशक्तिकरण के नाम पर यह धोखा नहीं तो और क्या है। आलम यह है कि पंचायत की सरपंच भले ही महिला होती है, लेकिन सभी काम उसके पति ही करते है। स्थिति ऐसी है कि कई सरपंच तो 5वीं जमात पास भी नहीं होतीं। यहां तक कि उन्हें दस्तखत करने तक नहीं आते। ऐसे में वे मंच पर कैसे बैठेंगी? वे घूंघट में ही रहती हैं। जो औरत अनपढ़ हो, वह भला भाषण कैसे देगी? यही वजह है कि ज्यादातर महिला सरपंच घर में ही बैठी रहती हैं और गांव वाले उनके पति को ही सरपंच मानते हैं। गांव में तो सरपंच पति की ही चलती है। दरअसल सरपंच पति ही खुद नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी का घूंघट उठे। वह तो बस पत्नी की सत्ता हथियाना चाहता था। यह कहानी किसी एक गांव या किसी एक महिला सरपंच की नहीं है, बल्कि ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जिनमें सरपंच भले ही पत्नी हो, लेकिन उसकी चाबी पति के हाथों में होती है। सरपंच होने के बावजूद उसे दुनियादारी की कोई खबर नहीं होती। पति जैसी पट्टी पढ़ाता है, वह उसे मान लेती है। पति जहां दस्तखत करने या अंगूठा लगाने को कहता है, वह वैसा ही कर देती है। दरअसल, घूंघट में रहने वाली महिला सरपंच अपने पति के हाथ की कठपुतली बन कर रह जाती है। हर गांव में तकरीबन आधी आबादी औरतों की होती है। आज भले ही औरतें थोड़ा बहुत पढ़ लिख लेती हों, लेकिन गांव का माहौल होने की वजह से उनके चेहरे से घूंघट नहीं हटा है। ऐसे में सरपंच होते हुए भी उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती। वे अपने पति के नाम से ही जानी जाती हैं। कैसी अजीब बात है कि सरपंच के चुनाव में मतदाता बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और उसे अपना वोट देते हैं, जिसका चेहरा तक उन्होंने नहीं देखा होता। ऐसे में उसे पहचानने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। ज्यादातर घूंघट में रहने वाली महिला सरपंच को मतदाता उसके पति को देख कर वोट देते हैं। घूंघट में रहने वाली सरपंच अपने मतदाताओं को पहचानती तक नहीं है। घूंघट में रहना लोकतंत्र और औरत जाति के लिए एक चुनौती है। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है और आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन नहीं बदली है तो गांव के लोगों की सोच। घूंघट में जीना यहां की औरतों की जिंदगीभर की कहानी है। औरतें भले ही इस बात को न मानें कि वे घूंघट में घुटनभरी जिंदगी जी रही हैं, लेकिन इस कड़वी सचाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। राजनीति घूंघट में रह कर नहीं हो सकती। इसके लिए बेबाक होना पड़ता है, तभी उसका असर पड़ता है। जब औरतें घूंघट में होंगी, किसी कार्यक्रम में मंच पर बैठेंगी ही नहीं या घूंघट निकाल कर बैठेंगी, तो वहां के हालात बड़े अजीबो-गरीब हो जाते हैं। गांवों में तरक्की हुई है, बराबरी बढ़ी है, लेकिन नहीं बदली है तो वहां के लोगों की सोच। औरतों को अपने से कमतर मानने की सोच के चलते ही उनके चेहरे से परदा नहीं हट पा रहा है। औरतों के सिर से घूंघट हटाने के लिए एक सजग क्रांति की जरूरत है। इसके लिए लड़कियों के माता-पिता को आगे आना होगा। उन्हें अपनी बेटियों की शादी उसी परिवार में करानी चाहिए, जहां घूंघट का बंधन नहीं हो और वे आसानी से सांस ले सकें। घूंघट में रह कर औरतें अपनी जिंदगी के ताने-बाने को कैसे बुन सकती हैं? घूंघट में रह कर राजनीति या समाजसेवा नहीं की जा सकती। गांव की तरक्की न केवल औरतों के पढ़े-लिखे होने पर टिकी है, बल्कि घूंघट मुक्त समाज पर भी निर्भर करती है। योजनाओं में कितना धन पंचायत क्षेत्र में विकास के लिए टीएफसी, एसएफसी, निर्बन्ध योजना के तहत आबादी के हिसाब से बजट आता है। पंचायतों को आबादी के हिसाब से 20 से 50 लाख रुपए तक का बजट मिलता है। इसके अलावा सरपंच अपने प्रयासों से भी सांसद कोष, विधायक कोष, पंचायत समिति कोष से भी बजट स्वीकृत कराते हैं। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा के अनुरूप एक पंचायत में स्वच्छता एवं पेयजल कार्यों के लिए आबादी के हिसाब से 20 से 60 लाख तक के बजट देने की भी घोषणा की गई है। -ज्योति आलोक निगम
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