03-Jan-2017 06:57 AM
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देश में इन दिनों नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर चर्चा गर्म है। दरअसल तैंतीस साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि सरकार ने वरिष्ठता को दरकिनार करते हुए सेनाध्यक्ष पद पर नियुक्ति की हो। लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी व लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद अली हरीज सेना में फिलहाल दो सबसे वरिष्ठ अधिकारी हैं। किंतु एनडीए सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को अगला सेनाध्यक्ष बनाने का एलान किया है। इसके पूर्व ऐसी घटना 1983 में हुई थी, जब तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने सबसे वरिष्ठ अफसर ले.ज. एसके सिन्हा पर उनसे जूनियर अधिकारी एएस वैद्य को तरजीह दी थी। तब इसके विरोध में ले.ज. सिन्हा ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और फिर राजनीति में सक्रिय हो गए थे। उसके बाद से परंपरा वरिष्ठतम अधिकारी को ही सेनाध्यक्ष बनाए जाने की रही।
मगर इस बार ये रवायत टूटने के संकेत पहले से थे। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कई बार कहा था कि मौजूदा सरकार वरिष्ठता के बजाय योग्यता को अहमियत देती है। वैसे जनरल बख्शी को भी योग्य व बेदाग अधिकारी माना जाता है, लेकिन ऐसे संकेत दिए गए हैं कि बिपिन रावत को इंफेंट्री (पैदल सेना) से संबंधित होने का फायदा मिला। पैदल सेना का इस्तेमाल आंतरिक अशांति एवं आपदा काल में भी होता है। जबकि प्रवीण बख्शी बख्तरबंद इकाई से जुड़े अधिकारी हैं, जिसका उपयोग युद्ध के समय ही होता है। अपेक्षित यही होता है कि सेना से संबंधित मामलों को सियासत से दूर रखा जाए। मगर दो वरिष्ठतम अधिकारियों की अनदेखी को आधार बना विपक्ष ने ले.ज. रावत की नियुक्ति पर सवाल उठाए हैं। बेहतर होता, ऐसी अप्रिय व अवांछित स्थिति पैदा नहीं होती।
बहरहाल, अगले वायुसेनाध्यक्ष की नियुक्ति में सरकार ने वरिष्ठता का ख्याल रखा। एयर मार्शल बीएस धनोआ की इस पद पर नियुक्ति हुई है। कारगिल युद्ध में उन्हें युद्ध-सेवा मेडल से नवाजा गया था और वे फिलहाल सह-वायुसेना प्रमुख के तौर पर वायुसेना मुख्यालय में तैनात हैं। ले.ज. रावत और एयर मार्शल धनोआ की नए पदों पर नियुक्तियों की घोषणा उनके पद संभालने से सिर्फ दो हफ्ते पहले की गई। सामान्य परंपरा दो से तीन महीने पहले ऐसी घोषणाएं कर दिए जाने की रही है।
बहरहाल, सरकार ने न सिर्फ इन दोनों महत्वपूर्ण पदों, बल्कि खुफिया ब्यूरो और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुखों की भी नियुक्ति की। अनिल कुमार धस्माना रॉ के नए प्रमुख होंगे, जबकि राजीव जैन आईबी प्रमुख की जिम्मेदारी संभालेंगे। इन नियुक्तियों के साथ देश के सुरक्षा ढांचे के एक बड़े हिस्से को नया नेतृत्व मिलेगा। आतंकवाद की बढ़ती चुनौती तथा पाक एवं चीन में गहराते समीकरणों के मद्देनजर सेना, अन्य सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया संस्थाओं की जिम्मेदारी बढ़ती जा रही है। ऐसे में सरकार व संबंधित एजेंसियों के बीच निर्बाध समन्वय जरूरी है। भरोसा रखना चाहिए कि इसी तकाजे को ध्यान में रखते हुए एनडीए सरकार ने ताजा नियुक्तियां की होंगी।
लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत को अगला सेना प्रमुख बनाने के सरकार के फैसले के बाद विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार पर लगातार हमले कर रहा है। जनता दल यूनाइटेड के नेता केसी त्यागी का कहना है, लग रहा है, जैसे देश में आपातकाल वाला समय लौट रहा हो।Ó
एक रिपोर्ट की मानें तो जनरल रावत को म्यांमार और पीओके (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) में भारतीय सेना द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक्स का ईनाम मिला है। ये दोनों अभियान उन्हीं की अगुवाई में हुए थे। रिपोर्ट के मुताबिक मोदी सरकार के सामने सैन्य मोर्चे पर सबसे पहली चुनौतीपूर्ण स्थिति जून-2015 में सामने आई थी। उस वक्त एनएससीएन-के (नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड-खपलांग गुट) के उग्रवादियों ने सेना के काफिले पर घात लगाकर हमला किया था। इस हमले में 18 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे। इस हमले से बौखलाई केंद्र सरकार ने उग्रवादियों को उनके घर में घुसकर सबक सिखाने का फैसला किया। एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) अजीत डोभाल की देखरेख में इस अभियान की योजना तैयार की गई। इसे अमल में लाने का जिम्मा सौंपा गया जनरल रावत को जो उस वक्त दीमापुर (असम) स्थित 3-कॉप्र्स के कमांडर थे। जनरल रावत के निर्देशन में भारतीय सैनिकों ने म्यांमार की सीमा में घुसकर एनएससीएन-खपलांग के शिविरों पर हमला किया। इस अभियान में करीब 40 उग्रवादियों के मारे जाने की खबर आई थी।
इसके बाद दूसरी बार ऐसी ही स्थिति बनी इस साल सितंबर में जब चार पाकिस्तानी आतंकियों ने जम्मू-कश्मीर के उरी में सेना की 12वीं ब्रिगेड के मुख्यालय पर आत्मघाती हमला किया। इस हमले में 17 सैनिक शहीद हो गए थे, जबकि 19 घायल हुए। सरकार ने इस हमले का जवाब देने की भी योजना बनाई। इस बार भी जिम्मेदारी जनरल रावत के कंधों पर ही डाली गई जिन्हें तीन हफ्ते पहले ही सेना का उपप्रमुख बनाया गया था। रावत ने इस बार भी अपनी विशेषज्ञता का लोहा मनवाया और उनके मार्गदर्शन में भारतीय सैनिकों ने पीओके के भीतर लश्करे-तैयबा के प्रशिक्षण शिविरों को तबाह किया। इस सर्जिकल स्ट्राइक में भी करीब 40-50 आतंकियों के मारे जाने की जानकारी खुद सेना की ओर से दी गई थी। सूत्रों के मुताबिक, इन दोनों अभियानों की सफलताएं जनरल रावत के पक्ष में गई हैं। इसीलिए उन्हें उनके वरिष्ठों पर तरजीह देते हुए सेना प्रमुख बनाया गया।
वहीं कुछ सूत्र एनएसए अजीत डोभाल से नजदीकी को भी इस घटनाक्रम से जोड़ते हैं। इसके मुताबिक, रावत उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल इलाके से आते हैं, जहां से डोभाल खुद भी ताल्लुक रखते हैं। संभवत: इसीलिए उनका डोभाल के साथ तालमेल काफी बेहतर है। इसके अलावा वे आतंकवाद निरोधी और सीमा पार चलाए जाने वाले अभियानों के विशेषज्ञ भी माने जाते हैं। सूत्रों की मानें तो उनकी यह सब खासियतें उनके पक्ष में गईं। फिर भी नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति राजनीतिक विवाद का सबब बन गई है। कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी कहते हैं कि हर संस्था की अपनी मर्यादा होती है और वरिष्ठता का सम्मान किया जाता है। उन्होंने कहा, हम नए सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल बिपिन रावत की काबिलियत पर उंगली नहीं उठा रहे लेकिन सवाल उठता है कि आखिर क्यों वरिष्ठ अधिकारियों को छोड़कर वरियता क्रम में चौथे स्थान वाले अधिकारी को सेना प्रमुख नामित किया गया। सीपीआई नेता डी राजा कहते हैं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सेना, सीवीसी (केंद्रीय सतर्कता आयुक्त) एवं अन्य उच्च पदों पर हुई नियुक्तियों को लेकर विवाद हो रहा है। डी राजा ने कहा, सेना पूरे देश की है, सरकार को जवाब देना चाहिए कि आखिर कैसे ये नियुक्तियां की गईं। इन नियुक्तियों पर देश को भरोसे में लिया जाना चाहिए। उधर भाजपा ने इस पर पलटवार करते हुए कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा नए सेना प्रमुख की नियुक्ति पर सवाल करना देश भक्ति नहीं है। दरअसल सरकार ने जो कदम उठाया है वह देश हित से प्रेरित है।
मोदी एवं इंदिरा में अनेक समानताएं
अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने के लहजे एवं राजनितिक व्यवहार की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की जाती हैं। राजनीतिक विश्लेषक मोदी एवं इंदिरा में अनेक समानताएं देखते हैं। इसी कारण जब प्रधानमंत्री ने 16 दिसंबर को भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को संबोधित करते हुए ये कहा कि इंदिरा गांधी में बड़े नोटों के विमुद्रीकरण का साहस नहीं था और वो चुनाव के डर से नोटबंदी का प्रस्ताव नहीं मानी थी तो लोगों को आश्चर्य हुआ। लगा की वो अपनी इस इमेज को बदलना चाहते हैं। लेकिन मोदी के इस वक्तव्य के 24 घंटे के अंदर जब उनकी सरकार ने जनरल दलबीर सिंह की जगह सह-सेना प्रमुख बिपिन रावत को नया सेनाध्यक्ष बनाने की घोषणा की तो बहुतों को एक बार फिर से इंदिरा गांधी याद आ गई।
क्या सरकार का फैसला गैरकानूनी है?
एक अपवाद को छोड़कर सेना प्रमुख हमेशा वरिष्ठतम सैन्य अधिकारी को बनाया गया है। यह एक परंपरा है पर कानून नहीं। अपने मनपसंद अधिकारी को सेना प्रमुख बनाना सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। पूर्व सेना प्रमुख जनरल शंकर रायचौधरी भी यही मानते हैं। अब सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि ले. जनरल प्रवीण बख्शी एवं ले. जनरल पीएम हारिज क्या कदम उठाते हैं। क्या वो लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा की तरह अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे? सेना में वरीयता को बहुत ही अहमियत दी जाती है। और अपने वरीय अधिकारी के अधीन काम करना इनके लिए मुश्किल हो सकता है। कुछ लोगों का ये भी मानना है कि ये नए सेना प्रमुख की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं। पीओके में भारतीय सेना के सर्जिकल ऑपरेशन पर राजनीती अभी थमी ही थी कि अब ये विवाद सामने आ गया। इस पूरे विवाद में परंपरा का तो उल्लंघन हुआ है पर सेना को भी राजनीती में घसीटा जा रहा है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे पर आरोप एवं प्रत्यारोप लगा रहे हैं। पर सेना के विवाद पर राजनीती करना इनके हित में भले ही हो देशहित में तो नहीं ही है।
-दिल्ली से रेणु आगाल