17-Nov-2016 06:52 AM
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छठ लोकपर्व अब बिहार से बाहर देश के हर कोने में महापर्व का रूप ले चुका है। पहले जहां मुख्य रूप से इसका आयोजन बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तरप्रदेश के इलाको में किया जाता था, तो वहीं अब छठ की छठा मुंबई से बंगाल तक तो दिल्ली और मध्य प्रदेश में भी देखने को मिल रही है। यानी अब पूरा देश पूर्वांचल वासियों का लोहा मानने लगा है। दरअसल इसके पीछे मूल वजह है राजनीति। वर्ना कल तक जिन शहरों में पूर्वांचलवासियों को उपहास की नजर से देखा जाता था, आज उनको मान-सम्मान मिल रहा है। यह राजनीति का ही पुट है कि देश में पूर्वांचलवासियों को एक बड़ी ताकत के रूप में देखा जा रहा है। कारण भी साफ है पूर्वांचलवासियों की एकजुटता और थोक वोट बैंक।
सो कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। चुनाव करीब होने के कारण कई राज्यों में छठ पर्व को एक मौके के रूप में भुनाने की भी कोशिश की गई ताकि पूर्वांचल के प्रवासियों (बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मूल निवासियों) को अपने पक्ष में किया जा सके। क्योंकि राजनेता भी यह समझ चुके हैं कि छठ किसी भी पूर्वांचल के व्यक्ति के लिए विशेष मायने रखता है और ऐसे में इस पर्व पर विशेष तैयारियां कर राजनीतिक रोटियां भी सेकी जा सकती हैं। छठ पर्व के महत्व को समझते हुए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर विपक्ष के राहुल गांधी समेत तमाम बड़े राजनेताओं ने ट्वीट के जरिए भी छठ की बधाई देने में देर नहीं की। वहीं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने छठ घाटों पर जाकर पूजा-अर्चना की। इससे देश को पूर्वांचलवासियों की महता का अहसास हुआ है। ये वही लोग हैं जो पहले-पहल जब किसी जगह पर गए तो वहां उनका उपहास उड़ाया गया कि देखों दूध वाले भैया आए हैं। फिर धीरे-धीरे जब उस जगह पर उनका जमावड़ा होने लगा तो उनका विरोध होने लगा। क्योंकि वे अपनी कर्मठता से हर जगह अपना स्थान बना रहे थे। जब विरोध के बाद भी वे टस से मस नहीं हुए तो उनका स्वीकार्यता बढऩे लगी। क्योंकि वे थोक में वोट बैंक बनकर उभरे हैं। अपनी स्वीकार्यता बढ़ती देख इस समाज ने अपने अधिकार लेने शुरू कर दिए। अधिकारों के लिए उन्हें शक्ति प्रदर्शन की जरूरत पड़ी जिससे उनकी शक्ति संगठित हुई। अब यह समाज अपनी संप्रभुता बनाने में लगा हुआ है।
इसको देखते हुए राजनेताओं ने इस समाज के महापर्व छठ को अपनी राजनीति से पोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसा नहीं है कि छठ का राजनीतिकरण पहली बार हुआ है। इससे पहले केंद्र सरकार ने 2011 में छठ पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा कर दी थी। 2014 में दिल्ली सरकार ने छठ के मौके पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा कर दी। पड़ोसी राज्य यूपी भी पीछे नहीं रहा और 2015 में वहां भी सार्वजनिक छुट्टी की घोषणा की गई। छठ पर पहली बार बंगाल सरकार ने इस बार छुट्टी का ऐलान किया। उत्तराखंड में भी इस बार की छठ पर चुनावी रंग दिखा। राज्य की सरकार ने चुनावी मौसम को देखते हुए, पूर्वांचल को लुभाने के लिए इस बार छठ के दिन अवकाश घोषित किया। मुंबई में तो छठ महापर्व में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के शामिल होने पर कांग्रेस-भाजपा में घमासान शुरू हो गया है। मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरूपम ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर छठ उत्सव में शामिल नहीं होने की गुजारिश की थी। दरअसल, भाजपा और कांग्रेस के बीच मुंबई में छठ पूजा शुरू करने के श्रेय की जंग छिड़ी है। निरूपम का कहना है कि यह पर्व गैर राजनीतिक होना चाहिए जबकि शिवसेना में रहते हुए उन्होंने जूहू चौपाटी पर फिल्मी व भोजपुरी सितारों की मौजूदगी में तामझाम के साथ छठ महापर्व का सबसे बड़ा आयोजन
किया था।
दरअसल यह पूरा खेल वोट बैंक की राजनीति का है। सूर्य उपासना का पावन पर्व छठ पूर्वी भारत के बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश, झारखंड और नेपाल के तराई वाले इलाके के निवासी धूमधाम से मनाते हैं। पिछले कुछ दशकों से इन राज्यों से पलायन होने के कारण उन तमाम शहरों में लोग इस पावन पर्व का आयोजन करने लगे हंै, जहां-जहां के ये रहवासी बन चुके हैं। चाहे वो छत्तीसगढ़ का छोटा सा शहर बिलासपुर हो, देश की राजधानी दिल्ली हो या फिर फिल्मी सितारों से पटी मायानगरी मुंबई हो। इन तमाम जगहों पर बड़े ही धूमधाम के साथ प्रवासी लोग छठ पर्व मनाते हैं। छठ पर्व की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए देश के राजनेता भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे हैं। यूं कहे तो इस पावन पर्व में सियासी घुसपैठ हो चुकी है। देश के जिस किसी हिस्से में बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोग रहते हैं, वहां बड़े ही धूमधाम के साथ छठ पर्व का आयोजन किया जाता है। प्रवासियों के साथ-साथ स्थानीय लोगों की भी आस्था इस पर्व के साथ जुड़ती चली जा रही है। सामुहिक तौर पर मनाए जाने के कारण इस लोक आस्था के पर्व में राजनीतिक दखलअंदाजी होना स्वभाविक है। पूर्वांचलवासियों के एक बड़े और एक तरह से संगठित वोट बैंक को देखते हुए अन्य शहरों के नेताओं की दिलचस्पी बढऩा लाजमी है।
यही कारण है कि देश की राजधानी दिल्ली से लेकर मुंबई तक आस्था के पर्व छठ के बहाने राजनैतिक दलों के नेता अपनी नेतागिरी चमकाने में जुटे रहे। किसी को अपना वोट बैंक बचाए रखने की ङ्क्षचता है तो कोई खोए जनाधार को वापस पाने की फिराक में है। दिल्ली में तो आम आदमी पार्टी, भाजपा एवं कांग्रेस नेताओं में खुद को छठ व्रतधारियों का सबसे बड़ा हितैषी दिखाने की होड़ लगा दी थी। एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में पूर्वांचल बाहुल्य इलाकों में छठ की बधाई देते हुए होर्डिंग, पोस्टर लगा दिए गए। अगले वर्ष प्रस्तावित नगर निगम चुनाव की ङ्क्षचता ने चुनाव लडऩे के इच्छुक नेताओं को छठ पर्व से जुड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन का खर्च उठाने को मजबूर कर दिया। ऐसा नहीं की यह पहली बार हुआ। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। लेकिन इस बार कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इसमें शामिल होकर इसे चर्चा में ला दिया है। मप्र में देखा जा रहा है कि सरकार ने पिछले एक दशक में इस महापर्व के लिए विशेष कार्य किया है। घाटों को बनाने, संवारने के साथ ही छठ पूजा के दिन आयोजन को सफल बनाने में योगदान भी दिया जा रहा है। इस बार जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शीतल दास की बगिया पहुंच कर इस आयोजन में शामिल हुए वहीं सांसद, महापौर, विधायक और अन्य नेता लगभग हर आयोजन में पहुंचे। निश्चित ही राजनीति के उत्सवों और त्योहारों में घुसपैठ कुछ समय के लिए तो ठीक लगती है, लेकिन महज वोट बैंक की मंशा आस्था और श्रद्धा के इन त्योहारों की गरिमा को समाप्त करते हैं बल्कि देश और लोक संस्कृति को भी काफी नुकसान पहुंचाते हैं।
पहली बार मप्र के मुख्यमंत्री ने भी छठ पर किया दीपदान
मप्र की राजधानी में आयोजित हाने वाला छठ पर्व वैसे तो हमेशा से राजनीतिक छटा से सराबोर रहता है। लेकिन पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस महापर्व में शामिल हुए। यही नहीं इस अवसर पर उन्होंने झील में दीपदान भी किया और लोगो को संबोधित भी किया।
सेक्यूलर पर्व होने के कारण नेता करते हैं इसका सियासी उपयोग
छठ पर्व के बारे में कहा जाता है कि यह लोक आस्था का सबसे बड़ा पर्व है। आए दिन हिंदू धर्म के अलावा इस्लाम को मानने वाले लोग भी सूर्य की अराधना करने लगे हैं। ऐसे में अगर इसे सेक्यूलर पर्व का दर्जा दिया जाए तो अतिशियोक्ति नहीं होगी। लोगों का इस पर्व के प्रति भावनात्मक लगाव होता है। ठीक उसी तरह जिस तरह ईद को लेकर इस्लाम धर्म मानने वालों का लगाव है। यही वजह है कि ईद के तरह ही अब छठ पर्व के भी सियासी उपयोग होने लगे हैं। ईद में जगह-जगह इफ्तार पार्टी आयोजित की जाती है, तो छठ के मौके पर भोजपुरी और मैथिली लोक कलाकारों के संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। वजह है एक बड़े वोट बैंक को अपने लिए या दल के लिए लुभाना। लोक आस्था से जुड़े होने के कारण राजनेता अपनी उपस्थिती को फायदेमंद समझते हैं। यही कारण है कि छठ पूजा के नजदीक आते ही नेताओं के प्रतिनिधि समिति से संपर्क साधने लगते हैं। वजह है हजारो की संख्या में जुटने वाले प्रवासियों से एक जगह मिलना। आमंत्रण भेजने पर नेता आते हैं और वहां मौजूद लोगों को संबोधित करते हैं। अपने भाषण से प्रवासियों को रिझाने की पूरी कोशिश की जाती है। वादे होते हैं, अश्वासन दिए जाते हैं, लेकिन वो तमाम वादे सूर्य के अघ्र्य के साथ ही समाप्त हो जाते हैं।
-रजनीकात पारे