आखिर क्यों बनती हैं कागजी राजनीतिक पार्टी?
03-Jan-2017 07:02 AM 1234945
विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में राजनीति धंधा बनती जा रही है। राजनीति के बिगड़ते स्वरूप को लेकर चुनाव आयोग लगातार टिप्पणी करता रहता है। लेकिन इस बार आयोग ने सख्त कदम उठाते हुए 255 कागजी राजनीतिक पार्टियों को अपनी सूची से बाहर कर दिया है। चुनाव आयोग के मुताबिक देश में इस वक्त 1851 राजनीतिक पार्टियां हैं। इनमें से केवल सात राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 58 क्षेत्रीय दल ही राजनीतिक तौर पर सक्रिय हैं और चुनाव लड़ रहे हैं। बाकी 1786 ऐसी रजिस्टर्ड पार्टिंयां हैं, जो चुनाव नहीं लड़ती हैं। उनकी कोई राजनीतिक गतिविधि नहीं है और कुछ को छोड़ कर बाकी का तो अता-पता भी नहीं है। उनके विषय में न तो जनता को पता है, न आयोग के पास उनकी कोई ताजा जानकारी है। इनमें से कई पार्टिंयां तो आयकर रिटर्न भी दाखिल नहीं करती हैं। सवाल है कि आखिर ऐसी राजनीतिक पार्टियां बनती ही क्यों हैं, जब उन्हें चुनाव ही नहीं लडऩा होता। चुनाव न लडऩे वाली इन पार्टियों के विषय में इलेक्शन कमीशन को आशंका है कि इनका गठन मनी लॉन्डरिंग के लिए किया गया है या उनका इस्तेमाल इस रूप में  किया जा रहा है। इसलिए आयोग ने 255 दलों की जो सूची बनायी है, उसे केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को सौंपने जा रहा है। उन दलों की आर्थिक गतिविधियों का पता अब केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड लगायेगा। दरअसल, भारत की राजनीतिक और संसदीय व्यवस्था बहुदलीय है। लिहाजा लोकतांत्रिक जरूरतों को आधार मान कर छोटे और क्षेत्रीय दलों को बहुत आसानी से मान्यता मिल जाती है। यही वजह है कि देश में इस वक्त केवल सात राष्ट्रीय पार्टियां हैं, जबकि चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में 1851 दल हैं। कई तरह की जटिलताओं और उदासीनता का नतीजा है कि बहुत बड़ी संख्या में ऐसी राजनीतिक पार्टिंयों का पंजीकरण बना रहता है, जो चुनाव में सक्रिय नहीं रहती। अक्टूबर 2005 में चुनाव आयोग ने 730 ऐसी पंजीकृत अज्ञात पार्टियों की सूची जारी की थी। देश के संसदीय घटनाक्रम पर नजर डालें, तो खंडित जनादेश, दलों में विखंडन और विघटन की प्रवृत्ति ने भी नये दलों के गठन की प्रथा में उभार लाया। खास कर 1990 के बाद से। राजनीतिक-वैचारिक मतभेद और महत्वाकांक्षा ने भी दलों की संख्या में इजाफा किया। सत्ता पर दावा बनाने के लिए नये दल या गंठबंधन बने। जैसे 2001 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में विपक्षी दलों का साझा मोर्चा बना बंगला बचाओ मोर्चा। इसका नेतृत्व अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस ने किया था। उसी तरह महाराष्ट्र में लोकतांत्रिक फ्रंट बना। हिमाचल प्रदेश में हिम लोकतांत्रिक मोर्चा और भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना। 1989-1991  में नेशनल फ्रंट बना और देश में इसने सरकार बनायी। वाम दलों ने वाम लोकतांत्रिक मोर्चा बनाया। इसी तर्ज पर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन, सिक्किम यूनाइटेड लोकतांत्रिक एलायंस और तेलंगाना राष्ट्र साधना मोर्चा  बना। ये खंडित जनादेश और समय की मांग से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण बने और एक समय या मकसद पूरा होने के बाद कई का विघटन हो गया। इस अलायंस की राजनीति ने भी छोटे दलों को सत्ता और राजनीति में छोटी-बड़ी भागीदारी पाने की गरज से पैदा होने का अवसर दिया, किंतु इनकी चुनाव में किसी-न-किसी रूप में हिस्सेदारी रही। संकट, संदेह और सवाल उन दलों ने पैदा किया है, जो चुनाव आयोग के पास रजिस्टर्ड तो होते हैं, किंतु चुनावी और संसदीय प्रक्रिया में शामिल नहीं होते। ऐसे दलों की मंशा और उनके वजूद को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। लेकिन अब जाकर आयोग ने सख्त कदम उठाया है। निजी स्वार्थ के लिए बनते हैं कागजी राजनीतिक दल यह जाहिर है कि कागज तक वजूद को सीमित रखने वाले राजनीतिक दल लोकतंत्र में भागीदारी के लिए नहीं, बल्कि निजी स्वार्थ, राजनीतिक प्रपंच, भयादोहन और आर्थिक अपराध को कानूनी संरक्षण देने के लिए बनाये जाते हैं। चंदा उगाही और चंदे की आड़ में कालेधन को सफेद करने का खेल यहां व्यापक पैमाने पर होता है। राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये तक के चंदे का हिसाब नहीं देना होता। इस प्रावधान का लाभ ये दल उठाते हैं और करोड़ों की संपत्ति आसानी से जमा कर लेते हैं। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अगर किसी पार्टी के पास एक करोड़ रुपये पहुंचते हैं, तो वह 95 लाख रुपये को अज्ञात स्रोतों से प्राप्त चंदा बता कर राजनीतिक दलों को मिले विशेष कानूनी छूट का लाभ ले लेती है। -दिल्ली से ऋतेन्द्र माथुर
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