02-Nov-2016 08:13 AM
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हिन्दू धर्म में दीपावली को पंच पर्वो के पावन परंपरा के रूप में जाना जाता है। इसकी शुरुआत धनतेरस से होकर भाई दूज तक चलती हैं। पांच पर्वों के तहत धनतेरस, नरक चतुर्थी, दीपावली, गोवर्धन पूजा और भाई दूज सम्मिलित हैं। कार्तिक मास की अमावस्या को मनाए जाने वाले इस पर्व से भले ही तमाम पौराणिक संदर्भ व किंवदंतियां जुड़ी हों लेकिन इसकी मूल अवधारणा अंधेरे पर उजाले की ही जीत है। देश, काल व परिस्थितियों के अनुरूप फसलों से भंडार भरते हुए एवं वर्षा ऋतु की खट्टी-मीठी यादों के बाद ठंड की दस्तक के साथ मनुष्य के अंदर नया उत्साह भरने के लिए दीपावली का त्योहार आता है। आज के युग में दीपावली पर यदि विचार करना हो तो मुख्य और तात्विक प्रश्न यह होगा कि आज हमारे लिए यह कितनी सार्थक, समीचीन और हमें आगे ले जाने वाली है। पहले हर त्यौहार आस्था श्रद्धा और विश्वास का होता था किंतु आज हर त्यौहार सिर्फ दिखावा मात्र बन गया है।
दीपावली महापर्व अर्थ, वैभव और समृद्धि की पूर्णता का परिचायक है। पर्वो की चीरकालिक सादगी, मातृभाव, समता, पवित्रता नदारत सी हो गई है। भौतिकवादी बाजारवाद ने आज इन तत्वों को निगल लिया है। पहले चाहे अमीर हो या गरीब सभी के अंदर त्यौहार का रोमांच व खुशी हुआ करती थी किंतु आज पर्व गरीबों का नही सिर्फ अमीरों का बन रह गया है। आज गरीब और गरीब होता जा रहा है अमीर और अमीर होता जा रहा है। अगर इन पर्वो की खुशी है, तो उन 25 फीसदी अमीरों को है 75 फीसदी गरीबों को तो इन त्यौहारों पर अधिक से अधिक मेहनत करके दीपावली मनानी पड़ती है। आज अत्याधुनिक आधुनिकता ने हमारे पारम्परिक काम धंधो को चौपट कर दिया है। हम सभी को हमारी परम्परा को नष्ट होने से बचाना चाहिए। ताकि कुछ बेरोजगारी कम हो सके। आधुनिकता विचारों में होना चाहिए न कि दिखावे में। दीपावली तो सारे समाज में व्याप्त इष्र्या, द्वेष, अशांति, आपसी मनमुटाव व अनेकता जैसे अंधकार को प्रकाश से समाप्त करके भाईचारा शांति प्रेम, एकता की स्थापना करने का पर्व है। लेकिन लोक परंपरा और लीक से हटकर हम दीपावली मनाने के आदि होते जा रहे हैं।
लोक और लीक से हटकर दीपावली मनाने का ही परिणाम है कि दीपावली का महत्व केवल बाजारवाद बनता जा रहा है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस बार जहां धनतेरस पर मध्यप्रदेश में एक हजार करोड़ की खरीदी हुई है वहीं देश में 67 हजार करोड़ रुपए की खरीदी हुई है। यानी दीपावली दिखावे का पर्व बनकर रह गया है। कुछ दशक पहले की दीपावली की बात करें तो झोंपडिय़ों से लेेकर अट्टालिकाओं तक कुम्हारों के बनाए दीये मुस्कुराते थे। हमारी माटी से जुड़े ये दीये ज्ञान, ध्यान, जीवन ज्योति, सिद्धि का प्रतीक कहलाते थे। अब चाइनीज लाइटों की चकाचौंध से चुंधियाई रहती है दीपावली। पहले इस पर्व में लोक-लक्ष्मी का पूजन होता था। लोक-लक्ष्मी मायने अन्न, दूध-पूत, पशु-शक्ति, शर्म-लिहाज, लोक-मर्यादा, भलमनसाहत, छैल-छबीले गबरू, शर्मीली छोरियां। आज के दौर में दीपावली पर धन-संपदा और वैभव को पूजने का चलन है।
इन दिनों दीपावली भले ही धन-संपदा एवं वैभव के प्रदर्शन का अशिष्ट उत्सव हो पर असल में यह हमारी कृषि-कुसुमित संस्कृति की स्तवनीय सुषमा का शुभ्र श्लील त्योहार है। सालभर की कठिन मेहनत के बाद घर में आई अन्न-धनÓ रूपी लक्ष्मी का सत्कार करने के लिए हम घर-आंगन और कोठार को लीप पोतकर स्वच्छ-शोभन करते हैं और कंगाली के कूड़े-कर्कट को झाड़-बुहारकर एक ओर फेंक देते हैं। खेती-बाड़ी की साख बढ़ाने वाले इस देसज त्योहार को मनाने की शुरुआत सदियों पहले खेतिहर लोगों ने की थी। तभी आम लोगों यानी किसानों की सहयोगी जातियों ने दीपावली मनानी आरंभ की। शरद की सोहन ऋतु में, खरीफ की फसल का नया अन्न घर आने की खुशी में किसान इस दिन माता अन्नपूर्णा की आवभगत करते हैं। अन्न की अधिष्ठात्री देवी अन्नपूर्णा का अनुग्रह किसानों पर बेणु के पुत्र पृथु (त्रिशंकु के पिता) के समय से चला आ रहा है। जो लोग दीपावली को वैश्यों का त्योहार मानते हैं, वे भ्रम में हैं। देवी अन्नपूर्णा अर्थात अन्नलक्ष्मी की कृपा वैश्यों यानी व्यापारियों पर कभी नहीं रही। आढ़त और बणज के बहाने किसानों की जिंस पर काबू करने के बाद अन्नलक्ष्मी व्यापारियों के हत्थे चढ़ी है। असलियत में तो वह किसानों की गाढ़ी कमाई का प्रतीक है। लक्ष्मी वास्तव में नाज-पात, फल-फूल, औषध एवं नाना पदार्थों के रूप में खेतों में उपजने वाली शस्य की देवी श्रीÓ है। लेकिन समय के साथ सब कुछ बदल रहा है।
आज गांवों में न वह लोकलीक है, न वैसी दीपावली है। कुलक्ष्मी ने लोकलक्ष्मी एवं सरस्वती के घर ढहा दिए हैं। हरित क्रांति ने पशुधन एवं पशुओं की खेती उजाड़ दी। धन लक्ष्मी की चकाचौंध ने पुरखों का तमाम पुरुषार्थ माटी में मिला दिया। ऋतु, पर्व, मंदिर, देवी-देवता, अवतार और महापुरुषों की ओर अब कोई नहीं देखता। दीपावली का मंगल उजियाला आधुनिकता की आंधी में धूमिल पड़ गया है।
जब भूमंडलीकरण के युग में हम दीपावली का त्यौहार मनायेंगे तो मुख्य लक्ष्य भी यही होगा कि हमारे जीवन में यह कितनी खुशियां, उत्साह और आनन्दबोध लाने वाली है। आज के युग के सभी लोगों की खुशियां भी समान नहीं हो सकतीं। यदि खुशियों को हम आनन्दबोध मान लें तो यह विभिन्न व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न हैं और व्यक्तियों के आधार पर जो सामाजिक रचना हुई है, उसमें जो समुदाय जन्मे हैं वे भी स्वार्थों से मुक्त नहीं हैं और सभी स्वार्थ एक-दूसरे के सहयोग पर आधारित नहीं हैं। जब समाज में शोषण की प्रवृत्ति पनपती है तो वह वैयक्ति व पारिवारिक लाभ पर आधारित होती है। यह न मानते हुए भी कि वह स्थायी नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य को अमरत्व प्राप्त नहीं है।
माना यही जाता है कि दीपावली लक्ष्मी का त्योहार है। इस प्रकार लक्ष्मी पूजा इसका प्रमुख गुण और आवश्यकता है लेकिन लक्ष्मी स्वतंत्र नहीं हैं, इसलिए लक्ष्मी पति ही उनके निर्णायक और वाहक हैं। इसलिए यह पर्व लक्ष्मी पतियों का पर्व बनता जा रहा है। पहले दीपावली के दिन मेले सजते थे। लोग परंपरानुसार उस मेले में जाते थे और दीपावली मनाते थे। लेकिन देश में तेजी से बढ़ते शहरीकरण में इस महापर्व का स्वरूप ही बदल दिया है। यह पर्व केवल दिखावे का पर्व बनकर रह गया है। इस दिन लोग गाड़ी, घर, सोना-चांदी, बर्तन आदि खरीदना ही इस पर्व की सार्थकता मानते हैं।
ऐसी स्थिति में यह लक्ष्मी का त्यौहार लक्ष्मीपतियों के उत्साह का कारण तो है लेकिन हम भी खुशियां चाहते हैं इसलिए हम भी इसके मनाने की परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं और यह परंपरा लक्ष्मीपति को ही मजबूत करने का कारण बनेगी। हम यह स्वीकार कर लेंगे कि लक्ष्मी जो कुछ भी करेंगी वह जिसकी वह वाहक हैं उसकी इच्छा और स्वार्थों के विपरीत नहीं होगा। इस प्रकार हम लोकतंत्र में घर-घर दीप जलाने वाली दीपावली उनके लिए कितने प्रकाश और उत्साह का वाहक बनी, इसका मूल्यांकन दीपावली पर्व मनाने के बाद करेंगे तो क्या यह हमारे आत्मतोष का कारण बनेगा।
जब अपने देश में लोगों को कम पढ़ा-लिखा माना जाता था, तब दीपावली जैसे त्योहार अपनी भावनाओं के साथ-साथ पर्यावरण की भी शुद्धता बनाए रखते थे। सभी लोग अपने घरों की सफाई करके रंग-रोगन करते थे। झोपड़ी में रहने वाली कोई अकेली बुजुर्ग महिला भी गोबर से लीप कर गेरू से चीतन निकाल अपने घर को सजाती थी। पक्के घरों में साफ-सफाई के बाद जंगली बोस के फूल बिखेर कर पूरा वातावरण सुगंधित बना लिया जाता था। मिट्टी के दीए जला कर घरों की मुंडरों पर रख दिए जाते थे। घर में चिलम जैसी मिट्टी की हाड़ी लाकर रख ली जाती थी। इसको बिनोलों से भर लिया जाता था और तेल डाल कर डंडे में टांग कर इसे मशाल बना लिया जाता था। बच्चे उन्हें उठा कर गली-गली जयकारा लगाते थे। बीस-तीस मशालों का नजारा बड़ा मनमोहक होता था। जिसके घर के दरवाजे पर जाते वहां बैठी घर की मालकिन सबकी बाल और डिड्डों पर थोड़ा तेल टपका देती थी, ताकि ये मशालें ज्यादा समय तक जलती रहें। यह सब बताने का संदर्भ इसलिए जरूरी है कि इन दीयों और मशालों से वातावरण खराब नहीं होता था और हवा में जहर नहीं घुलता था। दीपावली सरीखे त्योहार की शुद्धता बनी रहती थी। नए वस्त्र, बढिय़ा भोजन और हर ओर रोशनी, खुशी का संदेश चारों ओर घोल देती थी। सभी जीवधारियों का स्वास्थ्य पोषित होता था। ऐसा होने से इस त्योहार की सार्थकता बनी रहती थी, जिसकी राह सभी लोग बड़ी बेसब्री से तकते थे। हर एक चेहरा मुस्कराता था। स्वच्छ वायु का कण-कण मुस्कराता। ये सारी बातें अंग्रेजों के यहां रहते तक कमोबेश थीं। आजादी के बाद हम अपनी आबोहवा को और बेहतर बनाने की ओर आगे बढ़ते। लेकिन अब हमारे पढ़े-लिखे होने के बाद हमें आधुनिकता की हवा भी लग गई। दादा-परदादा का रंग-ढंग पिछड़ेपन का प्रतीक लगने लगा। यह सब अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने की तरह था। उसके बाद हमने धीरे-धीरे फेंक दिए वे पिछड़ेपनÓ के रिवाज और भूल गए दीपावली की शुद्धता। अब दीपावली का मतलब हो गया है ज्यादा से ज्यादा कृत्रिम चकाचौंध और पटाखों के धमाके। इस कृत्रिमता और पटाखों ने कैसे हमारी उस दीपावली को गुम कर दिया, यह हमें पता भी नहीं चला।
यह सभी जानते हैं कि पटाखे बिना बारूद के नहीं बनाए जा सकते। बारूद को कागज की कई तहों में लपेट कर पटाखे बनाए जाते हैं। जब इस बारूद में आग लगाई जाती है, तब वह कानफोड़ू आवाज के साथ विस्फोट करता है और जहरीले धुएं का रूप धारण कर लेता है। यह कानफोड़ आवाज एक ओर ध्वनि प्रदूषण फैलाती है और दूसरी ओर जहरीला धुआं हमारी सांस लेने वाली वायु में घुल जाता है। चूंकि हमने खुद को आधुनिक मान लिया है, इसलिए सच्चाई पर विचार करने को भी हम पिछड़ापन कहने लगे हैं। अब तो इस मौके पर नए वस्त्रों से लेकर स्वादिष्ट त्योहारी भोजन का खयाल भी गायब होता जा रहा है। वातावरण की शुद्धता का तो सवाल ही सबको बेमानी लगता है। बस एक ही बात को लोगों को याद है कि दीपावली की भावना और शुद्धता कैसे बर्बाद हो, सभी जीवधारियों के स्वास्थ्य को हानि कैसे पहुंचे। कई दिन पहले से पटाखे फोडऩे शुरू कर दिए जाते हैं। इस काम में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता है। जो भी ज्यादा और जोरदार आवाज के विस्फोट वाले पटाखे छोड़े वह खुद को सबसे बड़ा मान लेता है।
दरअसल, दीपावली के बहाने सब अपना गोला-बारूद हाथ में लिए एक ही बात सोचते रहते हैं कि आज सबको पीछे छोड़ देना है। त्योहार के नाम पर बनाए गए इस युद्धÓ में ठांय-ठांय की आवाजें और बारूदी धुएं के बादल सारे वातावरण पर राज करने लगते हैं। हम किसी से कम नहींÓ की भावना ज्यादा पटाखे चलाने के लिए उकसाती है, भले ही खुद के घायल होने की नौबत आ जाए या फिर किसी के लिए जानलेवा बन जाए। यह सभी जानते हैं कि पटाखा छोडऩे के बीच सांस भी जल्दी-जल्दी लेना पड़ता है और सारा जहरीला धुआं वहां मौजूद व्यक्ति के भीतर चला जाता है। इस प्रकार का जहरीला धुआं फेफड़ों में जाकर क्या असर करेगा, यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं हैं। अफसोस यह भी है कि घर के बुजुर्ग, शिक्षक, समाज के अगुआ अपने आसपास के लोगों को इस सबके लिए समझाना या जागरूक करना जरूरी नहीं समझते हैं। बल्कि कई बार वे खुद इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। अगर दीपावली के नाम पर धमाकों और धुएं के नुकसान को लेकर ये लोग अपने घर के बच्चों और आसपास के युवाओं को समझाया जाए और खुद इस पर अमल करके उदाहरण पेश किया जाए तो थोड़ा देर से सही, लेकिन सभी समझेंगे। शायद तभी दीपावली फिर से अपने अर्थों में सब तरह रोशन होगी।
स्व के अनुभव से ज्ञान प्राप्त करने का संदेश है दीपावली
दीपावली हमें हमारी अपनी आत्मा की शक्ति की पहचान कराकर स्व के अनुभव से ज्ञान प्राप्त करने का संदेश देता है। जितनी भी आरंभिक संस्कृतियां हैं, उन सभी में देवता के रूप में सूर्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है। दरअसल, सूर्य से संपूर्ण मानवजाति लाभान्वित होती है। सूर्य के दो मूलभूत गुण हैं- ऊर्जा और प्रकाश। ऊर्जा से जीवन चलता है और प्रकाश अंधकार को चीरकर जीवन को आगे बढ़ाता है। आकाश में सूर्य के आगमन के साथ ही आदिम मनुष्य अपने आसपास को देखने-समझने में सक्षम हो जाता था। इसलिए ऋग्वेद की सबसे अधिक ऋ चाएं उषाÓ (भोर का समय) को समर्पित हैं। हमारे यहां दीपावली के अवसर पर तेल के जलते दीपकों की पंक्तियों से घर को जगमग करने की परंपरा मूलत: ऊर्जा (जीवन) एवं प्रकाश (ज्ञान) के प्रति उसी आदिम आवश्यकता की स्मृति से आई है। हालांकि इस परंपरा को आमतौर पर भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास के बाद लौटने पर अयोध्यावासियों द्वारा उनका स्वागत किए जाने तथा उल्लास व्यक्त किए जाने से जोड़ा जाता है, लेकिन इस बात का कोई उल्लेख रामचरित मानसÓ में नहीं मिलता। हां, वहां तीन स्थानों पर यह जरूर लिखा है कि भगवान राम के लौटने पर अयोध्या के लोगों ने थाल में सोने के सुंदर कलश सजाए, सोने के थाल में आरती रखी तथा दुख दूर करने वाले राम की आरती उतारी। हो सकता है कि स्वर्ण रंग से साम्य होने के कारण बाद में दीपक जलाने की परंपरा शुरू हो गई हो।
दीपावली बना रही है हवा को जहरीला?
दीपावली पर पहले तेल और घी के दिए जलते थे इससे वातावरण शुद्ध होता था। इनकी तपन और सुगंध से कई तरह की बैक्टीरिया नष्ट होती थी। लेकिन अब दियों की जगह बिजली की लाइटों ने ले लिया है और सुगंध की जगह पटाखों की गंध ने। पटाखों के जहरीले धुएं से हवा जहरीली हो रही है। इसका असर दीपावली के बाद कई दिनों तक रहता है। इस कारण सांस लेने में थोड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, खांसी बढ़ जाती है और जुकाम भी बार-बार होने लगता है। पर्यावरण मामलों की संस्था सीएसई की जांच के अनुसार दीपावली के दौरान देशभर में वायु प्रदूषण का स्तर काफी खराब हो जाता है। विशेषज्ञ अनुमिता रॉय चौधरी के मुताबिक, आने वाले दिनों में ये स्तर बढ़ सकता है क्योंकि दीपावली पर लोगों में पटाखे जलाने की प्रतियोगिता सी बढ़ जाती है। टॉक्सिक लिंक्स में वायु प्रदूषण मामलों के जानकार रवि अग्रवाल के मुताबिक स्थिति बेहद चिंताजनक है और इस समस्या का सीधा असर आपके स्वास्थ्य पर पड़ता है। उन्होंने बताया, प्रदूषण के स्तर में पीएम-10 नामक कण की मात्रा इस धुएं के कारण बुरी तरह बढ़ती है और ये सीधे फेफड़ों पर असर करता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि देश में नई-नई बीमारियां पनप रही हैं। बीमारियों के कारण लोगों का जीना दूभर हो रहा है। फिर भी लोग सबक नहीं ले रहे हैं। और दीपावली को परंपरा और लीक से हटकर दिखावे के लिए मना रहे है।
इस बार हम एक लौ इस तरह जलाएं
इस दीपावली क्यों न हम कुछ नए अंदाज से मनाएं। इस बार हम एक लौ इस तरह जलाएं जो अंधकार का एक टुकड़ा अपने में समा ले, जो हवा से लड़कर भी अपनी हस्ती बचा ले, ऐसी लौ जो इठलाती, टिमटिमाती जो भ्रष्टाचार से लडऩे की ताकत जुटा ले, जो युवाओं की शक्ति को अपनी ऊर्जा बना ले। क्योंकि एक युवा मशाल का नाम है दीपावली। जो किसी भूखे को अपने साथ खाने बैठा ले, जो किसी बेघर को अपने गले लगा ले, ऐसी ही दिलों में दौडऩे वाली, जो छोटी-छोटी बातों में छिपी खुशियों को पहचान ले जो किसी रोते हुए के आंसुओं से मुस्कुराहट निकाल ले ऐसी ही आत्मा में बसने वाली एक मासूमियत का नाम है दीपावली...जो किसी दोस्त के दर्द को अपना बना ले, जो किसी दुश्मन को भी अपना दोस्त बना ले ऐसी ही रिश्तों में घुलने वाली, एक मिठास का नाम है दीपावली। जो किसी धर्म-मजहब के रहस्य को जान ले जो आंखों पर पड़े संकीर्ण मानसिकता के पर्दे को हटा ले, जो तेरे अर्थ को अपना उद्देश्य बना ले, जो तेरे संदेश का चोला अपने तन पर लिपटा ले। चारों ओर फैले अंधकार, भय, निराशा, दर्द को अपने में जलाकर, रोशनी, खुशी, मुस्कुराहट, आशा, इंसानियत, मानवता के सुविचारों की किरणें फैला दे इस बार हम एक लौ इस तरह की जलाएं।