03-Oct-2016 11:17 AM
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उत्तर प्रदेश में मुलायम-अखिलेश यादव परिवार के बीच मचे घमासान से लगता है मायावती को मुंहमांगी मुराद मिल गई है, जो पांचवीं बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनना चाहती हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रही मायावती को उम्मीद है कि उन्हें कम से कम 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट जरूर मिलेंगे। समाजवादी पार्टी में विवाद के चलते मायावती को मौका मिल गया है कि वह मुसलमानों के बीच अपनी स्थिति मजबूत दिखा सकें और अपनी पार्टी को भाजपा के सर्वश्रेष्ठ विकल्प के तौर पर प्रस्तुत करें।
मायावती जानती हैं कि यह वोट बैंक कितना महत्वपूर्ण है, 2012 के चुनावों में उन्हें यह अनुभव हो चुका है। गत विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद उन्होंने स्वीकार किया था कि 70 प्रतिशत मुस्लिम वोट सपा को मिलने की वजह से उन्हें नुकसान हुआ है। माया को भरोसा है कि उन्हें 21 प्रतिशत दलित वोट हर हाल में मिलेंगे। साथ ही वे अल्पसंख्यक समुदाय से भी इतने ही प्रतिशत वोटों की उम्मीद कर रही हैं ताकि 2017 के चुनावों में एक अकाट्य फार्मूला तैयार हो सके और उनकी किस्मत बदल सकें। गौरतलब है कि 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में बसपा व सपा दोनों को मात्र 30 फीसदी वोटों से बहुमत हासिल हुआ था।
समाजवादी पार्टी के भीतर जारी उठापटक मुसलमानों के लिए चिंता का विषय है, जो पारंपरिक तौर पर उसके समर्थक रहे हैं, जैसा कि 2012 में देखा गया। बाद में प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ती घटनाओं से मुसलमानों का पार्टी से मोह भंग हो गया और इसका फायदा मायावती को मिलने की संभावना है। वे जमीनी हकीकत से भली-भांति वाकिफ है। इसलिए वे मस्लिमों को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही। मायावती ने इस बार 100 सीटों पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है जबकि 2007 और 2012 के चुनावों में माया ने क्रमश: 61 और 83 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उनकी रैली के स्थल भी इस बात के गवाह हैं कि वे दलितों के साथ ही मुस्लिमों के बीच भी अपनी पैठ बना रही हैं। सहारनपुर में हुई उनकी विशाल रैली से कोई निष्कर्ष निकाला जाय तो मायावती अपने लक्ष्य में सफल होती दिख रही हैं। इस बार पार्टी मुसलमानों के बीच जाति और वर्ग के भेद को भुनाने की कोशिश नहीं कर रही, जबकि यह अक्सर गरीब मुसलमानों के मुद्दे उठाती आई है। गरीब मुसलमानÓ जुमला वर्ग या श्रेणी को दर्शाता है। कांशीराम के गरीब मुसलमानों को बहुजन एकता का हिस्सा मानने के पार्टी के सिद्धांत का भी पालन किया जा रहा है। बहुजन एकता में दलित, पिछड़े मुसलमान और अन्य पिछड़ा वर्ग आते हैं। प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी, इसकी चाबी इन्हीं दोनों जातियों के हाथ में है। यहीं से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती है। कड़ा परिश्रम करने वाली छवि और कानून-व्यवस्था का अच्छा रिकॉर्ड रखने वाली मायावती मुसलमानों को रिझाने में कामयाब हो सकती हैं, जो कि सपा की ओर कुछ सशंकित हो चले है।
चाचा-भतीजे की जंग में बुआ न मार ले हाथ
समाजवादी कुनबा साथ-साथ है। लेकिन कुनबे का हर सदस्य ये जताना भी नहीं भूल रहा कि नेताजी के बाद पार्टी को सींचने में उसी ने सबसे ज्यादा खून-पसीना बहाया है। चाचा (शिवपाल यादव) और भतीजे (अखिलेश यादव) की सियासी रस्साकशी बेशक नेताजी के दखल के बाद दिखने को थम गई लगती है। लेकिन इस रस्सी में जो गांठ आ गई हैं, वो अब शायद ही खुल पाए। पार्टी में अब हर किसी की वफादारी शिवपाल खेमे या अखिलेश खेमे से जोड़ कर देखी जाएगी। कुनबे के मुखिया मुलायम सिंह यादव के सामने ही जिस तरह दोनों खेमों ने शक्ति प्रदर्शन किया उससे नेताजी को भी समझ आ गया होगा कि परिवार को जोड़े रखना उन सियासी लड़ाइयों से कहीं ज्यादा मुश्किल है जो उन्होंने अपने जीवन में विरोधियों से लड़ीं। बहरहाल, चाचा और भतीजे के बीच अपमैनशिप के इस खेल पर अब विरोधी दलों की बारीक नजर रहेगी। अखिलेश ने बेशक कह दिया है कि अब आगे से वे बीएसपी सुप्रीमो मायावती के लिए बुआ शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे। अब अखिलेश बुआ बुलाएं या ना बुलाएं लेकिन मायावती ने चाचा-भतीजे की लड़ाई की आग में घी डालने का काम जरूर कर दिया है। मायावती ने कहा है कि मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश को बचाने के लिए शिवपाल को समाजवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। ताकि 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी की हार पर शिवपाल को बलि का बकरा बनाया जा सके। यानी मायावती मान बैठी हैं कि 2017 विधानसभा चुनाव में उनकी जीत को समाजवादी कुनबे की कलह ने आसान कर दिया है। ऐसे में नेताजी के सामने भी इस यक्ष प्रश्न से निपटना सबसे बड़ी चुनौती है कि कहीं चाचा-भतीजे की लड़ाई का फायदा बुआ ना उठा ले जाए?
-लखनऊ से मधु आलोक निगम