18-Oct-2016 06:09 AM
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स्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस मर्यादा का महाकाव्य है और उसके महानायक हैं श्रीराम। वे मर्यादापुरुषोत्तम हैं और महाकाव्य के समस्त घटनाक्रम में अपने चरित्र एवं आचरण से जिन मर्यादाओं की वे स्थापना करते हैं, वे एक आदर्श मनुष्य और प्रजारंजक शासक की तुलसी की परिकल्पना का ही महाख्यान है। पूरा रामचरित मानस भगवान राम की आम आदमी को सुख पहुंचाने की लीलाओं पर आधारित है। किशोरावस्था से ही वे अपने प्रजारंजक रूप का परिचय देने लगते हैं— जेहि बिधि सुखी होंहिं पुरलोगा/करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा की उनकी यही भावभूमि तो उनके रामराज्य की मर्यादा की स्थापना का प्रस्थान- बिंदु है। और इसमें भी वे अपने गुरुजनों यानी अपने पिता एवं राजगुरु की आयसु मांगि करहिं पुरकाजा की ही मर्यादा की स्थापना करते चलते हैं।
लंकाकांड में रावनु रथी बिरथ रघुबीरा देखकर जब विभीषण अधीर होते हैं, तब राम ने जेहि जय होइ सो स्यंदनु
का वर्णन इस प्रकार किया है-
सौरज धीरज तेहि रथ चाका।
सत्य सील दृढ ध्वजा पताका।।
बल बिबेक दम परहित घोरे।
क्षमा कृपा समता रजु जोरे।।
ईसभजनु सारथी सुजाना।
बिरति धर्म संतोष कृपाना।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा।
बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।
अगम अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।
एहि सम बिजय उपाय न दूजा।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कतहुं रिपु ताकें ।।
वास्तव में राम ने धर्मरथ की इस व्याख्या के माध्यम से उन जीवन-मूल्यों एवं मर्यादाओं को ही परिभाषित किया है, जिनकी स्थापना के लिए वे जीवन पर्यन्त कृतसंकल्प रहे। इन्हीं मर्यादाओं से उन्होंने अपने अवतरण के प्रयोजन को सिद्ध किया।
उनके व्यक्तित्व में ये सभी सात्विक मानुषी वृत्तियाँ अर्थात शौर्य- धीरज- सत्य- शील-बल- विवेक- दम- परहित- क्षमा- कृपा-समता-ईशभजन-विरक्ति-संतोष-दान-बुद्धि-विज्ञान-अगम अचल मन-शम यम नियम-विप्र-गुरु के प्रति पूजा भाव अपनी परम स्थिति में उपस्थित हैं। किशोरावस्था से ही वे पूरी तरह विद्या विनय निपुन गुनसीला हैं। इसी कारण वे सर्वप्रिय हैं। गोस्वामी जी ने उनकी सर्वजनप्रियता का उल्लेख इस प्रकार किया है -
कोसलपुरवासी नर नारि वृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुं राम सुजान।।
उनकी एक राजा के प्रजारंजक धर्म-रक्षक रूप की पहली व्यवहारिक झलक हमें विश्वामित्र मख-प्रसंग में मिलती है। इस प्रसंग के माध्यम से आततायी के दमन एवं आस्तिक-सात्विक भावों के पोषण के उनके अवतारी विरुद की पहली बानगी मिलती है। अहल्या-प्रसंग से उनकी नारी के प्रति उदार एवं आस्तिक दृष्टि का पता चलता है। एक समाज-बहिष्कृत एवं पतिता के रूप में तिरस्कृत स्त्री की मर्यादा का रक्षण, उसकी खोई गरिमा की पुर्नस्थापना का यह अभियान राम के मर्यादापुरुषोत्तम स्वरूप को ही परिभाषित करता है।
राम अनुजों के प्रिय हितैषी अग्रज हैं, मित्रों के सखा हैं, गुरुजनों के अति विनम्र आज्ञापालक शिष्य हैं। जनकपुरी में लक्ष्मण के बिना कहे ही वे उनकी जाइ जनकपुर आइअ देखी की लालसा बिसेखी को जान जाते हैं और गुरु से आज्ञा लेने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेते हैं। और फिर गुरु की अनुज्ञा लेते समय उनकी मर्यादा देखने योग्य है। परम विनीत सकुचि मुस्काई। बोले गुरु अनुसासन पाई हाँ, यही तो है राम की एक विनम्र शिष्य की मर्यादा, जिसका पालन वनवास-काल में ऋषियों से सम्पर्क करते समय भी उनके व्यवहार में हमें बखूबी देखने को मिलता है। विश्वामित्र के प्रति उनके विनयशील व्यवहार की बानगी जनकपुर में बार-बार हमें देखने को मिलती है। देखें उस प्रसंग की कुछ पंक्तियां—
कौतुक देखि चले गुर पाहीं।
जानि बिलंबु त्रास मन माहीं।।
सभय सप्रेम विनीत अति
सकुच सहित दोउ भाइ।
गुरुपद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।
रोज की दिनचर्या में भी इसी गुरु-शिष्य की मर्यादा का समुचित पालन देखने को मिलता है। रात्रि-शयन के समय- बार-बार मुनि अज्ञा दीन्हीं। रघुबर जाइ सयन तब कीन्हीं और प्रात: गुर ते पहलेहि जगतपति जागे राम सुजान।
-ओम