18-Oct-2016 09:19 AM
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इन दिनों देश में तीन तलाक पर रार छिड़ी हुई है। तीन तलाक पर उच्चतम न्यायालय में केंद्र सरकार के प्रस्तुत शपथपत्र और विधि अयोग द्वारा समान नागरिक कानून पर मांगे गए सुझावों को लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड व अन्य मुस्लिम संगठनों ने जैसा तीखा विरोध दिखाया है। साफ है कि बोर्ड व अनेक मुस्लिम संगठन तीन तलाक को गैर कानूनी मानने और निकाह, तलाक आदि मामलों पर एक कानून बनाए जाने के किसी प्रयास को आसानी से स्वीकार नहीं करने वाले।
लेकिन भारत वैसे भी एक सेक्यूलर देश होने के कारण संविधान के तहत चलता है। यहां किसी के धार्मिंक रीति-रिवाजों, उपासना पद्धतियों में सरकारें हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, पर जब संविधान में लैंगिक समानता और मानवीय गरिमा का अधिकार दिया है तो उसका पालन करना भी सरकारों का दायित्व है। तीन तलाक धार्मिंक रीति-रिवाज या उपसाना पद्धतियों का विषय नहीं है। वास्तव में इससे मुस्लिम महिलाओं के इन मौलिक अधिकारों का हनन होता है, इसलिए उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप एवं केंद्र का शपथ पत्र बिल्कुल सही दिया है।
मुसलमानों के तीन तलाक के मुद्दे पर पिछले हफ्ते नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर जो साहसिक कदम उठाया है, वैसी हिम्मत इससे पहले कोई भी सरकार नहीं दिखा पाई। अपने हलफनामें में कानून और न्याय मंत्रालय ने लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक सिद्धांतों को रेखांकित करते हुए कहा- अदालत को इस बुनियादी सवाल पर फैसला करने की जरूरत है कि क्या एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में महिलाओं को सिर्फ धर्म के नाम पर समान दर्जा और गरिमा प्रदान करने से इंकार किया जा सकता है, जो कि भारतीय संविधान में उन्हें दिया गया है। भारत में मुस्लिम समाज सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है। शादी, तलाक जैसे सामाजिक रीति-रिवाजों में यह पर्सनल लॉ मानने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन पर्सनल लॉ से बंधे इन कानूनों और खासकर तीन तलाक, चार शादियां जैसे मुद्दों को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता लंबे समय से सुधार की मांग कर रहे हैं। फिलहाल मुसलमानों में तलाक का जो कानून है उसमें पुरुष को यह हक मिला हुआ है कि वह अपनी पत्नी को एक साथ तीन बार तलाक कह कर छोड़ सकता है।
भारत में शरीयत कानून, 1937 में सुधारों को लेकर शुरू से रोड़े अटकाए जाते रहे हैं। यह काम मुस्लिम समुदाय के रूढि़वादी समूह करते आ रहे हैं जो मस्जिदों और मदरसों पर अपना पूरा कब्जा रखते हैं। मुसलमानों के खैरख्वाह बने ये रूढि़वादी समूह पूरे समुदाय को अल्पसंख्यक होने और इसकी वजह से होने वाली असुरक्षा के नाम पर डराते रहते हैं। मुसलमानों के भीतर असुरक्षा और अल्पसंख्यक होने का मनोवैज्ञानिक भाव इन्हीं समूहों ने भरा है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की ओर से प्रकाशित सीकिंग जस्टिस विदइन फैमिलीÓ में इसकी जमकर आलोचना की गई है। इसमें कहा गया है कि एकतरफा तुरंत तलाक व्यवस्था और पुरुष अंधभक्ति वाले इस कानून ने दर्दभरी कहानियां दी हैं। हजारों गरीब मुस्लिम महिलाएं और उनके बेसहारा बच्चे झोंपडिय़ों में रहने को मजबूर हैं। संगठन ने 4710 महिलाओं पर किए एक सर्वे में पाया कि इनमें 525 औरतें तलाकशुदा थीं। इनमें से 346 औरतों को सिर्फ बोल कर ही तलाक दे दिया गया था। 40 महिलाओं को चि_ी और तीन को ईमेल के के जरिए तलाक दिया गया था। किसी भी दूसरे धर्म के मुकाबले मुसलमानों में तलाक की दर कहीं ज्यादा है। लेकिन मुसलमानों में तलाक का जो मौजूदा लापरवाह तरीका है और बच्चों की परवरिश के लिए कानून की जो चुप्पी है, वह भारत के मुस्लिम समाज की औरतों के लिए किसी खौफनाक सपने से कम नहीं है। महिला कार्यकर्ताओं ने इस बात को सही रूप में सामने रखा है कि मुसलमानों की बदहाली का जो सबसे बड़ा कारण है, वह इसका अमानवीय तलाक कानून ही है, और सच्चर कमेटी ने भी इस बात को अपनी रिपोर्ट में लिखा है।
22 देशों में तीन तलाक की प्रथा हो चुकी है खत्म
कुरान लिखे जाने के बाद कोई बहुत लंबा वक्त नहीं गुजरा होगा जब तमाम इस्लामी विद्वानों ने एक साथ तीन बार तलाक कहने को चलन बना डाला। इससे पूरे इस्लामी समाज में स्त्री के प्रति द्वेष को बढ़ावा मिलने लगा। यह न केवल मध्ययुगीन बल्कि आधुनिक काल के शुरू में भी जमकर पनपा। लेकिन इसमें बदलाव 20 वीं सदी के शुरू में तब आना शुरू हुआ जब तुर्की ने पश्चिमी सभ्यता के नागरिक कानूनों और नियम-कायदों को आत्मसात करना शुरू किया और मिस्र ने तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया। आज की तारीख में पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित करीब 22 देश तीन तलाक की इस प्रथा को खत्म कर चुके हैं। इसके अलावा शिया समुदाय में तीन तलाक प्रथा नहीं है। ईरान इससे पार पा चुका है।
-अक्स ब्यूरो