18-Oct-2016 06:12 AM
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मप्र की राजधानी भोपाल में मध्य भारत के लोगों को सस्ता, सुव्यवस्थित और सुविधायुक्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए जिस एम्स, यानी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को शुरू किया गया है वह स्वयं बीमार है। बताया जाता है कि यह अस्पताल राजनीति के कारण अपनी दिशा और दशा से भटक रहा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि न तो इसका विस्तार हो पा रहा है और न ही यहां अध्ययनरत छात्रों को सुविधाएं मिल पा रही हैं। आलम यह है कि एम्स भोपाल के पहले बैच के स्टूडेंट्स की पढ़ाई पूरी होने जा रही है लेकिन उन्हें प्रैक्टिकल नॉलेज नहीं मिला। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस अस्पताल की व्यवस्था कितनी बदहाल है। इससे छात्र तो नाराज हैं ही साथ ही इसका फायदा उठाकर राजनीति करने वाले अपनी रोटी भी सेंक रहे हैं। जब भी कोई केन्द्रीय मंत्री यहां आता है तो संचालकों द्वारा कागजी सुविधाएं दिखाकर खानापूर्ति कर ली जाती है।
17 सितंबर को जब यहां केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगतप्रकाश नड्डा आए थे। एमआरआई, सीटी स्कैन मशीन और ब्लड बैंक के उद्घाटन के लिए। वे जब आए तो प्रदेश भाजपा कार्यालय में उन पर फूल बरसाए गए। मगर जब एम्स से लौटने लगे तो किसी ने उन पर स्याही फेंक दी। उनके कपड़ों में दाग लग गए और एम्स भोपाल की छवि पर भी।
इस संस्थान की आधारशिला 12 साल आठ महीने पहले, 20 जनवरी 2004 को रखी गई थी। तब उम्मीद यही थी कि इसका मजबूत आधार यकीनन आयुर्विज्ञान यानी कि मेडिकल साइंस ही बनेगा। जबकि ऊपरी शिलाओं के तौर पर वह साफ-सुथरी छवि चमकेगी जो पढऩे-पढ़ाने और इलाज करने-कराने वालों को अपनी तरफ खींचेगी। और संस्थान के प्रति उनकी सोच को बेहतर करेगी। लेकिन यकीन मानिए महज चार साल (सितंबर 2012 से कामकाज शुरू हुआ था) में ही इस संस्थान का आधार और शिलाएं सब हिलती नजर आ रही हैं। इसकी वजह है वह राजनीति विज्ञान या सीधे शब्दों में कहें तो यहां चल रही राजनीति, जिसने संस्थान के आयुर्विज्ञान और उसके प्रति सोच, दोनों की दशा-दिशा बिगाड़ रखी है।
मेडिकल शिक्षा जगत में एम्स भोपाल के प्रति अब सोच किस तरह की हो चली है, इसका दो-चार घटनाओं से अंदाजा लग सकता है। अभी जुलाई-अगस्त का वाकया है। यहां 2016 बैच के लिए पहले दौर की काउंसलिंग हुई थी। सीटें 100 हैं, इनमें से 96 तुरंत भर गईं। लेकिन बताते हैं कि कुछ ही दिन में इनमें से 40 बच्चों ने दूसरे कॉलेजों में प्रवेश ले लिया क्योंकि वे यहां की व्यवस्थाओं और सुविधाओं से संतुष्ट नहीं थे। दूसरे दौर की काउंसलिंग के बाद भी कुछ सीटें अब तक खाली हैं, जिन्हें तीसरे दौर में भरा जाएगा। कोई कह सकता है कि यह कॉलेजों में प्रवेश की आम प्रक्रिया है लेकिन नहीं, एम्स जैसे संस्थान में मैरिट लिस्ट के ऊपरी क्रम वाले बच्चों का आना सामान्य है। जाना कतई नहीं। दिल्ली के एम्स में प्रवेश ले चुका कोई भी बच्चा शायद ही उसे छोड़कर जाता हो। यहां तक कि भोपाल के साथ शुरू होने वाले जोधपुर (राजस्थान) और ऋषिकेश (उत्तराखंड) एम्स में भी बच्चों के रुके रहने की दर 70-80 फीसदी तक बताई जाती है।
इसी तरह भोपाल के एम्स में पढ़ाने वाले भी रुक नहीं पा रहे हैं। जानकारी के मुताबिक, 2014 तक यहां करीब 65-70 वरिष्ठ प्रोफेसर और उनके एसोसिएट, असिस्टेंट आदि थे। अब सिर्फ 45-50 बचे हैं। डॉक्टर डीके सिंह ट्रॉमा के एक वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं। वे 2012 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से यहां आए थे। डॉक्टर सिंह इतने अनुभवी हैं कि इस एम्स के डायरेक्टर बनने के दावेदार भी कहे जाने लगे थे। लेकिन एक साल की मशक्कत के बाद भी वे यहां ट्रॉमा सेंटर शुरू नहीं करा पाए और आखिर थक-हारकर 2013 में वापस बीएचयू चले गए। इसी तरह, 2012 में लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल (केजीएमसीएच) से एक विशेषज्ञ आए, डॉक्टर रविकांत। यहां सर्जरी डिपार्टमेंट के विभाग अध्यक्ष (एचओडी) बनाए गए। इनकी ख्याति इतनी है कि पद्म श्री सम्मान तक मिल चुका है। लेकिन भोपाल एम्स से दो साल में ही इन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा। वे 2014 में वापस केजीएमसीएच चले गए। एम्स के प्रभारी डायरेक्टर डॉ. नितिन नागरकर का कहना है कि स्टूडेंट्स को इंटर्नशिप कराने के लिए अस्पताल में जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं। और ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं मुहैया कराने के प्रयास किए जा रहे हैं।
यही हाल इलाज कराने वालों का है। तीन-चार महीने पहले की ही बात है। एम्स के स्त्री रोग विभाग की एचओडी डॉक्टर रागिनी महरोत्रा के पति को दिल का दौरा पड़ा। उन्होंने पति के इलाज के लिए शहर के नामी निजी अस्पताल में जाना बेहतर समझा। खबर सुर्खी बनी तो दलील दी गई कि एम्स में कार्डियोलॉजी (ह्रदय रोग विज्ञान) विभाग ही नहीं है। मगर अस्थि रोग (ऑर्थोपेडिक) विभाग तो है। इसमें एक प्रोफेसर और दो-तीन सीनियर रेजीडेंट भी हैं। बावजूद इसके, बैडमिंटन खेलते वक्त माइक्रोबायोलॉजी विभाग के डॉक्टर शशांक पूर्वार के पैर की जब हड्डी टूटी, तो वे भी इलाज के लिए शहर के निजी अस्पताल में ही गए। यह वाकया 2015 के आखिरी महीने का है। सोचिए, एम्स के डॉक्टरों का ये हाल है तो मरीजों का क्या होगा। अव्वल तो गंभीर बीमारी या इमरजेंसी वाले मरीज यहां आते नहीं।
भोपाल के एम्स में 45 के करीब विभाग शुरू होने थे। चार साल में अब तक सिर्फ 11 ही शुरू हो पाए हैं। बाकियों का ताला ही नहीं खुल पाया। जो खुले हैं, वे भी ठीक तरह से चल नहीं पा रहे हैं। जैसे सर्जरी विभाग। यह चालू है लेकिन बड़े ऑपरेशन नहीं होते क्योंकि ऑपरेशन थिएटर सात के बजाय चार ही हैं और ब्लड बैंक है ही नहीं। अभी केंद्रीय मंत्री नड्डा ब्लड बैंक शुरू करने की औपचारिकता जरूर पूरी कर गए लेकिन अस्पताल के पास इसका लाइसेंस ही नहीं है। ऐसे में इसका शुरू होना, न होना एक ही जैसा है। स्त्री रोग विभाग 2013 में शुरू हुआ। लेकिन यहां अब तक एक भी डिलिवरी नहीं हुई। मनोचिकित्सा विभाग भी है, मगर नहीं के जैसा। क्योंकि उसमें सिर्फ एक मनोवैज्ञानिक पदस्थ हैं। कोई सर्जन नहीं है। सिर्फ मेडिसिन और ईएनटी (कान, नाक, गला) विभाग ही ऐसे हैं, जहां बेहतर ढंग से काम हो रहा है। यह अस्पताल 150 बिस्तरों का है। जबकि होना चाहिए था 900 का। पढऩे वाले बच्चे 450 के करीब हैं और नर्सिंग स्टूडेंट्स को मिला लें तो यह आंकड़ा करीब 690 तक पहुंच जाता है। लेकिन इन्हें पढ़ाने के लिए लैक्चर थिएटर (एलटी) तीन ही हैं। ये भी कम से कम पांच होने चाहिए थे। इन दो एलटी की कमी यूं पूरी होती है कि जरूरत पडऩे या तो कक्षाओं का टाइम-टेबल अदल-बदल दिया जाता है या फिर किसी और हॉल को कक्षा बना दिया जाता है। लाइब्रेरी और रीडिंग रूम की व्यवस्था अस्थायी तौर पर एक हॉल में है, जहां 20-30 लोग ही बैठकर पढ़ सकते हैं।
ऐसा इसलिए है क्योंकि लाइब्रेरी भवन अभी बन ही नहीं पाया है। यहां सभागार जैसा कोई इंतजाम भी नहीं है। बन जरूर रहा है। जब एक बार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आए तो उस भवन की छत डाल दी गई। जब नड्डा आए तो भीतर की तरफ फर्श पर टाइल्स लगा दिए गए। नेताओं की पीठ फिरी तो काम फिर बंद। यानी मिलीभगत से एम्स भोपाल का सत्यानाश किया जा रहा है।
अस्पताल में ये हैं कमियां
एम्स भोपाल में वैसे तो कमियां ही कमियां हैं। लेकिन सबसे बड़ी कमी यह है कि यहां लेबर रूम नहीं। जिसके कारण छात्र डिलेवरी नहीं सीख पाए। डर्माटोलॉजी, ईएनटी और नेत्र रोग में बेड नहीं। नेत्र रोग में एक भी विशेषज्ञ नहीं। लेक्चर हॉल की कमी। अभी चार लेक्चर हॉल हैं। कम से कम पांच लेक्चर हाल की जरूरत, जिसमें एक हॉल 250 सीटों का हो। फैकल्टी की कमी। पद 305 हैं, लेकिन अभी सिर्फ 57 फैकल्टी हैं। ओपीडी में फैकल्टी के बैठने के चेम्बर नहीं। पढ़ाने और लेक्चर की तैयारी कराने में समस्या। सभी विभाग काम नहीं कर रहे हैं। पैथॉलाजी, माइक्रोबायोलॉजी जैसे विभाग भी आंशिक रूप से कर रहे हैं काम। नर्सिंग स्टाफ पूरा नहीं, नर्सेस एमबीबीएस स्टूडेंट्स को ड्रिप चढ़ाना और टांके लगाना सिखाती हैं। नर्सेस की कमी से स्टूडेंट्स यह नहीं सीख पाए हैं। उपकरणों की कमी। एक्स-रे हाल ही में शुरू हुए हैं। सीटी व एमआरआई अभी भी शुरू नहीं हो पाई हैं। इंटर्नशिप के लिए करीब 500 बिस्तरों का अस्पताल होना चाहिए था,लेकिन अभी केवल 104 बेड का ही हॉस्पिटल है। इसमें भी 64 बेड ही ऐसे हैं, जिन पर स्टूडेंट्स सीख सकते हैं। बाकी बेड गंभीर मरीजों के लिए हैं, जिन पर छात्र सीख नहीं सकते।
बिना प्रैक्टिकल पूरी होगी एमबीबीएस की पढ़ाई
एम्स भोपाल के पहले बैच के स्टूडेंट्स की पढ़ाई 30 अक्टूबर को समाप्त होने जा रही है। लेकिन सुविधाओं के अभाव के चलते पढ़ाई के इन चार सालों के दौरान छात्रों को न तो डिलेवरी कराने का मौका मिला और न ही मरीजों के साथ एक्सपोजर हुआ। यह पहला मौका होगा जब इतने बड़े संस्थान में छात्रों को टांके लगाने और ड्रिप चढ़ाने तक का प्रैक्टिकल नॉलेज नहीं मिला। छात्रों को एम्स के अस्पताल में पर्याप्त सुविधाएं नहीं मिल पाई। कई बार विद्यार्थी प्रैक्टिकल पढ़ाई के लिए कस्तूरबा अस्पताल व सुल्तानिया अस्पताल भी गए। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि थोड़े समय के लिए किसी अस्पताल में जाने से स्टूडेंट्स वह नहीं सीख सकते, जो 24 घंटे अस्पताल में रहकर सीखते हैं। दिसम्बर में परीक्षा के 15 दिन बाद एक साल की इंटर्नशिप शुरू होगी, लेकिन एम्स का अस्पताल इसके लिए भी तैयार नहीं है। ऐसे में छात्र डॉक्टर बन जाएंगे, लेकिन प्रैक्टिकल नॉलेज हासिल नहीं कर पाएंगे।
-विकास दुबे