17-Nov-2016 06:07 AM
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गीता के अध्याय 2 के 23 वे श्लोक है में आत्मा का वर्णन है। जिससे यह ज्ञात होता है कि आत्मा ही अस्तित्व है...
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो
न शोषयति मारुत:॥
यानी इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता। यानी आत्मा सदा नाश रहित है। आत्मा ने ही सम्पूर्ण सृष्टि को व्याप्त किया है। सृष्टि में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जहां आत्मतत्व न हो। ऊर्जा अथवा पदार्थ का अस्तित्व आत्मा के कारण है। इस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। जीवात्मा इस देह में आत्मा का स्वरूप होने के कारण सदा नित्य है। इस जीवात्मा के देह मरते रहते हैं। यह आत्मा न किसी को मारता है, न मरता है। आत्मा अक्रिय अर्थात क्रिया रहित है अत: किसी को नहीं मारता। नित्य अविनाशी है अत: किसी भी काल में नहीं मरता है। इस आत्मा का न जन्म है मरण है। न यह जन्म लेता है न किसी को जन्म देता है। हर समय नित्य रूप से स्थित है, सनातन है। इसे कोई नहीं मार सकता। केवल इसके देह नष्ट होते हैं। आत्मा को जो पुरुष नित्य, अजन्मा, अव्यय जानता है, उसे बोध हो जाता है कि आत्मा जो उसमें और दूसरे में है वह नित्य है।
जीवात्मा के शरीर उसके वस्त्र हैं वह पुराने शरीरों को उसी प्रकार त्याग कर शरीर धारण करता है जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है। इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते हैं, इसे आग में जलाया नहीं जा सकता, जल इसे गीला नहीं कर सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती। यह निर्लेप है, नित्य है, शाश्वत है। आत्मा को छेदा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गीला नहीं किया जा सकता, सुखाया नहीं जा सकता, यह आत्मा अचल है, स्थिर है, सनातन है।
यह आत्मा व्यक्त नहीं किया जा सकता है क्योंकि आत्मा अनुभूति का विषय है। इसका चिन्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह बुद्धि से परे है। यह आत्मा विकार रहित है क्योंकि यह सदा अक्रिय है। चन्द्र अर्जुन से कहते हैं कि जैसा मैंने बताया आत्मतत्व एक आश्चर्य है, आश्चर्य इसे इसलिए कहा है कि अक्रिय होते हुए भी यह कुछ करता नहीं दिखायी देता है। यह निराकार है, अजन्मा है, फिर भी जन्म लेते हुए, मरते हुए दिखायी देता है। आत्मा इस देह में अवध्य है अर्थात इसे कैसे ही, किसी भी प्रकार, किसी के द्वारा नहीं मारा जा सकता क्योंकि यह मरण धर्मा प्राणी अथवा पदार्थ नहीं है।
आत्मतत्व के लिए हजारों मनुष्यों में कोई एक पूर्व जन्म का योग भ्रष्ट पुरुष यत्न करता है। उन यत्न करने वाले सिद्धों में भी कोई बिरला ही आत्म स्वरूप को जानता है। शंकराचार्य कहते हैं, पहले मनुष्य जीवन दुर्लभ है, उसमें भी मुक्त होने की इच्छा (मुमुक्षत्व), उसमें भी सत् पुरुषों का संग। यह सब मिलने पर भी निरन्तर अभ्यास और वैराग्य से यत्न करते हुए सिद्ध योगियों में भी कोई बिरला ही आत्म स्वरूप में भली भांति स्थित हो पाता है। आत्मा सभी भूतों का सनातन बीज है। जब न सृष्टि रहती है न प्रकृति, उस समय विशुद्ध पूर्ण ज्ञान शान्त अवस्था में रहता है, जो सृष्टि का बीज है, यही आत्मा है। आत्मा सत्य है, जगत मिथ्या, जगत आत्मा का स्वरूप है, उसी से निकलता है उसी में समा जाता है। अत: आत्मज्ञान होने पर जगत का अस्तित्व नहीं रहता।
आत्मा परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म है अर्थात आकार रहित है, सर्वज्ञ है, इस सृष्टि का मूल है, अनादि है, जिससे संसार के सभी चर अचर अनुशासित होते हैं, जो सबकी उत्पत्ति का कारण है, जो सबका भरण पोषण करने वाला है, जो नित्य चैतन्य है, जिसका चैतन्य सूर्य के समान अपनी चेतना से सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित कर रहा है, वहां अज्ञान का अंश मात्र भी नहीं है।
आत्मा जब व्यक्त प्रकृति को प्रकृति द्वारा स्वीकार करती है तब सृष्टि भिन्न-भिन्न आकार ग्रहण करने लगती हैं। प्राणी मात्र का विस्तार होने लगता है। सब क्षेत्रों में अर्थात सब शरीरों में जो यह क्षेत्रज्ञ जीवात्मा है वह शुद्ध अविनाशी आत्मा ही है। पांच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दु:ख, राग-द्वेष जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना (जो महसूस कराती है, इसको संवेदना भी कह सकते हैं; आत्मा की इस शरीर में जो सत्ता है उसके परिणामस्वरूप देह की महसूस करने की शक्ति; जैसे जहां अग्नि होती है वहां उसकी गर्मी, उसी प्रकार जहां आत्मा है वहां चैतन्य है। जैसे सूर्य और उसकी आभा है इसी प्रकार आत्मा और आत्मा की सत्ता का प्रभाव यह देह चेतना है। यह सम्पूर्ण शरीर में बाल से लेकर नाखून तक जाग्रत रहती है)। धृति (पंच भूतों की आपस की मित्रता ही धैर्य है)। जैसे जल और मिट्टी का बैर है पर वह इस शरीर में मित्रवत सम्बन्ध बनाते हुए रहते हैं इस प्रकार जल और अग्नि, वायु और अग्नि आदि। जब यह 36 तत्व एक साथ मिल जाते हैं तो क्षेत्र का जन्म होता है।
श्री भगवान सुस्पष्ट करते हैं - यथा प्रकाशयत्येक: कृत्सनं लोकमिमं रवि: क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्सनं प्रकाशयति भारत: जिस प्रकार एक सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित अर्थात ज्ञान और क्रिया शक्ति से युक्त कर देता है।
-ओम