02-Nov-2016 08:30 AM
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किसी के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना लगाना क्या होता है, इसकी जीवंत बानगी मराठा आंदोलन है। लाखों की संख्या में मराठा महाराष्ट्र की सड़कों पर मौन जुलूस निकाल रहे हैं। इसका तात्कालिक कारण बताया जा रहा है अहमदनगर जिले में एक चौदह वर्षीय मराठा लड़की का बलात्कार और हत्या। इस मामले में अभी तक पकड़े गए तीनों आरोपी दलित हैं। क्रू्ररता की शिकार इस बालिका को न्याय दिलाने के नाम पर निकाली जा रही ये मौन मराठा रैलियां असल में उन दो पुरानी मराठा मांगों को हवा देने का काम कर रही हैं, जिन्हें अदालतें अवैधानिक और नाजायज ठहरा चुकी हैं। मराठा लड़की के साथ घटित इस दोहरे अपराध को मराठों पर दलितों के तथाकथित उत्पीडऩ के तौर पर पेश किया जा रहा है और इस बहाने मांग की जा रही है कि मराठा जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत अतिरिक्त आरक्षण दिया जाए और अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 को रद्द किया जाए।
आरक्षण को लेकर आंदोलनरत मराठों की यह मांग ठीक उसी प्रकार की है जैसी हरियाणा के जाटों और गुजरात के पाटीदार पटेलों ने की थी। पटेलों और जाटों के जैसे ही मराठा भी मूलत: एक कृषक जाति है, पर आज के वर्तमान नव-उदारवादी दौर में खेती-किसानी पर छाए आर्थिक संकट ने मराठा जाति को अपने भविष्य के प्रति आशंकित कर दिया है। ऐसा नहीं है कि संपूर्ण मराठा कौम इस संकट से जूझ रही हो। मराठा जाति चुनावी राजनीति में सदा से केंद्रीय भूमिका में रही है। राज्य के राजनीतिक अर्थशास्त्र में यह जाति नियंत्रणकारी स्थिति में रहती आई है। मगर वर्तमान नवउदारवादी दौर में कुछ मु_ी भर मराठा परिवारों ने तमाम संसाधनों और अवसरों को हथिया लिया है। मंत्रालयों, सहकारी समितियों और बैंकों से लेकर सहकारी गन्ना मिलों और निजी क्षेत्र के उद्यमों तक इस समुदाय के एक अभिजात तबके ने अपना वर्चस्व बनाया हुआ है। बहुसंख्यक मराठा कौम आज शिक्षा और रोजगार के बेहतर अवसरों से स्वयं को वंचित महसूस कर रही है।
अकाल, भुखमरी और बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं और बाजार में उत्पादन लागत भी न मिल पाने जैसी व्यवस्थागत खमियों से जूझता एक मराठा किसान आज खेती-किसानी से मुक्ति पाना चाहता है, पर कोई वैकल्पिक रोजगार उसके पास नहीं है। इस प्रकार एक आम मराठा का हक मारने वाले लोग उसी के समाज के उच्च अभिजात तबके से आते हैं। पर शीर्ष मराठा नेतृत्व ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए परदे के पीछे से वह हर संभव कोशिश की है, जिससे मराठा जाति के अंदर का असंतोष और आक्रोश समस्या के वाजिब कारणों की ओर न होकर अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को प्राप्त आरक्षण विषयक विशेष सुविधाओं की दिशा में मोड़ा जा सके।
अगर बात यहीं तक सीमित रहती तो भी गनीमत थी, लेकिन मराठा समुदाय के जातिवादी पूर्वाग्रहों को भी उनके असंतोष के शमन के लिए उभारा जा रहा है। मराठा जैसी दबंग कृषक जाति के दलित-विरोधी अतीत के मद्देनजर उनके वर्तमान आरक्षण आंदोलन को और अत्याचार निवारण अधिनियम खारिज करने की उनकी मांग को कोई कैसे न्याय और तर्क की कसौटी पर खरा साबित कर सकता है? यह पूरा आंदोलन दलित-विरोधी क्रूरता के इतिहास को उलटने और नकारने की जातिवादी साजिश है। अगर आज बहुसंख्यक मराठा जाति अच्छी शिक्षा संस्थानों, उच्च वेतन वाले तकनीकी रोजगार के अवसरों और उच्च गुणवत्तापूर्ण जीवन के अवसरों से स्वयं को वंचित पाती है, वर्तमान नवउदारवादी समय में स्वयं को ठगा पाती है, तो इसकी जड़ें अर्थव्यवस्था के वर्तमान ढांचे में हैं, न कि शिक्षा और आरक्षण से दलितों और आदिवासियों को प्राप्त होने वाले किंचित बेहतर अवसरों ने इनके अवसर छीने हैं। इस बात को समझने की जरूरत है।
वंचितों के न्याय की नहीं बल्कि वर्चस्व की लड़ाई
जाटों और पटेलों समेत मराठों की यह लड़ाई वंचितों के न्याय की लड़ाई नहीं, बल्कि अपने वर्चस्व के सामने आसन्न पूंजीवादी खतरों और आशंकाओं को दूर करने के लिए चुनावी राजनीति और आंदोलनों के माध्यम से अनैतिक, पर संवैधानिक जोड़-तोड़ का प्रबंधन करना है, अपने हितों पर छाए संभावित खतरों से बचने के लिए इन जातीय हितों और सुविधाओं का बीमा करवाना है। क्षुद्र जातीय स्वार्थों की यह लड़ाई पहले से ताकतवर जातियों द्वारा और ज्यादा ताकत हासिल करना है। सामाजिक न्याय और उत्पीडऩ से मुक्ति की जो शब्दावली दलित और आदिवासी आंदोलनों में अब तक हम देखते आए थे, ठीक वही शब्दावली कृषक लठैत जातियों के द्वारा हथिया ली गई है। मराठा आदि जातियों के इस राजनीतिक आंदोलन में आग्रह और याचिका की भाषा नहीं, बल्कि सीधे-सीधे धमकी और आदेश की भाषा है। मराठा आंदोलन के मूक मार्चों में उसी गांधीवादी हिंसक अहिंसा की धमक है, जिसका शिकार पूना समझौते में आंबेडकर को बनना पड़ा था।
-मुंबई से ऋतेन्द्र माथुर