त्रिमूर्ति में फंसी कांग्रेस
02-Nov-2016 08:36 AM 1234797
मध्य प्रदेश में अघोषित तौर पर  2018 विधानसभा चुनाव चुनाव का बिगुल बज गया है। भाजपा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी। जबकि कांग्रेस में अभी तक अगुवाई करने वाले नेता का पता ही नहीं है। दरअसल कांग्रेस इन दिनों इस मुद्दे पर बुरी तरह उलझी हुई है। कभी कमलनाथ का नाम सुर्खियों में तैरता है तो कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया का। हालांकि दिग्विजय सिंह को कमान सौंपी जाएगी, इस बात की फिलहाल कोई गुंजाइश दिखाई नहीं देती, तब भी उनके कट्टर समर्थक मानते हैं कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की वापसी केवल उन्हीं की अगुआई में हो सकती है। उधर, मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव के चाहने वाले दावा कर रहे हैं कि बड़े नेताओं के समर्थक चाहे जो दावा करें, लेकिन चुनाव तो यादव की अध्यक्षता में ही होंगे। इन लोगों का कहना है कि असल में अरुण यादव कांग्रेस के उन युवा नेताओं में शामिल हैं जिन्हें खुद राहुल गांधी ने खड़ा किया है। इसलिए यादव को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा। नेतृत्व किसके हाथों में होगा, इस पर फिलहाल सिर्फ कयास लगाए जा सकते हैं, लेकिन ये तय है कि अब एक-एक दिन की देरी भी कांग्रेस को भारी पड़ेगी। राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि अगले कुछ दिनों में प्रदेश में चुनावी माहौल बनने लगेगा और एक बार जो माहौल बन जाएगा, वो चुनाव तक कायम रहेगा। अब चूंकि चुनाव 2018 के आखिर में होना हैं, इसलिए वो पूरा साल तो चुनावी साल ही रहेगा। इसीलिए कांग्रेस के पास काम करने-दिखाने और अपने पक्ष में माहौल खड़ा करने के लिए सही मायने में 2017 का साल ही रहेगा। असल में, यदि भाजपा को कड़ी टक्कर देनी है तो कांग्रेस को जबर्दस्त मेहनत करनी पड़ेगी। पिछले तेरह साल पर नजर डालें तो इस दौरान कभी भी कांग्रेस ऐसी कोशिश करती नजर नहीं आई जिसके बलबूते भाजपा को सत्ता से बेदखल किया जा सके। हालांकि अधिकांश कांग्रेस नेता व उनके समर्थक दावा कर रहे हैं कि इस दफा खुद जनता आगे आएगी, कांग्रेस के पक्ष में वोट करेगी और भाजपा को सत्ता से बाहर कर देगी। कांग्रेसियों के मुताबिक जनता भाजपा सरकार से बेहद नाराज है। अव्वल तो जिस नाराजगी का दावा कांग्रेसी कर रहे हैं, वैसी नाराजगी फिलहाल जमीन पर तो कहीं दिख नहीं रही है। और थोड़ी देर के लिए अगर मान भी लें कि जनता सरकार या पार्टी से नाराज है, तो वो नाराजगी इलाके के विधायकों से ज्यादा है, बजाय मुख्यमंत्री के। इस नाराजगी को कम करने के लिए भाजपा इस दफा जमकर अपने मौजूदा विधायकों के टिकट काटने का प्रयोग कर सकती है। पार्टी के वरिष्ठ नेता इसे नाराजगी कम करने का एक टेस्टेड फॉर्मूला मानते हैं। और इन सबके सिवाय जब तक कांग्रेस इस नाराजगी को वोट में तब्दील करने की कोशिश नहीं करेगी, तब तक उसका सत्ता में लौटना महज सपना ही बना रहेगा। क्योंकि जनता विकल्प तलाशती है और विकल्प खड़ा करने का काम विपक्ष का होता है। इस बात को समझने के लिए हम 2003 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव को देख सकते हैं। 2003 के चुनाव तक प्रदेश की जनता दिग्विजय सिंह सरकार से आजिज आ चुकी थी, वो कांग्रेस सरकार से छुटकारा चाहती थी। भाजपा ने उमा भारती को विकल्प बनाकर जनता के सामने खड़ा किया और गुस्से को वोट में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ ऐसा ही 2014 के लोकसभा चुनाव में भी हुआ था। मनमोहन सिंह के विकल्प के तौर पर नरेंद्र मोदी को उतारा गया, नतीजा सामने है। अगर हम विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इन दोनों ही चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस से जनता लंबे वक्त से नाराज और दुखी थी, लेकिन उसके सामने चुनने को दूसरा विकल्प नहीं था। जैसे ही विपक्ष ने दमदार चेहरा सामने कर विकल्प खड़ा किया, जनता ने कांग्रेस का हाथ छोड़ दिया। मगर फिलहाल मध्य प्रदेश में कांग्रेस ऐसा कोई विकल्प खड़ा करती दिखाई नहीं पड़ रही है। यानी कांग्रेस इस वक्त उस जायदाद के इंतजार में बैठी है जो बाप के मरने पर मिलने वाली है। वो लड़ाई के मैदान में है तो, लेकिन सिर्फ दिखावे के लिए, जीतने के लिए नहीं। हालांकि अरुण यादव अपनी तरफ से पूरा जोर लगाए हुए हैं, लेकिन उस जोर में इतनी ताकत नहीं कि शिवराज को कुर्सी से उतार सके। उन्हें पार्टी के प्रदेश के वरिष्ठ नेताओं का सहयोग मिलता नहीं दिख रहा है। हालात ये हैं कि कांग्रेस 15 साल बाद भी सत्ता में वापसी करती नहीं दिख रही है। कार्यकर्ता भी कांग्रेस से हो गए आजिज प्रदेश में पार्टी गतिविधियां चलाना कांग्रेस के लिए दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है। वैसे भी इन दिनों किसी भी पार्टी की रैली या कार्यक्रम में जनता अपने आप तो आती नहीं। जनता को तो बाकायदा गाडिय़ों से ढोकर लाया जाता है। बल्कि अधिकांश बार तो जिन दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर सरीखे लोगों को रैली में लाया जाता है तो उन्हें तो मजदूरी भी देनी पड़ती है। किसी भी राजनीतिक दल का एक ठीक-ठाक भीड़ वाला कार्यक्रम ही कम से कम पांच-सात लाख के खर्चे वाला होता है। ऐसे में जबकि पार्टी सत्ता से बाहर हो, तो उसके शुभचिंतक भी छिटक जाते हैं और उद्योगपति भी पार्टी फंड में पैसा देने से परहेज करने लगते हैं। यही वजह है कि प्रदेश के चंद पुराने जमे जकड़े और प्रतिबद्ध कांग्रेसियों के भरोसे ही पार्टी अपनी गतिविधियों को अंजाम दे पा रही है। फिर तेरह साल तक विपक्ष में रहकर संघर्ष करते रहना भी किसी कार्यकर्ता के लिए आसान नहीं होता। इसलिए कांग्रेस के कार्यकर्ता भी अब पार्टी से आजिज आ चुके हैं। -भोपाल से अरविंद नारद
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