18-Oct-2016 08:03 AM
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आज के समय में भारत की राजनीति की तीन सबसे कद्दावर नेत्रियों में से दो का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। ममता बनर्जी आज भी आतिशी हैं, लेकिन सोनिया गांधी की ही तरह तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता न सिर्फ बीमार हैं बल्कि उनकी हालत को लेकर बरती जा रही पर्दादारी चिंतनीय भी है। ठीक सोनिया गांधी की बीमारी पर बरती जा रही राजदारी की तरह। यही राजदारियां सवाल पैदा करतीं हैं कि जिन राजनेताओं को जनता वोट देकर यह जिम्मेदारी सौंपती है कि वे देश और राज्यों को चलाएं, उस जनता को एक मजबूत लोकतंत्र में यह जानने का पूरा अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि उसने जिन्हें चुना, या जिन्हें विपक्ष में भेजा, उनका स्वास्थ्य कैसा है? उनमें सत्ता का संचालन करने का सामथ्र्य आखिर अब कितना बचा है?
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपनी रहस्यमयी बीमारी की वजह से एक बार फिर दो महीने तक सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद हाल ही में सार्वजनिक जीवन में वापस लौटी हैं तो दूसरी तरफ पिछले एक साल में कई बार बीमार रहने के बाद जयललिता (मई 2015 में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले जयललिता सात महीने तक पब्लिक स्पेस से दूर रही थीं) पिछले महीने की 22 तारीख से चेन्नई के सबसे अच्छे अस्पताल अपोलो में भर्ती हैं।
सोनिया गांधी की ही तरह 68 वर्षीय जयललिता की भी प्राथमिक जांच का ब्यौरा सार्वजनिक करने के दौरान कहा गया कि उन्हें बुखार और डिहाइड्रेशन था, लेकिन मद्रास उच्च न्यायालय तक के पूछने पर यह सार्वजनिक नहीं हुआ कि आखिर मर्ज क्या है। एक तरफ अस्पताल के बाहर सैकड़ों की तादाद में अम्माÓ के प्रशंसक रोज उनके लिए दुआएं मांग रहे हैं, कई बच्चों के गाल आर-पार छेदे जा रहे हैं, और तमाम नाटकीय घटनाक्रमों के बीच अपोलो अस्पताल तफ्सील से अम्मा की मेडिकल रिपोर्ट जारी कर रहा है - लेकिन उसमें बीमारी का ब्यौरा देने के अलावा बाकी सब कुछ बता रहा है। दूसरी तरफ अन्नाद्रमुक से लेकर कांग्रेस तक के वरिष्ठ नेता लगातार कह रहे हैं कि जयललिता जल्द ही ठीक होने वाली हैं और जयललिता की करीबी मानी जाने वाली द हिंदू की पूर्व एडिटर मालिनी पार्थसारथी भी इसी के आसपास की बात करते ट्वीट कर रही हैं। राहुल गांधी से लेकर वेंकैया नायडू और अमित शाह व अरुण जेटली तक उनसे मिलने अस्पताल जा रहे हैं और बदलते राजनीतिक समीकरणों के बीच उनके जल्द ही स्वस्थ होने की कामना करने वाले ट्वीट दोहरा रहे हैं। यह ठीक वैसी ही पटकथा है, जिसका मंचन सोनिया गांधी की बीमारी के समय सदैव से कांग्रेस और उसके समर्थक करते आए हैं। तमाम सुगबुगाहटों के बीच गांधी परिवार के विश्वासपात्र किसी न किसी तरह उनकी बीमारी पर सीधे तौर पर बात नहीं करने की अय्यारी जानते हैं और राजदारी के इसी कुशल संचालन की वजह से सोनिया गांधी की बीमारी जनता के लिए आधुनिक भारत के सबसे बड़े रहस्यों में से एक बन चुकी है।
नेताओं द्वारा अपनी बीमारी छिपाना वैसे भी कोई नई बात नहीं है। हर मुल्क का इतिहास ऐसे कुछ नेता खुद में रखता है जिनका मर्ज किंवदंती बन जाता है या फिर तमाम कांस्पिरेसी थ्योरीज को जन्म देता रहता है। हिंदुस्तान में भी नेहरू से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिन्होंने अपनी-अपनी बीमारियां छिपाई हैं और इसीलिए राजनीति व फिक्शन को जोडऩे के शौकीन अक्सर उनका उदाहरण देने के बाद यह कहकर कहानी रचना पसंद करते हैं, गर यूं नहीं हुआ होता तो पता है क्या हुआ होता!Ó
दिलचस्प तो यूं भी होता अगर हमारे राजनीतिक विज्ञान की किताबों में एक पोथी इस सवाल के जवाब तलाशने के लिए लिखी जाती, राजनीतिज्ञों द्वारा अपनी बीमारी की पर्दादारी क्या उनके राजनीतिक भविष्य की चिंता है, या फिर सीधे-सीधे इतिहास का अनुसरण?Ó शायद दोनों। तमिल फिल्मों के सबसे मशहूर अभिनेता और जयललिता के गुरु व उनकी पार्टी एआईडीएमके के संस्थापक एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) लगातार तीन बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री चुने गए थे। 1977 से लेकर 1987 तक। तमिलनाडु की मर्दवादी राजनीति में अभिनेत्री जयललिता को लाने वाले व उन्हें शीर्ष पर पहुंचाने वाले यही एमजीआर बतौर मुख्यमंत्री अपने तीसरे कार्यकाल से ठीक पहले 1984 में कई गंभीर बीमारियों की चपेट में आए, लेकिन उनकी मृत्यु तक उनकी पार्टी ने अपने करिश्माई नेता की बेहद बिगड़ती हालत पर चुप्पी साधे रखी। इसी डर के साथ कि कहीं सही जानकारी देने पर उनकी लोकप्रियता कम न हो जाए और जनता अगले चुनावों में उनके गिरते स्वास्थ्य को मद्देनजर रखते हुए विपक्षी पार्टी डीएमके को न चुन ले। 1985 में बतौर मुख्यमंत्री तीसरा कार्यकाल ग्रहण करने के बाद उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा और इलाज के लिए एमजीआर की विदेश यात्राएं लगातार बढ़ती गईं।
मगर विदेश जाते समय अपने विभाग वरिष्ठ मंत्रियों को सौंपने के अलावा (जयललिता की ही तरह) न तो एमजीआर ने जनता से सीधे संवाद किया और न ही तमाम अफवाहों और जनता द्वारा लगातार सवाल करने के बावजूद उनकी पार्टी ने कोई ठोस कदम उठाए। यही कहा जाता रहा कि उनका स्वास्थ्य बेहतर है और वे मुख्यमंत्री पद के दायित्व निभाने में सक्षम हैं। लेकिन मुख्यमंत्री बने रहते हुए तकरीबन तीन साल तक गंभीर रूप से बीमार रहने के बाद 24 दिसम्बर 1987 को फेल हो चुकी किडनी, मधुमेह और हृदयाघात की वजह से एमजीआर का निधन हो गया और इन पूरे तीन सालों के दौरान उनके चेहरे के पीछे खड़े होकर पार्टी के अन्य लोगों ने मुख्यमंत्री पद के कार्यों को अंजाम दिया।
यही इतिहास का अनुसरण है, जिसे जयललिता और उनकी पार्टी एक बार फिर दोहरा रही हैं। इसमें यह डर भी शामिल होगा ही कि बेहद पसंद की जाने वालीं जयललिता के खराब होते स्वास्थ्य की खबर बाहर आने पर पूरे प्रदेश में वैसी ही हिंसा फैल जाएगी जैसी एमजीआर के वक्त तमिलनाडु में फैली थी और कई दिनों तक एक पूरे प्रदेश ने अपने पसंदीदा मुख्यमंत्री के गुजर जाने का शोक हिंसक होकर मनाया था। एमजीआर के निधन के बाद अन्नाद्रमुक उस वक्त 1989 का अगला चुनाव भी हार गई थी और यह इतिहास भी जयललिता की पार्टी को जरूर याद होगा ही। मौजूदा परिदृश्य में यही जयललिता और सोनिया गांधी की बीमारी को लेकर हो रहा है। उनकी बीमारी की पर्दादारी पर ही एआईडीएमके और कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य टिका है। एआईडीएमके तो वैसे भी एक वन वूमन पार्टीÓ है जिसके पास जयललिता के अलावा कभी कोई ऐसा चेहरा नहीं रहा जो पार्टी को और सरकार को संभाल सके। दूसरी तरफ एक बार फिर लडख़ड़ा रही कांग्रेस तथा परिपक्व नहीं हो पा रहे राहुल गांधी के पास भी सोनिया गांधी की गंभीर बीमारी से जुड़ी राजदारी ही उनके अपने राजनीतिक भविष्य का बीमा है। क्योंकि राहुल गांधी अभी पार्टी का मुख्य पद (पार्टी अध्यक्ष) संभालने के लिए तैयार नहीं हैं, सदैव ही की तरह और सोनिया गांधी के अलावा कांग्रेस के पास कोई और पालनहार नहीं है। सदैव ही की तरह।
सत्ता के लिए जिन्ना ने भी छिपाई थी प्राणघातक बीमारी
मोहम्मद अली जिन्ना ने भी पाकिस्तान बनाने की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए ही प्राणघातक ट्यूबरक्लोसिस से पीडि़त होने की बात छिपाई ताकि मुस्लिम लीग के पास वो मजबूत लीडर अंत तक रहे जो कांग्रेस से आजाद पाकिस्तान के लिए लड़ सके। पाकिस्तान का निर्माण होने के साल भर के भीतर इसी बीमारी की वजह से जिन्ना ने दम तोड़ा लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के आड़े गंभीर बीमारी को नहीं आने दिया। पंडित नेहरू ने भी प्रधानमंत्री रहते हुए अपने राजनीतिक भविष्य को उज्ज्वल बनाए रखने के लिए डॉक्टरों की उस सलाह को नजरअंदाज किया जिसमें उनकी गिरती सेहत की वजह से उन्हें तीन से छह महीने तक का आराम करने की सलाह दी गई थी। किसी को नहीं पता कि ऐसा किस बीमारी के सिलसिले में कहा गया लेकिन चीन से हुए 1962 के युद्ध के बाद से ही नेहरू का स्वास्थ्य खराब रहा और इस मार्फत उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित और वायसराय माउंटबेटन के बीच हुई चि_ी-पत्री का भी ब्यौरा आर्काइव में मिलता है।
पन्नीरसेल्वम क्या जयललिता की जगह लेने की राह पर हैं?
तीसरी बार जयललिता के उत्तराधिकारी की हैसियत से तमिलनाडु की कमान संभाल रहे पन्नीरसेल्वम की राजनीतिक जमीन भी खासी मजबूत है। राज्यपाल सी विद्यासागर राव की तरफ से जारी निर्देश के मुताबिक, पन्नीरसेल्वम अब मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता करेंगे। सरकार चलाएंगे और जयललिता की जिम्मेदारी वाले गृह तथा लोकनिर्माण सहित सभी अहम मंत्रालयों का कामकाज भी देखेंगे। पन्नीरसेल्वम वैसे तो राज्य के वित्त मंत्री हैं, लेकिन वे इससे पहले भी दो बार कामचलाऊ इंतजाम के तहत ही बतौर मुख्यमंत्री, जयललिता की सरकार चला चुके हैं। पहली बार 2001 में और दूसरी बार 2014 में। दोनों ही बार जयललिता को अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर कोर्ट के विपरीत फैसलों की वजह से मुख्यमंत्री का पद छोडऩा पड़ा था। हालांकि ओपीएस (पन्नीरसेल्वम को बोचलाल में इसी नाम से जाना जाता है) की इस बार की पदोन्नति कुछ अलग संदेश-संकेत लेकर आई है। जो बताते हैं कि वे अब पार्टी में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके हैं। ये संकेत इसलिए अहम हो जाते हैं क्योंकि कुछ समय पहले तक अटकलें लगाई जा रही थीं कि जयललिता और ओपीएस के बीच मतभेद लगातार बढ़ रहे हैं। साल की शुरुआत से ही इन अटकलों को उस घटनाक्रम से बल मिला था, जब जयललिता की अध्यक्षता में हुई पार्टी की दो अहम बैठकों में ओपीएस को नहीं बुलाया गया। जयललिता की नजदीकी मित्र शशिकला के साथ भी ओपीएस के मतभेदों की खबरें कई महीनों से चल रही हैं। इसके अलावा मई में जब एआईएडीएमके सत्ता में लौटी तो जयललिता ने ओपीएस को वित्त मंत्री तो बनाया मगर लोकनिर्माण विभाग इस बार उन्हें नहीं दिया। जबकि 2011 से 16 तक के कार्यकाल में यह विभाग भी ओपीएस के पास ही हुआ करता था। बहरहाल, अब ओपीएस को मिली अहम जिम्मेदारी के बाद इन तमाम अटकलों पर विराम लग चुका है, ऐसा समझा जा रहा है।
-विशाल गर्ग