18-Oct-2016 07:27 AM
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कांग्रेस भी वाकई विचित्र पार्टी है। कम से कम मध्यप्रदेश में तो ऐसा ही है पार्टी का चेहरा और चरित्र। एक तरफ पार्टी के कर्णधारों ने 2018 के विधानसभा चुनाव में सत्ता का सपना पाल रखा है तो दूसरी तरफ अंदरूनी कलह शिखर पर है। इस हद तक कि भाजपा सरकार की तमाम नाकामियों को ढक ले। वहीं पार्टी के दिग्गज नेताओं को संगठन से कुछ लेना-देना ही नहीं है। जिन नेताओं पर पार्टी का दारोमदार है वे प्रदेश कार्यसमिति की बैठकों में आने से कतरा रहे हैं। जिससे ऐसा लगने लगा है जैसे प्रदेश में कांग्रेस को अगला विधानसभा चुनाव लडऩा ही नहीं है।
दरअसल, मप्र में जब से सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया की सक्रियता बढ़ी है कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की आंखों में वो चुभने लगे हैं। इस कारण इन दोनों नेताओं ने सिंधिया का बायकाट शुरू कर दिया है। बताया जाता है कि अभी हाल ही में आयोजित प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में सिंधिया का आना लगभग तय था। इसी कारण दिग्विजय सिंह और कमलनाथ भी इस बैठक में शामिल नहीं हो सके। जबकि ऐन मौके पर सिंधिया भी नहीं आ सके। पार्टी में गुटबाजी किस स्तर तक है इसका नजारा हाल ही में अंबाह में देखने को मिला जहां सिंधिया की गाड़ी पर काले झंडे फेंके गए। ऊपर से पार्टी के लहार के विधायक गोविंद सिंह ने कटाक्ष कर दिया। नतीजन दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य गुट आमने-सामने आ गए। पिछले दिनों भी गोविंद सिंह ने तंज कसा था। तब सिंधिया मुरैना प्रवास पर थे। गोविंद सिंह ने सिंधिया के वाहन का घेराव करने की खबर की खिल्ली उड़ाई थी। फरमाया था कि घेराव करने वाले कार्यकर्ता को शायद पता नहीं था कि गाड़ी में रियासत के महाराज बैठे हैं। इसके विरोध में मुख्य सचेतक रामनिवास रावत ने न केवल सोनिया गांधी से शिकायत की बल्कि गोविंद को पार्टी से निकालने की मांग भी कर डाली। तुलसी सिलावट, प्रद्युमन सिंह तोमर, गोविंद राजपूत और इमरती देवी ने भी किया इस मांग का समर्थन। गोविंद सिंह भी चुप रहने वाले कहां थे। पलटवार किया कि उन्हें पार्टी से बाहर निकालने की मांग करने वाले चापलूस और छुटभैए नेता हैं।
उधर सिंधिया की कार पर जूता फेंकने की घटना के मद्देनजर युवक कांग्रेस के सूबेदार कुणाल चौधरी ने दीपक शर्मा और सौरव सोलंकी को पार्टी से निलंबित कर दिया। इस बीच पूर्व सांसद सज्जन सिंह वर्मा ने अरुण यादव की जगह कमलनाथ को पार्टी का सूबेदार बनाने की मांग कर डाली। उनका तर्क है कि अकेले कमलनाथ दस शिवराज चौहान के बराबर हैं। यानी कांग्रेस में जितने नेता उतने बोल सुनने को मिल रहे हैं।
सत्ता से बाहर रहने के बाद मध्यप्रदेश में 15 वर्षों बाद 2018 में कांग्रेस में सत्ता वापसी की कोपलें फूटने लगी थी, लेकिन कांग्रेसियों की आपस की कलह उन कोपलों को भी कतरने लगी है सो, कांग्रेस के समर्थन में धीरे-धीरे उठ रहे हाथ अब फिर नीचे झुकने को मजबूर हो चले हैं। कार्यकर्ता बैचेन हैं ओर नेता एक-दूसरे को आपस में पहलवानी दिखा रहे हैं।
दरअसल, जरा सी उम्मीद क्या बंधी कांग्रेसियों में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया। इस समय कांग्रेस के क्षत्रप नेता अपने हाथ में कमान चाह रहे हैं। सो, एक-दूसरे की टांग खिंचाई शुरू हो गई है। मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव को अब अपनी कुर्सी बचाने के लिए दो-दो हाथ करना पड़ रहे हंै। ऐसे में वे अब कब तक भाजपा सरकार के खिलाफ जमीनी संघर्ष कर पाएंंगे। अरुण यादव भले राहुल गांधी को खुश रखने में कामयाब हो गए हों लेकिन वे अब तक कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और सुरेश पचौरी का दिल नहीं जीत पाए हैं। इसी के चलते वे कांग्रेसियों को एक करने में नाकाम माने जा रहे हैं। क्षत्रप नेता और उनके समर्थक उन्हें बतौर प्रदेश अध्यक्ष मानने में अब तक संकोच किए हुए हैं। जबकि पार्टी हाईकमान प्रदेश में सर्वमान्य और सर्वस्वीकृत नेता को कमान देने के पक्ष में हैं। इसमें सबसे बड़ी नाकामी प्रदेश प्रभारी मोहन प्रकाश की भी मानी जा रही है जो अब तक सभी नेताओं को एक साथ बिठाकर सामंजस्य नहीं करा पाए। सो, मोहन के कारण कांग्रेस में प्रकाश की बजाय अंधकार बढ़ रहा है। इसमें मोहन प्रकाश का अहम भी जिम्मेदार माना जा रहा है। इस कारण पार्टी हाईकमान भी अब सबसे पहले मोहन प्रकाश को ही बदलने के मूड़ में आ गया है। इसके बाद भी परिस्थितियां नहीं सुधरी तो और कोई परिवर्तन भी कर सकता है।
अपनों को रास नहीं आ रही सिंधिया की सक्रियता
2018 में सत्ता की वापसी की राह देखकर कांग्रेस को एक बार फिर गुटबाजी का रोग लग गया है। आलम यह है कि पॉवर में आने से पहले ही सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनों के ही निशाने पर आ गए हैं। माना जा रहा है कि सिंधिया की मध्यप्रदेश में बढ़ती सक्रियता उनकी अपनी पार्टी के दिग्विजय सिंह और कमलनाथ समर्थकों को रास नहीं आ रही है। देश प्रभारी मोहन प्रकाश की नेतृत्व क्षमता और भूमिका भी संदिग्ध हो गई है। कांग्रेस की मध्यप्रदेश में दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। मतदाता से लेकर पार्टी कार्यकर्ता भी अच्छी तरह जान चुके हैं कि पार्टी के दिग्गज नेता जिन्होंने सत्ता में रहते खुद को ताकतवर बनाया और जब सत्ता हाथ से चली गई तब उनके संरक्षण में समर्थक एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते तो आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है। प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में भले ही इन दिग्गज नेताओं ने कोई रुचि नहीं ली, लेकिन इस बैठक में उनके समर्थक एक-दूसरे को कोसने में जुट गए जिससे यह माना जा रहा है कि भाजपा की फिर बल्ले-बल्ले होने वाली है।
-भोपाल से अरविंद नारद