गुटबाजी के बावजूद मजबूत भाजपा
01-May-2013 08:57 AM 1234775

छत्तीसगढ़ में परिवर्तन यात्रा की तैयारी में मशगूल भाजपा के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार के प्रदर्शन को लेकर भाजपाई खुद परेशान हंै। कोयले सहित अन्य खनिजों के उत्खनन में छत्तीसगढ़ सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप आम लोगों के जुबान पर हैं। उधर कांकेर बलात्कार कांड सहित कई अन्य ऐसी ही घटनाओं ने सरकार की मुश्किलें रमन सिंह की परिवर्तन यात्रा से पूर्व बढ़ा दी हैं। यह बात सच है कि कांग्रेस की गुटबाजी के चलते रमन सरकार को फिलहाल कोई बड़ा खतरा दिखाई नहीं दे रहा है किन्तु जिस तरह राहुल गांधी ने मध्य प्रदेश में गुटबाजी को ध्वस्त करने का बीड़ा उठाया है यदि उसी तर्ज पर वे छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को संगठित करने में कामयाब रहे तो भाजपा को मुश्किल भी हो सकती है।
कांग्रेस की तरह भाजपा के  सामने एक दिक्कत गुटबाजी और असंतोष भी है। प्रदेश के दिग्गज भाजपाई सरकार के काम काज के तरीकों से बेहद नाराज हंै। यह अलग बात है कि भाजपा में अनुशासन का डंडा भी जबरदस्त है इसलिए विवाद मूर्त रूप नहीं ले पा रहा है। लेकिन भीतर ही भीतर सुलग रहे असंतोष ने कहीं विधानसभा में अपना असर दिखाया तो सत्ता बचा पाना मुश्किल हो जायेगा। दूसरी तरफ तमाम गुटबाजी के बाद भी परिवर्तन यात्रा से  कांग्रेस में नये सिरे से उत्साह तो जगा है लेकिन बड़े नेताओं की गुटबाजी किस हद तक जायेगी यह कहना कठिन है। हालांकि दस साल के वनवास से चिंतित कांग्रेसी चुनाव में गुटबाजी भुलाकर सत्ता वापसी का दावा तो कर रहे है लेकिन यह कितना कारगर होगा कहना कठिन है।
दोनों ही पार्टी इस बात को जानती  है कि छत्तीसगढ़ में सरकार पर वहीं बैठेगा जो बस्तर-सरगुजा फतह करेगा। ऐसे में बस्तर को लेकर दोनों ही पार्टियों की छटपटाहट स्वाभाविक है। आदिवासियों की पिटाई और नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव से भाजपा भी बुरी तरह घिर गई है ऐसे में मैदानी इलाकों में भाजपा अधिकारिक जोर देना तो चाहती है लेकिन किसानों की नाराजगी और हरिजनों की नाराजगी को दूर करना ही होगा। कांग्रेस के लिए विडंबना ही कही जा सकती है कि सत्ता मिलने के पहले ही नेताओं को सत्ता सुख के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी नजर आती है। छग कांग्रेस में बीते 10 साल से यही कुछ चल रहा है। जब से कांग्रेस के हाथ से सत्ता खिसकी है, उसके बाद हालात बन गए हैं कि कांग्रेस के नेताओं में ही जुबानी लड़ाई चलती रहती है। ऐसे में यही कहा जा सकता है कि जो खुद ही लड़ते रहें, उनमें दूसरे को हराने का माद्दा कहां से आएगा?  दूसरे को हराने के लिए पहले गुटबाजी वास्तविक तौर पर भुलानी होगी। केवल बयानों में ही गुटबाजी की बात नकारने से बात नहीं बनने वाली। यही ढर्रा चलता रहा तो तीसरी बार सत्ता हाथÓ से फिर फिसल जाएगी। छग कांग्रेस के नेताओं में जो आपसी द्वंद चल रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। परिवर्तन यात्रा भी इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर पाई है। दो वर्ष पहले रायपुर आकर राहुल गांधी ने भी कांग्रेस नेताओं को गुटबाजी भूलने का पाठ पढ़ाया था और हिदायत भी दी थी कि ऐसा नहीं हुआ तो सत्ता कभी नहीं मिलेगी और आगे भी वनवास कालÓ ही झेलना पड़ेगा। हालाँकि जयपुर के चिंतन शिविर में छग कांग्रेस के कामकाज को सराहा गया था । निश्चित ही बीते कुछ साल की अपेक्षा छग कांग्रेस काफी मजबूत हुई है, कुछ मुद्दों में भाजपा सरकार को घेरने में कामयाब भी रही, किन्तु कांग्रेस के नेताओं में जितने नेता, उतने फाड़Ó की बात नहीं होती तो फिर कांग्रेस और भी अधिक शक्ति के साथ काम कर पाती। छग कांग्रेस की दुर्दशा इसी बात से समझी जा सकती है कि यहां जितने नेता हैं, उनके अपने गुटÓ हैं। हर बड़े नेता के साथ, छोटे नेताओं को उनके अपने गुट के नाम से जाना जाता है। हालांकि, जब भी गुटबाजी का सवाल आता है तो इन्हीं नेताओं की जुबान गुटबाजी को नकार जाती है और कहा जाता है, हम तो सोनिया-राहुलÓ तथा गांधी परिवार के सिपाही हैं। यहां प्रश्न यही है कि जब ऐसी बात है तो बयानों में कांग्रेस के नेताओं के जुबानी तीर से अपनों की टीस बढ़ाने वाली बात क्यों निकलती है? या कहें सभी नेताओं ने अपने तरकश में एक-दूसरे को ढेर करने तीर जोड़ रखे हैं। एक-दूसरे से कोई खुद को कमतर के समझने के मूड में नहीं दिखता। प्रदेश की राजनीति में अजीत जोगी और चरणदास महंत गुट हावी हैं। इसके अलावा कभी महंत गुट के करीबी रहे पटेल का भी अपना गुट हो गया है। कांग्रेस की राह इतनी आसान नहीं है। इन तीनों गुटों की ताजा स्थिति को देखें तो अजीत जोगी का कद पहले से कम हुआ है। पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक कहते हैं, 2003 और 2008 के विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण में जोगी की खूब चली लेकिन पार्टी दोनों चुनाव हार गई। ऐसे में 2013 के चुनावों में उनकी दावेदारी कमजोर होना तय है। इस बार चरणदास महंत को उम्मीद है कि उन्हें आलाकमान की ओर से तरजीह मिलेगी। रहा सवाल पटेल का तो संगठन को मजबूत करने की कोशिश के लिए खुद राहुल गांधी ने एनएसयूआइ के कार्यक्रम में उनकी पीठ थपथपाई। लेकिन कांग्रेस जैसी पार्टी में पीठ थपथपाने और सिर पर मुकुट सजाने में कितना फर्क है, यह बताने की जरूरत नहीं है। अब पार्टी के सामने सवाल यही है कि क्या वह अपना घर संभाल पाएगी? वैसे कांग्रेस को पिछले चुनाव में भाजपा से 1.5 फीसदी ही कम वोट मिले थे। एकजुट कांग्रेस के लिए इस अंतर से पार पाना बहुत कठिन काम नहीं है, लेकिन एकजुट होना इससे ज्यादा कठिन है।
रायपुर से संजय शुक्ला

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^