17-Nov-2016 07:03 AM
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उत्तरप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में ऊंट किस ओर करवट लेगा यह तो बाद में पता चलेगा लेकिन वहां की चुनावी प्रयोगशाला में पक रही छोटे दलों की खिचड़ी कईयों की लुटिया डुबोएगी। यहां पीस पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, अससुद्दीदन ओवैसी की ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईआईएम), आम आदमी पार्टी, शिवसेना, और कुछ अन्य छोटे दल चुनाव में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं। ये दल कुछ कद्दावर प्रत्याशियों को लेकर कई बड़ी पार्टियों की नाक में दम कर देंगे। ये दल सरकार बनाने की स्थिति में तो नहीं आ पाएंगे लेकिन हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे की तर्ज पर कईयों का खेल बिगाड़ जाएंगे। जो राजनीति की दृष्टि से सही नहीं माना जा रहा है। इससे देश की राजनीति दूषित हो रही है।
सियायत के लिहाज से उत्तर प्रदेश की जमीं कुछ ज्यादा ही जरखेज है। इसीलिए न सिर्फ दूसरे राज्यों के नेता यहां चुनाव लडऩे आते है बल्कि दूसरे राज्यों के राजनीतिक दल भी यहां अपनी जमीन तलाशने और जड़े जमाने की गरज से हमेशा तत्पर दिखते है। यह बात दीगर है यहां दूसरे राज्यों के नेता और दलों की दाल गल नहीं पाती। यदि दूसरे राज्य के नेताओं ने यूपी को अपनी कर्मभूमि बनाना चाहा तो उसे किसी बड़े दल का सहारा लेना ही पड़ा। यूपी में भाजपा-कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के अलावा क्षेत्रीय दलों में सपा, बसपा, रालोद और अपनादल सरीखे दर्जनों दल सक्रिय है। ऐसे में दूसरे राज्यों से आने वाले दलों का यह जड़े जमाना तो दूर खड़े होना भी मुशकिल है। राष्टï्रवादी कांग्रेस, तूणमूल कांग्रेस, राष्टï्रीय जनता दल, लोकजनशक्ति के अलावा जेडी (सेकुलर) के अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, आम आदमी पार्टी जैसी पार्टियां भी यूपी में अपना वजूद तलाश रही है। और इन सबके बाद अब जनता दल(यू) ने खासी सक्रियता दिखाई है। उसके राष्टï्रीय अध्यक्ष और बिहार के सीएम नीतीश कुमार इन दिनों खासे सक्रिय है। इन दलों में अकेले वामदलों को छोड़कर बाकी किसी दल का यूपी में आज तक खाता नहीं खुला। बावजूद इसके प्रदेश में 2017 में होने वाले चुनाव के लिए ये सभी दल कील कांटे के साथ तैयार होने की बात कह रहे है।
आम जनमानस ऐसा करने वाले राजनीतिक दलों को लालची, मतलब परस्त और सिद्धान्त विहीन दल की तरह देखता है। ऐसे दल चुनाव के आखिरी दिन तक दूसरे दलों से सौदाबाजी करते रहते हैं। उनके लिये राजनीति एक मंडी की तरह है, दल एक दुकान की तरह और चुनाव एक मेला की तरह और इस मेले में वे अपनी दुकान का सामान मोल भाव करके महंगे से महंगे दाम में बेचना चाहते हैं। ऐसा करने वाले दल आम जनता में अपनी पैठ खोते जाते हैं और फिर धीरे-धीरे अपना अस्तित्व भी खो देते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीति में लोक दल और बिहार की राजनीति में लोक जनशक्ति पार्टी को ऐसे ही दल के रूप में देखा जाता है। लोक दल कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस तो कभी नितीश कुमार के जद (यु) से बात करता है लेकिन लालच इतना के फैसला कोई नहीं, बल्कि सारा समय मोल भाव में जा रहा है और चुनाव सर पर आ खड़ा हुआ है। वोटर और कार्यकर्ता बुरी तरह कंफ्यूज्ड है कि न जाने नेता जी कब क्या फैसला ले लें। कार्यकर्ता पूरी तरह दिशाविहीन हैं, पता ही नहीं चलता कि आलोचना नरेंद्र मोदी की करनी है या राहुल गांधी की। अगर लोक दल को सपा या बसपा का सहारा नहीं मिलता है तो कांग्रेस या भाजपा के साथ मिलकर लोकदल कोई खास अच्छा प्रदर्शन करने की हालत में नहीं है। यही हालात राज्य में सक्रिय अन्य दलों का भी है।
-लखनऊ से मधु आलोक निगम