17-Nov-2016 06:57 AM
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क्या देश में युवा नेतृत्व संकट में है? क्या देश के प्रमुख क्षेत्रों में युवा नेतृत्व का अभाव? इस तरह के सवाल इनदिनों देश के कैंपस, राजनीतिक क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र और चौक-चौराहों पर उठ रहे हैं। इसकी वहज है कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने के मामले का शिथिल पडऩा। राहुल गांधी पहला लोकसभा चुनाव 2004 में जीते थे। तब से अब तक वे राजनीति में पूरी तरह से सक्रिय हैं। लेकिन सीधे-सीधे पार्टी की बागडोर संभालने से वे लगातार बचते रहे हैं या यूं कहें कि सोनिया गांधी अभी उन्हें इस लायक नहीं मान रही हैं।
हम सभी जानते हैं कि किसी भी देश की बुनियाद होती है राजनीति। राजनेता लोगों का प्रतिनिधित्व करता है और देश को उन्नत बनाने में योगदान देता है। भारत में राजनेताओं को हम दो श्रेणी में बांट सकते हैं। पहले वह जो अपने पुराने विचारों और मापदंडों के आधार पर वर्षों से देश पर राज करते आ रहे हैं। दूसरे युवा राजनेता, जिनके विचार बदलते हुए सामाजिक परिवेश के अनुसार नवीन है, और जो देश को नई राह की ओर अग्रसर करने का माद्दा रखते हैं। आजादी से अब तक भारत में बहुत से परिवर्तन हुए हैं। जहां आज भारत विश्वस्तर पर एक आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरा है वहीं तकनीकी क्षेत्र में हमने असीम सीमाएं नापी हैं। हरित क्रांति से लेकर तकनीकी क्रांति सभी ने देश को उन्नत बनाया है। सभी दिशाओं में बदलाव देखे गए। लेकिन इन सबके बावजूद राजनीति एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसमें नाम मात्र का बदलाव हुआ। भारतीय राजनेता अभी भी अपनी पुरानी मानसिकता के आधार पर राज करते हैं। यानी युवाओं को अपनी विरासत की बागडोर जल्दी नहीं सौंपनी चाहिए। इससे बड़ी हानि हो सकती है। यह मानसिकता कांग्रेस में भी नजर आ रही है। शायद यही कारण है कि सोनिया और राहुल असमंजश में हैं।
लेकिन सफल युवा नेतृत्व की मिसाल उनके घर में ही भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी के तौर पर है। जिसने 40 वर्ष की उम्र में ही देश की बागडोर संभाल ली थी, को अभी भी पूरा देश क्यों याद रखता है? इस प्रश्न का उत्तर सरल है केवल उनके कार्यों के कारण। देश को तकनीकी विकास की ओर ले जाने में जितना बड़ा हाथ राजीव गांधी का था उतना शायद ही किसी का रहा हो। उस समय यह प्रश्न क्यों नहीं उठा कि राजीव जी केवल चालीस साल के युवा नेता हैं। और राजनीति में तो चालीस की उम्र में तो व्यक्ति बच्चा कहलाता है। 2014 में कांग्रेस की बुरी हार के बाद लगातार कांग्रेसियों ने कोशिश की कि राहुल गांधी पार्टी की कमान संभाल लें लेकिन राहुल लगातार इस पर टालमटोल करते रहे हैं। बीच में 2011 से 2013 के दौरान कांग्रेस के लिए एक दौर ऐसा भी था जब लग रहा था कि युवा नेतृत्व पार्टी की कमान संभालने की ओर बढ़ रहा है। राहुल गांधी के साथ कांग्रेस में उनके हम उम्र नेता खासे सक्रिय दिखते थे। लेकिन 2014 के बाद यह स्थिति बदल गई।
2012 में जिस युवा नेतृत्व पर मुलायम सिंह यादव ने भरोसा जताया था, आज उसी युवा नेतृत्व पर से उनका भरोसा उठता दिख रहा है। इसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के जरिए समझा जा सकता है। 2012 में जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे तो उस वक्त राहुल गांधी पूरी तरह से कांग्रेस का चुनाव अभियान संभाले हुए थे। उनके साथ पार्टी के युवा चेहरे दिखते थे। इनमें दीपेंद्र हुड्डा, मीनाक्षी नटराजन, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट और जितेंद्र सिंह जैसे नाम प्रमुख हैं। लेकिन 2017 के उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए कांग्रेस का जो अभियान चल रहा है, उसमें राहुल तो दिख रहे हैं लेकिन उनके साथ जो चेहरे दिख रहे हैं, वे पुरानी यानी सोनिया गांधी की पीढ़ी के हैं। चाहें शीला दीक्षित हों या गुलाम नबी आजाद या फिर राज बब्बर, इनमें से कोई भी राहुल की पीढ़ी का नहीं है। उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी में भी यही स्थिति दिख रही है। मुलायम सिंह यादव ने 2012 में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाकर यह संकेत दिया था कि अब युवा नेतृत्व का दौर आ गया है। लेकिन 2016 आते-आते अखिलेश पर से उनका भरोसा उठता दिख रहा है और उन्होंने पार्टी की कमान न सिर्फ अखिलेश से पुरानी पीढ़ी के शिवपाल यादव के हाथों में सौंप दी बल्कि खुद भी पार्टी और सरकार के कामकाज में गहरी दिलचस्पी ले रहे हैं। इससे समाजवादी पार्टी और मुलायम परिवार में खासा मतभेद भी पैदा हो गया है। शिवपाल यादव समेत पार्टी के एक खेमे द्वारा यह मांग उठाई जा रही है कि सरकार का नेतृत्व भी खुद मुलायम सिंह यादव अपने ही हाथों में ले लें। मुलायम सिंह यादव ने अपने साथ के ही अमर सिंह को भी फिर से पार्टी में अहम भूमिका में सक्रिय कर दिया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि 2012 में जिस युवा नेतृत्व पर मुलायम सिंह यादव ने भरोसा जताया था, आज उसी युवा नेतृत्व पर से उनका भरोसा उठता दिख रहा है।
दरअसल, पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के लिए आसानी से जगह खाली नहीं करती। बात परिवार की हो तो भी। नब्बे साल की उम्र में एम करुणानिधि कह रहे हैं कि अभी वह अपने पुत्र को पार्टी की बागडोर नहीं सौपेंगे। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के इशारे का सुखबीर बादल दस साल से इंतजार कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव ने दरियादिली दिखाई तो आज पछता भले ना रहे हों, पर हालात से बहुत प्रसन्न तो नहीं ही हैं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस यथास्थिति से बाहर निकलने को तैयार नहीं लगती। पार्टी बढऩे के बजाय दिनोंदिन घट रही है। सोनिया गांधी बेटे राहुल के लिए अध्यक्ष पद छोडऩे को आतुर हैं, पर राहुल तैयार नहीं हैं। क्यों तैयार नहीं हैं, इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता।
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की फिर बात उठी, लेकिन कुछ तय नहीं हो सका। शायद सोनिया गांधी कुछ और समय तक अध्यक्ष बनी रहेंगी। तदर्थवाद कांग्रेस का स्थायी भाव बन गया है। राहुल गांधी सुबह-शाम प्रधानमंत्री से पूछते हैं कि ढाई साल के शासन में क्या किया? पर कोई उनसे पूछे कि इस दौरान खुद उन्होंने क्या किया? उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों में आजकल राहुल गांधी की किसान यात्रा और खाट सभा की बजाय अखिलेश यादव की राजनीति की चर्चा हो रही है। सूबे के कांग्रेसी हाय हुसैन हम न हुए की तर्ज पर कह रहे हैं कि काश राहुल गांधी भी ऐसा कर पाते। अखिलेश ने पिता और चाचा के खिलाफ जिस तरह के तेवर दिखाए हैं उससे सपाई खुश हों न हों, पर कांग्रेसी परम प्रसन्न हैं। इससे पहले कांग्रेसियों में चर्चा इस बात पर थी कि किसान यात्रा के समापन पर खून की दलाली वाला बयान देकर राहुल ने ठीक किया या गलत? अब चर्चा का केंद्र अखिलेश बन गए हैं। अखिलेश में सूबे के कांग्रेसियों को अपना तारणहार (खासतौर से विधायकों को) दिख रहा है। इसलिए पार्टी का एक बड़ा वर्ग विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन के पक्ष में खड़ा हो गया है। सो पार्टी की एकला चलो की नीति कितने दिन टिकेगी, कहना मुश्किल है। हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी के संगठन की हालत किसी बीमार कंपनी जैसी हो गई है। पिछले साल कांग्रेस कार्यसमिति ने सोनिया गांधी का कार्यकाल एक और साल के लिए बढ़ा दिया था। वे इस जिम्मेदारी को अभी भी निभा रही हैं। अब देखना यह है कि भारत की राजनीति में युवा संक्रमण काल के गाल से किस तरह निकल पाते हैं।
आज भी अविश्वास के साए में युवा
आज देश का युवा कितना भी होनहार क्यों न हो, लेकिन बुजुर्गों को अपनी विरासत सौंपने में हिचक हो रही है। राजनीति में तो इसका सबसे अधिक असर दिख रहा है। हमारे यहां अक्सर देखा जाता है कि राजनेता तब तक राज करते हैं जब तक वह चाहते हैं। यही नहीं बुढ़ापे का जीवन जी रहे यह राजनेता कई प्रमुख पद भी ग्रहण करते रहते हैं जिसके फलस्वरूप युवाओं को मौका नहीं मिल पाता। इन राजनेताओं का कहना है कि आज के युवा नेता इस लायक नहीं हुए हैं कि उनके कंधों पर देश को चलाने की जिम्मेदारी दी जाए। दसों साल लगते हैं एक कुशल राजनेता बनने के लिए अत: अगर राजनीति से हम लोग रिटायरमेंट लेकर घर बैठ जाएं तो युवाओं का सही से मार्गदर्शन नहीं हो पाएगा।
कार्पोरेट को भी नहीं भाया युवा नेतृत्व
युवा नेतृत्व का यह संकट सिर्फ राजनीति जगत में ही नहीं दिख रहा है बल्कि कार्पोरेट में भी ऐसी ही स्थिति दिख रही है। इसका ताजा उदाहरण अभी हाल ही में टाटा समूह में देखने को मिला। चार साल पहले जब टाटा समूह के प्रमुख रतन टाटा अपनी जिम्मेदारियों से खुद को मुक्त करके कंपनी की बागडोर साइरस मिस्त्री के हाथों में दे रहे थे तो उन्होंने मिस्त्री की क्षमताओं के बारे में काफी बड़ी-बड़ी बातें कही थीं। उस वक्त यह लगा था कि लंबे समय तक टाटा समूह को दिशा देने वाले रतन टाटा ने अपने बाद पूरे समूह की बागडोर एक काबिल व्यक्ति के हाथों में सौंपी है। रतन टाटा ने उस वक्त यह भी कहा था कि इस जिम्मेदारी से मुक्त होने के बाद अब वे अपने उन पुराने शौकों पर समय देंगे जिनके लिए टाटा समूह का प्रमुख रहते हुए उन्हें वक्त नहीं मिल पाता था। लेकिन गतदिनों जो हुआ उससे ऐसा लगता है कि टाटा समूह नेतृत्व के स्तर पर वहीं पहुंच गया है जहां चार साल पहले था। टाटा समूह में जो कुछ हुआ, वैसा पहले भी कॉरपोरेट जगत में हो चुका है। भारत के कॉरपारेट जगत से सबसे बड़ा उदाहरण इन्फोसिस का है। इन्फोसिस को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाने वाले एनआर नारायणमूर्ति ने 2011 में खुद को कंपनी से अलग कर लिया था। उन्होंने कंपनी की बागडोर आईसीआईसीआई बैंक के प्रमुख रहे केवी कामथ के हाथों में सौंप दी थी। नारायणमूर्ति को लगता था कि कंपनी जिस अच्छी स्थिति में है, वहां से उसे आगे ले जाने में नई पीढ़ी या यों कहें कि युवा नेतृत्व पूरी तरह से सक्षम है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नेतृत्व परिवर्तन के दो साल के अंदर यानी 2013 में ही नारायणमूर्ति को लग गया कि अगर उन्होंने इन्फोसिस की बागडोर फिर से नहीं संभाली तो कंपनी बुरी हालत में पहुंच जाएगी। वे वापस आ गए और कंपनी की कमान फिर से संभाल ली।
-दिल्ली से रेणु आगाल