17-Nov-2016 07:07 AM
1234967
ब से सर्दी शहर में सिर चढ़ कर बोली है... मेरा तो साहस ही बोल गया है। सर्दी से सिसियाती उंगलियां कलम पकडऩे को तैयार नहीं हैं और कलम है कि कभी कथित अलावों के आस-पास चक्कर लगाती है तो कभी फुटपाथ पर पड़े भिखारी की चादर टटोलती है। ... उधर सर्दी ने ऐसा गजब ढाया है कि मित्र ही पहचानने से इनकार करने लगे हैं। ... दरअसल जैसे ही सर्दी की सुइयां चुभीं, मैंने भी सारे कवच निकाल दिए। एक के ऊपर एक-दो-तीन बनियाइनें, इतने ही स्वेटर और फिर जैकेट। सिर पर सिर्फ आंखें ही दर्शाने की इजाजत देने वाला टोपा। मित्रों से मिला तो न हैलो न हाय... न टाटा, न बाय-बाय। बिलकुल अजनबियों जैसा व्यवहार...। और-तो-और भाभीश्री से मिलने पहुंचा तो वह बोली, आप किससे मिलना चाहते हैं भाई साहब...। इससे पहले कि भतीजे श्री ने चाचाजी कहते टोपा उतार दिया...। तब कहीं अंदर जाने की इजाजत मिली।
शीशे के सामने खड़ा हुआ तो स्वयं को पहचानना मुश्किल था। इतना लदे-फंदे होने के बावजूद जाड़ा भीतर तक जम रहा था। चूंकि सोचना अपना काम है सो सोचता हूं कि अपने पास मांगे-जांचे के ही सही उतनी बनियाइनें-स्वेटर हैं पर जिनकी स्थिति धोती-फटी, दुपटा और पांय उपानहु को नहि सामा जैसे हैं, अर्थात जो जन्मजात सुदामा हैं, उनके लिए सर्दी, सर्द-ई हो गई है...। ऐसे में यदि सर्दी यह कहे शहर बीच में बैठि के सबकी लेता खैर, अमीरन सो दोस्ती, गरीबन से बैर तो ऐसा लगता है कि टेंप्रेचर एक प्वाइंट और नीचे खिसक गया है।
किसी विधवा के चूल्हे और जिंदगी की तरह ठंडे शहर के सुदामा... जिनके नसीब में कंबल की जगह सरकारी अलाव लिखे हैं... वे यदि फाइलें टटोलना या अखबार पढऩा जानते होते तो ये कथित अलाव खोज लेते... पर उन्हें तो बताया गया कि ये अलाव चौराहों पर जल रहे हैं...। मैंने एक अलाव जलावनहार कर्मचारी से पूछा, भैये! हमारे चौराहे का अलाव कहां है? वह मुस्कराकर बोला, मेरे पेट में। मैं चौंका। एक सरकारी कर्मचारी वह भी नगर निगम के कमाऊ ओहदे पर... उसके पेट में अलाव कब से जलने लगा। पेट में आग तो उस मजदूर के लगती है जिसे काम के बिना मंडी से लौटना पड़ता है...। बाद में जब शोध किया तो पता चला कि वाकई कर्मचारी महोदय के पेट में अलाव जल रहा था। अलाव की लकड़ी दारू की बोतल में तब्दील होकर... उसका सर्दी-कवच बन चुकी थी...।
मेरे एक मित्र हैं... बिलकुल कोशीय प्राणी। कल मिले तो बिलकुल बिस्तरबंद थे। अचानक स्वास्थ्य में उनका इजाफा अर्थात पैकेट बन गया खाली लिफाफा पूछा तो बोले, जाड़े में मेवे खाता हूँ और सरकारी माल पर ऐश कर रहा हूं...। मैं चौंका। जिसे दोनों समय भर पेट रोटी नसीब नहीं वह मेवा खा रहा है। मेरी शंका का समाधान करने के लिए उन्होंने जेब से एक मूंगफली निकाली। छीली...। दो दानों में से एक मेरी हथेली पर रखते हुए बोले, लो आप भी मेवा खाओ। मेरे साथ रहोगे तो ऐसे ही ऐश करोगे? मुस्कराहट आना स्वाभाविक था। मैंने पूछा, यही है तुम्हारी मेवा...? वह हंसे बोले, नागरिक जी! गरीबों की यही मेवा है। जाड़ा शुरू होते ही 50 ग्राम खरीद लेता हूँ...। पूरे जाड़े भर ऐश करता हूँ...। आप जैसे मित्रों को भी खिलाता हूं। अब तो मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा, कुछ और भी खाया करो...। मेरी बात सुनकर वह उदास हो गया। गंभीर स्वर में बोला, खाने के लिए यहां बचा ही क्या है? मिल थी... मजदूर नेता खा गये...। मंडी को दलाल खा गये...। पार्कों, फुटपाथों को भूमाफियाओं ने पचा लिया, स्कूल-कॉलेजों को शिक्षा ठेकेदार डकार गये। नगर निगमों ने सड़कें चबा लीं...। चोरों ने मेनहोल के ढक्कन निगल लिए...। एक चरित्र था उसे आज की राजनीति खा गई...। अब मेरे जैसों के लिए मूंगफली बची है... सो कभी-कभी खा लेता हूं....। उसके तर्क गहरे तक चुभ गये...। मैंने सलाह दी, किसी राजनेता के सामने ऐसी बातें नहीं करना, नहीं तो हड्डियां तुड़वा देगा। वह व्यंग्य से मुस्कराया, कम-से-कम जाड़े में तो हड्डियां सुरक्षित हैं... क्योंकि पुलिसवाले को तीन महीने लग जायेंगे... मेरे जैसे बिस्तरबंद की हड्डियां तलाशने में।
दादी ने बताया कि हमारे जमाने में शहर में इतना जाड़ा पड़ा था कि नलों का पानी जम गया था। मैंने दादी के इस शौर्यपूर्ण वक्तव्य को धराशायी किया -
पर अब तो नलों का पानी हमेशा जमा रहता है...। इसीलिए तो पानी आता ही नहीं। दादी ने फिर तीर मारा, हमारे जमाने में एक बार इतना कोहरा पड़ा था कि दिन में भी बड़े बल्बों की रोशनी तक नहीं दिखती थी। मैंने भी आधुनिक शौर्य बखाना, पर दादी अब तो गर्मियों में भी बल्ब की रोशनी नहीं दिखती क्योंकि बिजली आती ही नहीं। दादी जैसे लाजवाब हो गई थीं सो रजाई ओढ़ ली। मैंने देखा जाड़ा रोशनदान से उनके कमरे में उतर रहा था, सो उसमें एक गत्ता लगा दिया। ऐसा करते हुए मेरे सामने फूस की कई झोंपडिय़ां उभर आईं।
बहरहाल लाख दरवाजे, रोशनदान खिड़कियां बंद कर ली जायें, जाड़ा है कि कमरों के भीतर आ ही जाता है। मेरी एक प्रशंसक मित्र हैं...। चार साल का बेटा है उनका...। कल किसी काम से उनके घर गया तो बेटे को केसर चटा रही थीं और समझा रही थीं, खा ले बेटा... तुझे सुबह स्कूल जाना है...। केसर और स्कूल का क्या संबंध? पूछा तो हंस कर बोलीं, आपको पता नहीं शायद, केसर गरम होती है...। बच्चे को ठंड में पांच बजे स्कूल के लिए निकलना पड़ता है। सवा पांच बजे बस आती है। ...सात बजे स्कूल पहुंचता है। पौने दो घंटे बस में... उस पर रिकॉर्ड जाड़ा।... मैंने मुन्ने को देखा...। मुझे खरगोश के बच्चे जैसा लगा वह, जिसे... सर्कस में प्रदर्शन के लिए तैयार किया जा रहा हो।
- डॉ. सुरेश अवस्थी