02-Nov-2016 07:13 AM
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राम चरित मानस से हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है। मानस में जहां हमें क्रोध के दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं वहीं शांतप्रिय व्यक्ति का प्रभाव भी देखने को मिलते हैं। ऐसा ही हमें वाल्मीकि रामायण में भी पढऩे को मिलता है। लंकादहन का प्रसंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। सीता की तलाश में हनुमान रावणनगरी लंका पहुंचते हैं जहां, उन्हें अशोक वन में सीता के दर्शन होते हैं। सीता के समक्ष वे अपना परिचय एवं साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। दोनों के बीच वार्तालाप होता है और बाद में सीता से अनुमति लेकर हनुमान अशोक वन में भ्रमण करने एवं वहां के फल-फूलों का आस्वादन करने निकल पड़ते हैं।
अशोक वन के रक्षकों से उनका संघर्ष होता है, कइयों को वे धराशायी करते हैं, और अंत में पकड़ लिए जाते हैं। उन्हें रावण की सभा में पेश किया जाता है, जहां निर्णय लिया जाता है कि राम के दूत के तौर आए हनुमान को मारना उचित नहीं। सांकेतिक दंड के तौर पर उनके पूंछ पर ढेर-सारे कपड़े एवं ज्वलनशील पदार्थ लपेटकर आग लगा दी जाती है। जलती पूंछ के सहारे गुस्से से आग-बबूला होकर हनुमान लंका जलाने निकल पड़ते हैं। लंका नगरी जल उठती है, भवन ध्वस्त हो जाते हैं, लोग हताहत होते हैं। पूंछ की अग्नि जब शांत हो जाती है और उनका गुस्सा ठंडा पड़ जाता है तो अनायास उन्हें सीता का स्मरण हो आता है। वे सोचते हैं कि इस अग्निकांड में तो अशोकवन भी जल उठा होगा। कहीं देवी सीता को तो हानि नहीं पहुंची होगी, क्या धधकते अशोक वन की आग से वे आहत तो नहीं हो गयीं? ऐसे प्रश्न उनके मन में उठते हैं, और वे चिंतित हो जाते हैं। वे अशोक वन की ओर लौट पड़ते हैं, सीता की कुशल पाने।
उस समय हनुमान को अपने मन में उठे क्रोध को लेकर पश्चाताप होता है। यह सोचकर उन्हें दु:ख होता है कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने अनर्थ कर डाला। वे अपने मूल उद्येश्य से भटक गये। आदि-आदि। अधोलिखित श्लोकों में तात्क्षधिक क्रोध संबंधी उनके मनोभावों को काव्यरचयिता वाल्मीकि ने इस प्रकार व्यक्त किया
यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते॥है:
धन्या खलु महात्मानो ये बुध्या कोपमुपत्थितम्।
निरुन्धन्ति महात्मानो दिप्तमग्निमिवाम्भसा॥
(यथा) महात्मान: दिप्तम् अग्निम् अम्भसा निरुन्धन्ति (तथा) इव ये महात्मान: उपत्थितम् कोपम् बुध्या (निरुन्धन्ति ते) खलु धन्या।
वे महात्माजन धन्य हैं जो मन में उठे क्रोध को स्वविवेक से रोक लेते हैं, कुछ वैसे ही जैसे अधिसंख्य लोग जलती अग्नि को जल छिड़ककर शांत करते हैं।
क्रुद्ध: पापं न कुर्यात् क: कृद्धो हन्यात् गुरूनपि।
क्रुद्ध: परुषया वाचा नर: साधूनधिक्षिपेत्॥
क: क्रुद्ध: पापं न कुर्यात, क्रुद्ध: गुरून् अपि हन्यात, क्रुद्ध: नर: परुषया वाचा साधून् अधिक्षिपेत्।
क्रोध से भरा हुआ कौन व्यक्ति पापकर्म नहीं कर बैठता है? कुद्ध मनुष्य बड़े एवं पूज्य जनों को तक मार डालता है। ऐसा व्यक्ति कटु वचनों से साधुजनों पर भी निराधार आक्षेप लगाता है।
वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते क्वचित्॥
प्रकुपित: वाच्य-अवाच्यं न विजानाति, क्रुद्धस्य कर्हिचित् अकार्यम् न अस्ति, क्वचित् अवाच्यं न विद्यते।
गुस्से से भरा मनुष्य को किसी भी समय क्या कहना चाहिए और क्या नहीं का ज्ञान नहीं रहता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ भी अकार्य (न करने योग्य) नहीं होता है और न ही कहीं अवाच्य (न बोलने योग्य) रह जाता है।
य: समुत्पतितं क्रोधं क्षमयैव निरस्यति।
यथा उरग: जीर्णां त्वचं (निरस्यति तथा इव) य: समुत्पतितं क्रोधं क्षमया एवं निरस्यति
स: वै पुरुष: उच्यते।
जिस प्रकार सांप अपनी जीर्ण-शीर्ण हो चुकी त्वचा (केंचुल) को शरीर से उतार फेंकता है, उसी प्रकार अपने सिर पर चढ़े क्रोध को क्षमाभाव के साथ छोड़ देता है वही वास्तव में पुरुष है, यानी गुणों का धनी श्लाघ्य व्यक्ति है।
हनुमान को सीता सकुशल मिल जाती हैं, और उन्हें तसल्ली हो जाती है।
लंकादहन की घटना पर अपने-अपने मत हो सकते हैं। किंतु क्रोध को लेकर जो विचार उक्त श्लोकों में व्यक्त हैं उनसे असहमत नहीं हुआ जा सकता है। क्रोधाविष्ट व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है और तात्क्षणिक आवेश में कुछ भी कर बैठता है। इस प्रकार के अनुभव हमें जीवन में पग-पग पर होते रहते हैं, जैसे राह चलते कोई आपसे टकरा जाए तो आप उस पर एकदम बरस पड़ेंगे, गाली-गलौज कर बैठेंगे, कदाचित् हाथ भी उठा देंगे। उस समय आप उसकी बात सुनने को भी तैयार नहीं होंगे। घटना को लेकर जो विचार प्रतिक्रिया-स्वरूप आप के मन में उठेंगे वे तुरंत ही कार्य रूप में बदल जायेंगे। अंत में जब वास्तविकता का ज्ञान आपको हो जाए और उसके प्रति विश्वास जग जाये तब आप अपने व्यवहार के प्रति खिन्न हो सकते हैं। तब भी अहम्भाव से ग्रस्त होकर आप अपने को सही ठहराने का प्रयास करेंगे।
मनुष्य में अनेकों भाव स्वाभाविक रूप से होते हैं, जैसे दूसरों के प्रति सहानुभूति, श्रद्धाभाव, उपकार की प्रवृत्ति, वस्तुएं अर्जित करने की इच्छा, प्रशंसा सुनने की लालसा, आनंदित होने का भाव, इत्यादि। अहम्भाव कदाचित् सबके ऊपर रहता है। इन भावों में से कुछ दूसरों के हित में होते हैं तो कुछ कभी-कभी उनके लिए कष्टप्रद या हानिकर। विवेकशील व्यक्ति आत्मसंयम का सहारा लेकर स्वयं को कमजोर भावों से मुक्त करने का यत्न करता है। प्रयास करना कठिन होता है, किंतु निष्फल नहीं होता। समय बीतने के साथ आप कमियों को जीतते हैं, और त्वरित प्रतिक्रिया के स्वभाव से मुक्त हो जाते हैं। कदाचित् इसी को प्राचीन मनीषियों ने तप कहा है।
-ओम