कमजोर हाथों में प्रदेशों की कमान!
17-Dec-2016 07:23 AM 1234798
देश में सबसे लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बेहद कमजोर नजर आ रही है। लोकसभा, विधानसभा और उपचुनावों में भी हार के बाद कांग्रेस की पकड़ जनता के बीच से खिसकती दिखती है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की भरपूर कोशिशें जारी हैं। पश्चिम बंगाल में वाम दलों से हाथ मिलाना हो या हर छोटे—बड़े मुद्दे पर सरकार को घेरना फिर भी कांग्रेस लोगों के बीच विश्वास नहीं बना पा रही है। एक समय पर देश की एकमात्र पार्टी नजर आने वाली कांग्रेस का इस स्थिति में पहुंचना कोई छोटी घटना नहीं है। इंदिरा गांधी जैसी कद्दावर नेता की हत्या के बावजूद भी कांग्रेस ने अपना आधार नहीं खोया था लेकिन राहुल गांधी तक पहुंचते-पहुंचते आखिर कांग्रेस का यह हश्र कैसे हुआ? दरअसल, कमजोर  केंद्रीय नेतृत्व के साथ ही कांग्रेस पार्टी के कई प्रदेश अध्यक्ष भी कमजोर हैं। पार्टी ने रबर स्टैंप के तौर पर ऐसे कमजोर नेताओं को प्रदेश की कमान सौंपी, जो प्रदेश के दूसरे कद्दावर नेताओं को नहीं संभाल पा रहे हैं। इस वजह से आपस का झगड़ा बढ़ा है। तभी कांग्रेस में मांग उठी है कि जिस तरह राजस्थान में सचिन पायलट, महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण या दिल्ली में अजय माकन को अध्यक्ष बनाया गया, उसी तरह मजबूत नेताओं को प्रदेश की कमान मिले। हरियाणा में राहुल गांधी के करीबी अशोक तंवर प्रदेश अध्यक्ष हैं। वे पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से टकराते रहते हैं। इस टक्कर में पिछले दिनों राहुल गांधी के एक कार्यक्रम में उनकी पिटाई हो गई। हुड्डा और प्रदेश के दूसरे नेताओं के समर्थक उनको कोई महत्व नहीं देते हैं। ऐसे ही उत्तराखंड में कांग्रेस ने किशोर उपाध्याय को अध्यक्ष बनाया है, लेकिन मुख्यमंत्री हरीश रावत के सामने वे टिकते नहीं हैं। रावत और दूसरे बड़े नेताओं के समर्थक उनको तरजीह नहीं देते हैं। अभी उन्हें हटाने की मुहिम छिड़ी है। इसी तरह झारखंड में राहुल के करीबी सुखदेव भगत ढाई साल से प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन पार्टी के दूसरे विधायक, पूर्व सांसद या राज्यसभा सदस्य उनको तरजीह नहीं देते हैं। उनको हटाने के लिए विधायकों ने मोर्चा खोला है। मध्य प्रदेश में दिग्गज नेताओं के होते हुए अरुण यादव को पार्टी की कमान दी गई है। वे मेहनत भी खूब कर रहे हैं, लेकिन आए दिन ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष बनाने की मांग उठ रही है। गुजरात में भी कांग्रेस अध्यक्ष बदलने की मांग हो रही है। राहुल गांधी बेशक टीम पीके के निर्देशन में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बंजर जमीन को उर्वर बनाने की कोशिश में जुटे हों, लेकिन अरुणाचल प्रदेश कांग्रेस में बगावत साबित करती है कि राज्यों व विधायकों पर पार्टी की पकड़ बेहद ढीली है। यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस की किसी राज्य सरकार में बवंडर मचा हो। अरुणाचल प्रदेश में ही यह दूसरी बार है। इससे पहले कालिखो पुल के नेतृत्व में कांग्रेस में नवंबर, 2015 में बगावत हुई थी। उस समय नबाम तुकी कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे। उत्तराखंड में भी कांग्रेस विधायक बगावत कर चुके हैं। वहां भी सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद जैसे-तैसे कांग्रेस की सरकार बहाल हो पाई। अरुणाचल प्रदेश में भी दो माह पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही कांग्रेस को दोबारा सत्ता हासिल हुई थी। इस बार तो प्रदेश में कांग्रेस की लुटिया ही डूब गई। कुल 44 में से 43 कांग्रेस विधायक बागी हो गए। मुख्यमंत्री पेमा खांडू समेत पूरी सरकार ही भाजपा समर्थित पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (पीपीए) में शामिल हो गए। खांडू के साथ सरकार में सहयोगी दो निर्दलीय भी उनके साथ ही पीपीए में चले गए। कांग्रेस के लिए चिंता की बात है कि पार्टी हाईकमान की सहमति से ही पेमा खांडू को नई सरकार की कमान दी गई थी। फिर भी खांडू कांग्रेस के साथ नहीं रह सके। इससे साफ है कि कांग्रेस की राज्य इकाइयों में सबकुछ ठीक नहीं है। हरियाणा कांग्रेस में फूट जगजाहिर है। पंजाब कांग्रेस में कैप्टन अमरिंदर बनाम बाजवा की लड़ाई है। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी ने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी बना ली है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस गुटबाजी की शिकार है। यूपी में कांग्रेस के पास नेता ही नहीं है। दिल्ली से ले जाना पड़ा है। दिल्ली में भी अमरिंदर सिंह लवली व अजय माकन गुटों में कांग्रेस बंटी हुई है। राज्य इकाइयों में फूट और बगावत से साबित होता है कि कांग्रेस नेतृत्व में पार्टी को जोड़कर रखने की क्षमता नहीं रह गई है। राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की क्षमता को लेकर कई दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को संदेह है। वे राहुल को नेता मानने को तैयार ही नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी बेशक पार्टी को मजबूत करना चाहती हैं, लेकिन पार्टी की हाईकमान कार्यप्रणाली घुन की तरह कांग्रेस को खोखला कर रही है। घोटालों व अपने हवाई व नकारा नेताओं के चलते 2014 लोकसभा में भाजपा के हाथों करारी शिकस्त खाने के बाद भी कांग्रेस ने अपनी दरबार कल्चर नहीं बदली है। लगता है पार्टी अध्यक्ष ने बड़ी हार से भी कोई सबक नहीं लिया है। कांग्रेस समझ ही नहीं पा रही है कि देश का मिजाज बदल चुका है। युवाओं की आकांक्षाएं बदल चुकी हैं। केवल चापलूस व दरबारी नेताओं के भरोसे पार्टी सत्ता हासिल नहीं कर सकती है। अब नए विचार चाहिए, नया आइडिया चाहिए, नया आत्मविश्वास चाहिए और मजबूत नेता व संगठन चाहिए। संयोग से कांग्रेस इस समय इन सभी नई चीजों की कमी से गुजर रही है। केवल मोदी विरोध के एकमेव एजेंडे पर पार्टी चलाई जा रही है। गुजरात कांग्रेस का अध्यक्ष अहमदाबाद में रहता है या अमरीका में। कांग्रेस ऊपर से लेकर नीचे तक थकी नजर आ रही है। यह मीडिया में बनी धारणा है या हकीकत कुछ और। राहुल को अपना करिश्मा राज्यों से साबित करना होगा। अभी वे दिल्ली से उड़ते हैं, राज्यों में भाषण देते हैं और शाम को दिल्ली आ जाते हैं। उन्हें तो चुनाव के वक्त एक राज्य में डेरा डाल लेना चाहिए। यूपी और पंजाब के चुनाव उनके लिए फिर से मौका लेकर आ रहे हैं। क्या वे इसे भी गंवा देंगे। कांग्रेस इतनी विवश पहले कभी नहीं रही कांग्रेस कई बार हारी है। टूटी है। कई बार खड़ी हुई है और फिर खड़ी हो सकती है। भारतीय राजनीति को आप गौर से देखिए। कई स्तरों पर असंतोष बन रहे हैं तो कई स्तरों पर नई आकांक्षाओं का उदय हो रहा है। इस बदलते समाज की आकांक्षाओं को जो राजनीतिक स्वर वही विकल्प बनेगा। आज हर दल कांग्रेस हो गया है। कांग्रेस कल्चर ही राजनीतिक हकीकत है। आज का राजनीतिक भारत कांग्रेस से कहीं ज्यादा कांग्रेस युक्त भारत है। क्या राजनीति जोड़तोड़, अपराधी, पैसे के जोर से मुक्त हो गई है। आज किस दल में हाईकमान कल्चर नहीं है। किस दल में एक नेता का कल्चर नहीं है। क्या तृणमूल में नहीं है, क्या भाजपा में नहीं है दक्षिण के क्षेत्रीय दलों की राजनीति क्या गुनगान करने लायक है सीएजी की तमाम रिपोर्ट और बैंकों के खोखलेपन की कहानी कोई नहीं पढऩा चाहता तो कोई बात नहीं। भाजपा में भी कई सांसद कांग्रेस से आए हुए हैं। असम में भाजपा को जीत कांग्रेस के एक नेता के कारण ही मिली है। कांग्रेस की लड़ाई अब अपनों से ही कांग्रेस को कांग्रेस से ही लडऩा होगा। आज कांग्रेस के पास कोई चमत्कारी चेहरा नहीं है। पार्टी दायरे में सिमट गई है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस यथास्थिति से बाहर निकलने को तैयार नहीं लगती। पार्टी बढऩे के बजाय दिनोंदिन घट रही है। सोनिया गांधी बेटे राहुल के लिए अध्यक्ष पद छोडऩे को आतुर हैं, पर राहुल तैयार नहीं हैं। क्यों तैयार नहीं हैं, इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता। बीते दिनों हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की फिर बात उठी, लेकिन कुछ तय नहीं हो सका। शायद सोनिया गांधी कुछ और समय तक अध्यक्ष बनी रहेंगी। तदर्थवाद कांग्रेस का स्थायी भाव बन गया है। राहुल गांधी सुबह-शाम प्रधानमंत्री से पूछते हैं कि ढाई साल के शासन में क्या किया? पर कोई उनसे पूछे कि इस दौरान खुद उन्होंने क्या किया? उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों में आजकल राहुल गांधी की किसान यात्रा और खाट सभा की बजाय अखिलेश यादव की राजनीति की चर्चा हो रही है। सूबे के कांग्रेसी हाय हुसैन हम न हुएÓ की तर्ज पर कह रहे हैं कि काश राहुल गांधी भी ऐसा कर पाते। -दिल्ली से रेणु आगाल
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