थोपे गए प्रत्याशियों से कांग्रेस में असंतोष
01-May-2013 09:14 AM 1234765

कर्नाटक चुनाव जीत सुनिश्चित जान कांग्रेस के भीतर जो गुटबाजी दिखाई दे रही है उसका असर चुनावी संभावनाओं पर पड़ सकता है। दरअसल कांग्रेस ने स्थानीय आकांक्षाओं को दरकिनार कर कुछ ऐसे प्रत्याशियों को टिकिट दिया है जो आलाकमान के निकट हैं, लेकिन जनता से दूर। ज्ञात रहे कि जयपुर चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कहा था कि टिकिट वितरण में जमीनी कार्यकर्ताओं की राय ली जानी चाहिए, लेकिन लगता है कर्नाटक में कांग्रेस ने जमीनी कार्यकर्ताओं की राय लेना मुनासिब नहीं समझा। यही कारण है कि जिला अध्यक्षों, ब्लॉक अध्यक्षों, जिला समितियों, ब्लॉक समितियों की राय को दरकिनार कर बहुत से टिकिट सोर्स के आधार पर बाटे गए हैं और कई जगह तो पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगोड़ा की पार्टी जनता दल तथा भाजपा को अलविदा कहकर आए दल बदलू प्रत्याशियों को टिकट दे दिया गया है। दरअसल कुछ प्रत्याशी यह विश्वास कर रहे हैं कि येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस का टिकिट प्राप्त कर लें विधायकी तो मिल ही जाएगी क्योंकि राज्य में भाजपा की हालत पतली है।
लेकिन कांग्रेस यह भूल रही है कि पिछले चुनाव से कुछ समय पूर्व हुए स्थानीय निकाय के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था, लेकिन विधानसभा में उसे बहुमत मिल गया था। जहां तक विकास और कार्य का प्रश्न है भाजपा के शासनकाल में कांग्रेस के मुकाबले अधिक काम हुआ है और जनता को इसका अहसास भी है। इसीलिए यह मुगालता पालना कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी का संगठन पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है गलत भी हो सकता है। सच पूछा जाए तो अनंत कुमार जैसे कुछ नेताओं को कर्नाटक में यदि भाजपा नियंत्रित कर पाए तो शायद उसकी पोजीशन में सुधार भी आ सकता है। बहरहाल ये तो तय है कि भाजपा को बहुमत नहीं मिलेगा। लेकिन बहुमत किसे मिलेगा यह अभी तक नजर नहीं आ रहा है। क्योंकि राज्य में किसी भी दल की लहर नहीं है। जनता दल सेक्युलर के भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त आ चुकी थी इसीलिए उसने बदलाव किया। किंतु येदियुरप्पा ने भ्रष्टाचार के नए कीर्तिमान स्थापित कर दिए। येदियुरप्पा पर कार्रवाई करने में भाजपा ने जो देरी की उसी का खामियाजा आज चुनाव में भुगतना पड़ रहा है। बहरहाल कांग्रेस समेत सभी पार्टियों में रिश्तेदारों, पहचान वालों आदि को टिकिट मिलने के कारण वंशवाद जिस तरह पनपने लगा है उसके चलते इन दलों से कार्यकर्ताओं का मोह भंग होता जा रहा है। इसीलिए जो भी दल निष्पक्ष रूप से चुनावी टिकिट बांटेगा उसे विजयश्री मिल सकती है।
कांग्रेस ने जयपुर चिंतन शिविर में यह भी संकल्प किया था कि वह आपराधिक छवि के लोगों को टिकिट नहीं देगी, लेकिन इस संकल्प की भी धज्जियां कर्नाटक चुनाव में उड़ती दिखाई दे रही हैं। आपराधिक छवि वाले उम्मीदवार डीके शिवकुमार, एम कृष्णप्पा और सतीश जरकीहोली को टिकिट देकर कांगे्रस ने यह साबित कर दिया है कि वह जनाकांक्षाओं को बिल्कुल महत्व नहीं देती है। युवा कांग्रेस को 20 टिकिट देने की सिफारिश की गई थी, लेकिन बमुश्किल दो टिकिट मिली है। राज्य के युवा कांग्रेस अध्यक्ष रिजवान अरशद टिकिट से            वंचित रहे हैं और असंतुष्ट होकर कोप भवन में चले गए हैं। सबसे ज्यादा फायदा हुआ है नेताओं के वंशजों और रिश्तेदारों को। राहुल गांधी ने भले ही वंशवाद का विरोध किया हो लेकिन कांग्रेस के सभी नेता यह अच्छी तरह जानते हैं कि राहुल गांधी जिस वंश में पैदा हुए हैं वही वंशवाद की जड़ है। लिहाजा इस बार भी कर्नाटक में पूर्व रेल मंत्री जाफर शरीफ के पौत्र रहमान शरीफ और दामाद सैय्यद यास्मीन, पूर्व मुख्यमंत्री धरम सिंह के बेटे अजय सिंह, केंद्रीय मंत्री मल्लिकार्जुन खडग़े के सुपुत्र प्रियांक खडग़े, एस शिवाशंकरप्पा और उनके सुपुत्र एसएस मल्लिकार्जुन, एन कृष्णप्पा और उनके सुपुत्र प्रिय कृष्णा को टिकिट से नवाजा गया है। कांग्रेस ने तय किया था कि वह 15 हजार से अधिक मतों से पराजित होने वाले लोगों को इस बार टिकिट नहीं देगी, लेकिन ऐसे लोगों को टिकिट दिया गया है, जिनमें बासवराज, रायारादी, कुमार मंगरप्पा और एस नयमगोड़ा शामिल है। कुल मिलाकर टिकिट बंटवारे में तो कांग्रेस ने उतनी प्रवीणता नहीं दिखाई है और न ही उन सिद्धांतों का पालन किया है जिन पर अमल करने की कसमें कभी खाई गई थी। लेकिन इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी की कमजोरी का फायदा कांग्रेस को अवश्य मिलेगा।
जहां तक भाजपा का प्रश्न है उससे बड़ी तादाद में नेताओं का पलायन हुआ है। बहुत से नेताओं ने तो अपनी ही छोटी-छोटी पार्टियां बना ली हैं और बहुत से नेता येदियुरप्पा के साथ जाकर मिल गए हैं। ऐसी स्थिति में भाजपा का चुनावी भविष्य अधर में ही दिखाई पड़ रहा है। यदि भाजपा संगठित होकर लड़ती तो शायद इन चुनावों में उसको विजय भी मिल सकती थी। दूसरा कारण यह है कि दिल्ली के शीर्ष नेता कर्नाटक में चुनाव प्रचार करने से कतरा रहे हैं। सुषमा स्वराज, लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी जैसे कई कद्दावर नेता कर्नाटक चुनाव में उतने सक्रिय नहीं हैं, जितने कि वे उत्तरप्रदेश के चुनाव में सक्रिय थे। भाजपा नेताओं की निष्क्रियता और आत्मविश्वास में कमी चिंता का विषय है। भाजपा को केंद्र में सत्ता में आना है तो दक्षिण भारत में उसे अपनी पकड़ मजबूत करनी ही होगी। लेकिन एकमात्र दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक से भी अब भाजपा विदा होती दिखाई पड़ रही है।
विकास दुबे

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