बदलाव की बेताबी
17-Dec-2016 07:02 AM 1234731
धर्म की नाजायज बंदिशों को तोडऩे के लिए मुसलिम महिलाएं सड़क पर उतरने से गुरेज नहीं कर रही हैं। धार्मिक न्यायाधिकारी के रूप में काम करने वाले काजी के पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है लेकिन अब मुस्लिम महिलाएं भी काजी बन रही हैं। इसी कड़ी में अफरोज बेगम और जहांआरा ने महिला काजी ट्रेनिंग ली है। नादिरा बब्बर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्लाह, मोहसिना किदवई जैसी कई ऐसी मुस्लिम महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने बूते कामयाबी हासिल कर देश व समाज की सेवा की है। बदलते समय, बदलते समाज, बदलते परिवेश और शिक्षा के बढ़ते महत्व के बीच हिंदुस्तान की मुस्लिम महिलाओं ने भी बंदिशों की बेडिय़ों को झकझोरना शुरू कर दिया है। उन में अपना जीवन बदलने की बेताबी है और हर वह हक वे पाना चाहती हैं जो उन का अपना है। विरोध के स्वर और अपने हक की आवाज उठाती, बैनर व तख्ती लिए, अब मुस्लिम महिलाएं भी दिखने लगी हैं। यह कटु सत्य है कि शिक्षा सभ्य समाज की बुनियाद है। इतिहास गवाह है कि शिक्षित कौमों ने ही हमेशा समाज में तरक्की की है। किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए शिक्षा बेहद जरूरी है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जहां विभिन्न समुदाय शिक्षा को विशेष महत्व दे रहे हैं, वहीं मुस्लिम समाज इस मामले में आज भी बेहद पिछड़ा हुआ है। आंकड़े गवाह हैं कि भारत में महिलाओं खासकर मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहद बदतर है। 1983 की अल्पसंख्यक रिपोर्ट यानी गोपाल सिंह कमेटी रिपोर्ट में मुस्लिम लड़कियों की निराशाजनक शैक्षणिक स्थिति की ओर इशारा किया गया था। सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े तो सारी पोल ही खोल देते हैं। वे साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से खासी पिछड़ी हैं। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया था कि एक तो कर्ज जैसी सुविधाओं तक मुस्लिम महिलाओं की पहुंच बहुत कम होती है, इसके अलावा कर्ज वितरण में उनके साथ भेदभाव भी किया जाता है। इस भेदभाव के पीछे कर्जदाता संस्थानों के अधिकारियों की तंग सोच के अलावा उन महिलाओं का कम शिक्षित होना, अपने हक को हासिल करने के लिए मजबूती से स्टैंड न लेना आदि वजहें भी हो सकती हैं। मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण का मसला काफी अहम है। सरकारी रिपोर्टों के मुताबिक, मुस्लिम महिलाएं देश के निर्धनतम, शैक्षिक स्तर पर पिछड़े, राजनीति में हाशिए पर रहने वाले समुदायों में से एक हैं। हमारे मुल्क में सबसे ज्यादा निरक्षर मुस्लिम लड़कियां और महिलाएं ही हैं। ग्रैजुएट व पोस्टग्रैजुएट स्तर पर स्थिति खासी चिंताजनक है। भारत में महिलाओं की साक्षरता दर 40 प्रतिशत है। इसमें मुस्लिम महिलाएं मात्र 11 प्रतिशत हैं। हाईस्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने वाली इन महिलाओं का प्रतिशत मात्र 2 है और स्नातक तक पहुंचते ही यह घट कर 0.81 प्रतिशत ही रह जाता है। उधर, मुस्लिम संस्थाओं द्वारा संचालित स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर मुस्लिम लड़कों का अनुपात 56.5 फीसदी है। छात्राओं का अनुपात महज 40 प्रतिशत है। इसी तरह मिडिल स्कूलों में छात्रों का अनुपात 52.3 है तो छात्राओं का 30 प्रतिशत है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा मुस्लिम महिलाओं की शैक्षणिक प्रगति की योजना तैयार करने के उद्देश्य से बनाई गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि मुस्लिम लड़कियों के उच्च शिक्षा से दूर रहने के सबसे सामान्य कारण उन की युवावस्था, महिला टीचर्स की कमी, लड़कियों के लिए अलग स्कूल न होना, परदा प्रथा, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विरोध, जल्दी शादी होना और समाज का विरोधी व दकियानूसी रवैया है। राजनीति में नाममात्र मौजूदगी राजनीति में मुसलिम महिलाओं की मौजूदगी नाममात्र है। इंटरपार्लियामैंट्री यूनियन की 2011 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के हिसाब से भारत 78वें स्थान पर है जबकि पाकिस्तान और नेपाल इस मामले में भारत से आगे हैं। जब सामान्य वर्ग और दूसरे समुदाय की महिलाओं की उच्च राजनीति में यह हैसियत है तो मुस्लिम महिलाओं की हैसियत का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े गणराज्य भारत में लोकसभा चुनावों के इतिहास में अब तक सिर्फ 12 मुस्लिम महिलाओं ने ही प्रतिनिधित्व किया है। देश के पहले लोकसभा चुनाव में 23 महिलाएं चुनकर संसद पहुंचीं, जिनमें से एक भी मुस्लिम महिला नहीं थी। दूसरे लोकसभा चुनाव में चुनी गईं 24 महिलाओं में कांगे्रस के टिकट पर 2 मुस्लिम महिलाएं, माफिदा अहमद (जोरहट) तथा मैमूना सुल्तान (भोपाल), लोकसभा में पहुंचीं। बेगम आबिदा और बेगम नूर बानो 2 बार सांसद बनीं। लेकिन मोहसिना किदवई देश की पहली महिला मुस्लिम सांसद हैं जो 3 बार जीतीं और संसदीय इतिहास में अपना नाम दर्ज किया। -अनूप ज्योत्सना यादव
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