17-Sep-2016 07:48 AM
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त्तरप्रदेश के आगामी चुनाव का अघोषित बिगुल बज गया है। सभी दलों में भगदड़ मची हुई है। सबसे अधिक भगदड़ बसपा में है। लेकिन विसंगति यह देखिए कि इन सबके बावजूद मायावती की रैलियों में उमड़ रही भीड़ उनके विरोधियों की बेचैनी बढ़ा रही है। लेकिन मायावती परेशान नजर आ रही है? आगरा से लेकर इलाहाबाद तक लगातार वो डिफेंसिव नजर आ रही हैं। आखिर ऐसी क्या वजह है कि हमेशा आक्रामक रहने वाली मायावती डिफेंसिव हो गई हैं।
दरअसल जिस दलित मुद्दे को लेकर मायावती राजनीति में सब पर हावी रहती हैं वही उनके हाथ से छिटक गया है। आलम यह है कि अब यह मुद्दा भाजपा ने पकड़ रखा है। शायद यही वजह है कि मायावती पहली बार फूंक-फूंक कर कदम रखने को मजबूर हो रही हैं। मायावती ने इन दिनों संडे को रैलियां कर रही हैं। उनकी हर संडे रैली में खूब भीड़ हो रही है। वैसे मायावती की रैलियों में भीड़ हमेशा से होती रही है। यहां तक कि 2012 में जब विधानसभा चुनाव हार गईं उस दौरान भी मायावती की भीड़ ने उन्हें शायद ही इसका कभी अहसास होने दिया हो। ताज्जुब की बात ये है कि मायावती इन रैलियों में डिफेंसिव नजर आ रही हैं। आगरा से लेकर इलाहाबाद तक की रैलियों में मायावती की बातों पर गौर करें तो एक बात कॉमन दिख रही है, जिससे एक सवाल सहज तौर पर उभर रहा है।
मायावती बार बार तिलक, तराजू और तलवार पर डिस्क्लेमर आखिर क्यों जारी कर रही हैं? मायावती आजकल ये सफाई क्यों दे रही हैं कि अगर बसपा को सवर्णों से परहेज रहता तो समुदाय के लोग पार्टी में ऊंचे पदों पर क्यों रहते? मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की मिसाल और दाद तक दी जाती रही है, लेकिन मायावती इन दिनों इतनी बार सफाई दे रही हैं जितना शायद ही पहले कभी कहा हो। कहीं ये स्वाती सिंह का असर तो नहीं है? दलित वोट बैंक में मायावती की जड़ें गहरी हैं, इसलिए वहां चिंता की कोई बात नहीं। ब्राह्मण वोटों को वो सतीशचंद्र मिश्रा की मदद से साधती रही हैं और जिन टम्र्स और कंडीशन पर मायावती को सवर्ण सपोर्ट मिलता है वो भी मिलता रहेगा, इसमें शायद ही किसी को कोई शक हो। अगर स्वामी प्रसाद मौर्या का बीएसपी छोड़ कर जाना मायावती के लिए कोई खास मायने नहीं रखता तो ब्रजेश पाठक भी इतने अहम नहीं होंगे।
तो क्या तीखे तेवर के लिए विख्यात मायावती के ये नर्म कलेवर ठाकुर वोटों को लेकर है? क्या ठाकुर वोटों को लेकर मायावती इस कदर डर गई हैं? क्या धनंजय सिंह की बीएसपी में वापसी की बड़ी वजह यही है? जिस नेता को मायावती अपने सरकारी आवास पर पुलिस बुलाकर गिरफ्तार करा चुकी हों। जिसे टिकट देने से साफ इंकार कर दिया हो, उस धनंजय सिंह के प्रति मायावती की इस मेहरबानी की असल वजह क्या है? इलाहाबाद में मायावती ने जिस तरह धनंजय के साथ मंच शेयर किया वैसी तो उनसे कभी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। एक दो मामलों को छोड़ दिया जाए तो शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता हो जिस पर मायावती ने दोबारा भरोसा जताया हो।
मायावती का मौजूदा तेवर क्या सिर्फ स्वाती प्रकरण का डैमेज कंट्रोल है? क्या धनंजय सिंह अकेले इसकी भपाई कर पाएंगे, या मायावती कुछ और ऐसे नेताओं की कतार पेश करने वाली हैं? मायावती की संडे रैलियां 9 अक्टूबर तक चलेंगी और इस दौर की आखिरी रैली लखनऊ में है। मायावती के एजेंडे की तस्वीर शायद वहीं साफ हो। लेकिन एक बात तो तय है कि रैलियों में भीड़ जुटने के बाद भी मायावती डरी हुई हैं। अब देखना यह है कि उनका यह डर कब खत्म होता है।
उत्तर प्रदेश में रामÓ को जपने की मजबूरी..
उत्तरप्रदेश की राजनीति में राम या अयोध्या का बहुत महत्व है। जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे जिक्र आ ही जाता है, याद आ ही जाती है। मसला आस्था से जुड़ा है लेकिन उत्तरप्रदेश के रामÓ आस्था से ज्यादा राजनीति के प्रतीक बने हुए हैं। यूं भी, 1992 के पहले और उसके बाद अयोध्या में राम मंदिर आस्था से ज्यादा राजनीतिक कारणों से ही चर्चा में रहा। अब राज्य में फिर से चुनावी माहौल है, यात्राएं चल रही हैं, रैलियां भी हो रहीं है, ऐसे में राम याद न आए, क्या ऐसा संभव है। मत्था टेके जाएंगे, विध्वंस याद दिलाए जाएंगे, आस्थाओं को झकझोरा जाएगा, कौम को आवाज दी जाएगी। अब राहुल प्रदेश में किसान यात्रा कर रहे हैं और इसी क्रम में अयोध्या पहुंचे। बहस शुरू हो गई कि 1992 की घटना के बाद पहली बार कोई गांधी फैमिली से अयोध्या गया। अयोध्या गए तो रामलला के दर्शन के लिए क्यों नहीं गए, हनुमान गढ़ी ही दर्शन कर आगे क्यों बढ़ गए। रामलला याद क्यों नहीं आए।
-लखनऊ से मधु आलोक निगम