17-Dec-2016 07:32 AM
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उत्तरप्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर कन्फ्यूजन की स्थिति नजर आ रही है। पार्टियों के रंग-रूप देखकर जनता असमंजस में है और जनता के रुख को देखकर पार्टियां। स्थिति इतनी विकट है कि हर दल गठबंधन की सोच रहा है। लेकिन गठबंधन की गांठ किसके साथ बांधी जाए इसको लेकर सब दोराहे पर खड़े हैं। उत्तरप्रदेश में गठबंधन की हवा इसलिए भी तेज है कि पिछले पांच (2012-2016) वर्षो में देश के सभी 29 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और उत्तराखंड को छोड़ दें, तो 26 राज्यों में किसी न किसी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट जनादेश मिला है। ये कहीं न कहीं संदेश देता है की वोटर आजकल किसी भी पार्टी को स्पष्ट जनादेश देने का पक्षधर रहा है। क्या हम इस बार के उत्तर प्रदेश चुनाव को जाति, धर्म और क्षेत्रवाद के मापदंडों के अतिरिक्त कुछ और पहलुओं से भी देख सकते है?
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की राजनीति एक परिवार के आसपास केंद्रित नजर आई। कई विश्लेषक मानते हैं कि इस उठापटक में मतदाता की उम्मीदों को दरकिनार किया गया। तो वहीं कुछ इस पारिवारिक क्लेश को पार्टी का खात्मा मान रहे हैं। गौरतलब है कि एक बड़े राजनीतिक परिवार में इस तरह की घटना कोई नई बात नहीं है। तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार और महाराष्ट्र के ठाकरे परिवार में भी ऐसा देखा जा चुका है। सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च, ने भारत में चुनावी रुझानो का अध्ययन करते हुए तीन राज्यों (बिहार, असम और पश्चिम बंगाल) के फील्ड वर्क के दौरान एक महत्वपूर्ण बात पाई - वो ये कि चुनाव का परिणाम सिर्फ जाति, या पार्टी के आधार पर ही तय नहीं होता है। अन्य कई पहलू जैसे कि स्थानीय नेता का व्यक्तित्व, तत्कालीन सरकार द्वारा किया गया विकास कार्य, अपने प्रदेश से बाहर रहने वाले प्रवासियों की अपने राज्य के सरकार से उम्मीदें आदि भी चुनाव का परिणाम तय करने में जरूरी भूमिका निभाती हैं।
उत्तर प्रदेश चुनाव में तीन राष्ट्रीय (भाजपा, बसपा और कांग्रेस) और एक क्षेत्रीय दल (सपा) का अपना जातिगत, धर्मगत और क्षेत्रवाद आधार होने के कारण चीजें काफी जटिल हैं। पिछले कुछ महीनों में नेताओं का आया राम, गया रामÓ, (जैसे बसपा के पूर्व महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या और कांग्रेस अध्यक्षा रीता बहुगुणा जोशी का भाजपा में शामिल होना आदि), भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान में हुई सर्जिकल स्ट्राइक और समाजवादी पार्टी के अन्दर मचे पारिवारिक द्वंद्व से इस चुनाव का गणित थोड़ा और उलझा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर, बनारस और आजमगढ़ में फील्ड वर्क के दौरान बातचीत में लगा अभी मतदाताओं ने मन नहीं बनाया है। गाजीपुर जिले के जमनिया विधानसभा क्षेत्र में एक मुस्लिम बुजुर्ग ने हमें बताया, चुनाव में अभी बहुत देर है और हम चुनाव के नजदीक आने पर देखेंगे की क्या करना है।
तीन राज्यों में रिसर्च में भी यह देखने को मिला कि ऐसे कई वोटर चुनाव से कुछ दिन पूर्व अपने मत का निर्णय लेते हैं। 2014 लोकसभा चुनाव के लिए 2013 में गूगल द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक 42प्रतिशत शहरी मतदाता अनिर्णय की स्थिति में थे की वे इस चुनाव में किसको वोट करेंगे। इसके अलावा जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के आधार पर मतदाताओं का किसी एक विशेष पार्टी को एकमुश्त वोट करने के पैटर्न में भी थोड़ा-बहुत बदलाव आ रहा है। एक जाति, धर्म और क्षेत्र के अन्दर भी अब अलग-अलग पार्टी के तरफ एक ही समुदाय के लोगों का झुकाव देखा गया है। जहां तक उत्तरप्रदेश का सवाल है तो यहां का मतदाता हमेशा परिवर्तित होता रहता है। मतदाताओं ने अभी तक अपना रुख जाहिर नहीं किया है। ऐसे में राजनीतिक दल भी भंवर के दल-दल में फंसे हुए हैं। अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनाव की घोषणा के बाद पार्टियां भी अपने गठबंधन को लेकर पत्ता खेल सकती हैं। सबको बस उचित समय और मौके की तलाश है।
उत्तरप्रदेश में खंडित जनादेश का संकेत
वर्तमान समय में उत्तरप्रदेश में खंडित जनादेश की झलक दिख रही है। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के पिछले दो विधानसभा चुनाव में उन्हीं दो पार्टियों को पूर्ण बहुमत मिला है जो पहचान की राजनीति की उपज हैं फिर भी इन दोनों चुनावों में विजयी पार्टियां- बसपा और सपा के सिर्फ अपने जाति के ही विधायक जीत कर नहीं आये बल्कि उनके कई विधायक दूसरी जाति के भी थे। इन दोनों चुनावों में न सिर्फ दलित और यादव जातियों ने क्रमश: बसपा और सपा के सवर्ण उम्मीदवारों को वोट दिया अपितु सवर्ण मतदाताओं ने भी इन पार्टियों को अपना समर्थन दिया। उत्तर प्रदेश चुनावों पर रिसर्च में भी यह बात सामने आई है कि 2007 और 2012 के चुनाव में स्वर्ण समाज के क्रमश: 60 और 61 विधायक जीत कर आये। इसलिए हो सकता है कि चुनाव के नजदीक आते ही ये किसी पार्टी को बहुमत के करीब ले जाएगी।
कांग्रेस को पतवार की तलाश
उत्तरप्रदेश में मुख्य मुकाबला सपा और बसपा में होता रहा है। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने रिकार्ड सीटें जीतकर सबके होश ठिकाने ला दिए थे। ऐसे में कांग्रेस किसी ऐसे मजबूत पतवार की तलाश में है जो उसकी नाव को भले ही पार लगाए या न लगाए भाजपा को बीच मजधार में डुबा दे।
-लखनऊ से मधु आलोक निगम