03-Oct-2016 09:00 AM
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न की प्रकृति हमेशा ही संग्रह करने की होती है। जब यह स्थूल रूप में होता है तो चीजों का संग्रह करना चाहता है, जब यह थोड़ा-सा विकसित होता है तो ज्ञान का संग्रह करना चाहता है। वे सारी बातें जिन्हें आप सोचते और महसूस करते हैं तथा स्वयं के बीच जब एक दूरी बनाने लगते हैं तो इसे ही हम चेतना कहते हैं।
जब इसमें भावना प्रबल होती है तो यह लोगों का संग्रह करना चाहता है, इसकी मूल प्रकृति बस यही है कि यह संग्रह करना चाहता है। मन एक संग्रहकर्ता है, हमेशा कुछ न कुछ एकत्रित करना, बटोरना चाहता है। जब कोई व्यक्ति यह सोचने और विश्वास करने लगता है कि वह आध्यात्मिक मार्ग पर है तो उसका मन तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान का संग्रह करने लगता है। हो सकता है कि यह गुरू के शब्दों का ही संचय करने लगे लेकिन यह जो भी संचित करे, जब तक कोई व्यक्ति संग्रह करने की जरूरत से उपर नहीं उठ जाता, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे वह भोजन हो, कोई चीज हो, सांसारिक ज्ञान हो, लोग हों या आध्यात्मिक ज्ञान हो यह कोई मायने नहीं रखता कि आप क्या इक_ा कर रहे हैं। संग्रह करने की जरूरत का अर्थ है कि अभी भी एक अधूरापन रह गया है। यह अधूरापन, अधूरा होने का भाव, इस असीमित प्राणी में घर कर गया है, इसका एकमात्र कारण यह है कि कहीं न कहीं आप अपनी पहचान उन सीमित चीजों के साथ बना लेते हैं जो कि आप हैं ही नहीं।
अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में पर्याप्त चेतना प्राप्त कर लेता है, और निरंतर किसी साधना का अभ्यास करता है तो उसका यह पात्र धीरे-धीरे पूर्णत: खाली हो जाता है। चेतना पात्र को खाली करती है, साधना पात्र को साफ करती है। जिसे हम साधना कह रहे हैं वह एक अवसर है अपनी ऊर्जा को बढ़ाने का ताकि आप अपनी सीमाओं और सभी खामियों पर नियंत्रण रख सकें जिनके कारण आप अपने विचारों और भावनाओं में उलझ गए हैं।
जब आप इन दोनों पहलुओं का अपने जीवन में पालन करते हैं, जब दीर्घकाल तक चेतना और साधना का पालन एवं अभ्यास करते हैं, तो आपका यह पात्र खाली हो जाता है। जब आपके जीवन में यह खालीपन, रिक्तता, यह शून्यता घटित होती है, केवल तभी आप पर कृपा अवतरित होती है। वास्तव में कृपा के बिना कोई कहीं भी नहीं पहुंचता। अगर आप कृपा का अनुभव करना चाहते हैं, तो आपको रिक्त होना होगा, आपको अपने पात्र को पूरी तरह खाली करना होगा। अगर आप एक गुरु के साथ रह कर केवल उसके शब्दों का संग्रह कर रहे हैं, तो आपका जीवन उस चींटी से ज्यादा निरर्थक है जो शीत ऋतु या वर्षा ऋतु के लिए भोजन का संग्रह करती है।
संग्रह करने की मानसिकता अंदर बैठ गयी है : आपके अन्दर यही मानसिकता घर कर गई है कि जहां भी जाओ वहां उतना संग्रह कर लो जितना कर सकते हो। मूल रूप से आपकी शिक्षा ही इसके लिए दोषी है। शिक्षा ने आपको यह सिखाया कि कैसे ज्यादा से ज्यादा चीजों का संग्रह किया जाए। लेकिन यह संग्रह चाहे आपने कितना भी संचय क्यों न किया हो, मायने नहीं रखता। आपको अधिक से अधिक सुनियोजित तौर-तरीके सिखाया ताकि आप उतना संग्रह कर सकें जितना कि संभव हो। इस संग्रह से
आप अपनी जीविका कमा सकते हैं। इस
संग्रह से संभवत: आप अपने आस-पास के भौतिक जीवन की गुणवत्ता को कुछ हद तक बढ़ा सकते हैं।
आध्यात्मिक ज्ञान के संग्रह की नहीं साधना की जरूरत है : लेकिन यह संग्रह चाहे आपने कितना भी संचय क्यों न किया हो, मायने नहीं रखता। जो कुछ भी आपने अपने मन में एकत्रित कर रखा है, वह चाहे स्थानीय बकवास हो या वैज्ञानिक जानकारी हो या तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान हो, वह आपको मुक्त नहीं कर सकेगा। जहां आप अभी हैं, वहां से एक कदम भी आपकी परम प्रकृति की ओर ले जाने में असक्षम होगा। आपको अपने जीवन में आवश्यक चेतना को लाने के लिए साधना और आंतरिक कार्य की जरूरत होगी। सचमुच इसका कोई विकल्प नहीं है।
खुद को खो देना होगा : अगर आप छलांग लगाना चाहते हैं, रेखा को लांघना चाहते हैं और चेतना को कायम रखने के संघर्ष से बचना चाहते हैं तो आपको निश्छल होना होगा। आपको इतना निश्छल होना होगा कि आप सहजतापूर्वक खुद को पूर्ण रूप से समर्पित कर सकें। यह कोई ऐसा काम नहीं है जिसे आप कर सकें। आपको तो बस यह स्वीकृति देनी है ताकि यह स्वत: घटित हो सके।
समर्पण कोई ऐसा कार्य नहीं है जो आपको करना है, समर्पण वह चीज है जो स्वत: तब होता है जब आप नहीं होते हैं। जब आप अपनी सारी इच्छाओं को खो देते हैं, जब आपकी अपनी कोई इच्छा नहीं रह जाती, जब आप इसके लिए पूर्णत: तैयार हो जाते हैं कि आपके अंदर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे आप अपना कह सकें तब यही वह समय है जब आप पर कृपा अवतरित होगी।
बिना कृपा बहुत प्रतीक्षा करनी होगी
अगर आप कृपा का अनुभव नहीं करते, खुद को कृपा ग्रहण करने योग्य नहीं बनाते, कृपा को धारण करने के लिए खुद को रिक्त नहीं करते तो समझ लीजिए कि आपको कई जन्मों तक आध्यात्मिक पथ पर चलना पड़ेगा। आपके अन्दर यही मानसिकता घर कर गई है कि जहां भी जाओ वहां उतना संग्रह कर लो जितना कर सकते हो। लेकिन अगर आपने कृपा प्राप्त करने के लिए स्वयं को पर्याप्त रूप से रिक्त कर लिया है तो आपकी परम प्रकृति बहुत दूर नहीं है। यहीं पर उसका अनुभव करना है, यहीं पर उसका साक्षात्कार करना है। अस्तित्व के सभी आयामों से पार जाने पर हम परमानन्द अवस्था में प्रवेश करते हैं। यह आने वाले कल या किसी अन्य जन्म की बात नहीं है। यह एक जीवंत वास्तविकता है।
-ओम