03-Oct-2016 11:10 AM
1234818
इस साल एक नहीं बल्कि दो-दो बार अरुणचल प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के बाद अब भाजपा ने अपनी निगाहें पूर्वोत्तर के एक और राज्य मणिपुर पर गड़ा दी हैं। यहां अगले साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव है और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सितम्बर की शुरुआत से ही यहां अपना अभियान शुरू कर दिया है। असम और अरुणाचल की तरह ही मणिपुर को भी कांग्रेस मुक्तÓ करने की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है हिमंता बिस्वा सरमा को, जो खुद कांग्रेस से भाजपा में आए हैं। इसी साल मई में असम के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाने में सर्बानंद सोनोवाल (जो अब राज्य के मुख्यमंत्री हैं) के साथ सरमा की भी असरदार भूमिका थी। इसके बाद अरुणाचल में कांग्रेस सरकार को सत्ता-शक्तिहीनÓ कर देने में भी सरमा प्रमुख भूमिका निभा चुके हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पूर्वोत्तर भारत में अपनी पकड़ बनाने का जो खाका तैयार किया था उसे दशकों बाद अब नरेंद्र मोदी और अमित शाह साकार करने में जुटे हुए हैं। पूर्वोत्तर के राज्य परंपरागत रूप से वैसे तो कांग्रेस के साथ रहे हैं। यहां कांग्रेस का जनाधार भी मजबूत है। लेकिन पहली बार असम में भाजपाई सरकार बनने के बाद अमित शाह को लगने लगा है कि इस क्षेत्र के लोग भाजपा को अब अपेक्षा भरी नजर से देखने लगे हैं। पूर्वोत्तरवासी भाजपा को कांग्रेस का व्यावहारिक और विश्वसनीय विकल्प मान रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने मणिपुर में अपनी सक्रियता अभी से बढ़ा दी है। कांग्रेस मणिपुर में पिछले 15 साल से सत्ता में है। ऐसे में, स्वाभाविक सत्ता विरोधी रुझान का भी उसे सामना करना पड़ सकता है। इस तरह दोहरी परेशानी कांग्रेसियों की पेशानी पर नजर आ रही है। मणिपुर की 60 में से 40 विधानसभा सीटों पर मेती समुदाय निर्णायक भूमिका निभाता है। समर्थन के लिए भाजपा इसी समुदाय से आस लगाए हुए है। यह समुदाय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के हिन्दुत्व के एजेंडे से प्रभावित है। और आरएसएस पिछले कई साल से मणिपुर में सक्रिय है। यह बात अलग है कि भाजपा अब जाकर कहीं पूर्वोत्तर में अपनी जड़ें जमाने की स्थिति में आ पाई है। इन तमाम तथ्यों के मद्देनजर भाजपा आने वाले विधानसभा चुनाव के लिए मजबूत मेती उम्मीदवारों की तलाश में है। बताया जाता है कि इस समुदाय से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस के कई दमदार नेता भाजपा के साथ आने को तैयार बैठे हैं। बस एक बार चुनाव की घोषणा हो जाए।
दूसरी तरफ भाजपा की रणनीति में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार भी मदद कर रही है। केन्द्र सरकार ने नगालैंड के उग्रवादी संगठन- नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन)-आइसाक मुइवा के साथ जिस शांति समझौते पर दस्तखत किए थे, उसे लागू करने की रफ्तार धीमी कर दी गई है। हालांकि इसे लागू करने के तौर-तरीकों पर बातचीत जरूर जारी है। इस समझौते का एक अहम बिन्दु है वृहद् नगालैंड की स्थापना। इसके लिए असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के उन नगा बहुल इलाकों को नगालैंड में शामिल करना होगा। केन्द्र सरकार ने इसी मुद्दे को अब तक छेडऩा जरूरी नहीं समझा है। क्योंकि उसे पता है कि राज्यों की भौगोलिक सीमा में बदलाव की किसी भी कोशिश का तीखा विरोध होगा। इसका मणिपुर जैसे चुनावी राज्यों में भाजपा की संभावना पर उल्टा असर पड़ सकता है।
नगा बहुल इलाकों को मणिपुर से अलग करने की किसी भी कोशिश से वहां की बहुसंख्य मेती आबादी खासी नाराज हो सकती है। यही नहीं, इससे राज्य की शांति-व्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ सकता है। क्योंकि सीमाओं के मसले पर मेती और नगा आबादी पहले ही एक-दूसरे से भिड़ती रही है। लिहाजा, भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार इस संवेदनशील मसले पर फूंक-फूंककर कदम उठा रही है। राज्य में भाजपा मेतियों को खुश करने की कोशिश में है ही, बहुतायत ईसाइयत को मानने वाली नगा आबादी को भी साधने की मशक्कत कर रही है। इसके लिए वह नगा शांति समझौते को भुना रही है। नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) की भी भाजपा मदद ले रही है, जो कि नगालैंड में सत्तासीन है और मणिपुर की नगा आबादी पर भी खासा असर रखता है। कांग्रेस के राज्य स्तर के पदाधिकारी इस बात की पुष्टि करते हैं।
वे बताते हैं, मणिपुर की 20 सीटों पर नगा आबादी का प्रभाव है। यहां नगा उग्रवादी संगठनों का भी अच्छा-खासा असर है। चुनावों के दौरान वे सुनिश्चित करते हैं कि उनकी पसंद के ही उम्मीदवार मैदान में उतरें और जीतें भी। इस लिहाज से भी भाजपा इन इलाकों में फायदे में दिखती है।Ó अरुणाचल प्रदेश में लगातार दो बार भाजपा के हाथों राजनैतिक बाजी हारने से भी मणिपुर के कांग्रेसियों में हताशा नजर आती है। पार्टी के एक नेता कहते हैं, हम कर ही कह सकते हैं? हम भाजपा की विचारधारा के खिलाफ फिर खड़े हो सकते हैं और उसकी हम कोशिश कर रहे हैं।Ó
इस सबके बाद पूर्वोत्तर के मामलों में एक अहम और निर्णायक पहलू होता है, धनबल। इस क्षेत्र के ज्यादातर राज्य अमूमन उस पार्टी के साथ खड़े नजर आते हैं, जो केन्द्र की सत्ता में होती है। क्योंकि उन्हें विकास के लिए विशेष फंड की जरूरत होती है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्वोत्तर के प्रभारी सीपी जोशी कहते हैं, अरुणाचल प्रदेश में जो हुआ, वह इसकी जीती-जागती मिसाल है। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल जुलाई में यहां की कांग्रेस सरकार को बहाल कर दिया था। पार्टी ने प्रेमा खांडू को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन वह लगातार भाजपा नेतृत्व के संपर्क में बने रहे। सिर्फ वे ही नहीं, पार्टी के अन्य बागी विधायक भी जैसे सिर्फ दल-बदल विरोधी कानून से बचने के लिए ही कांग्रेस के पाले में वापस आए थे। अगर वे ऐसा नहीं करते और विश्वासमत के दौरान शीर्ष अदालत के फैसले के बाद बहाल हुई कांग्रेस सरकार के खिलाफ वोट डालते तो उनकी विधायकी खतरे में पड़ सकती थी। लिहाजा, यह सिर्फ वक्त की ही नजाकत थी और इसीलिए जैसे ही स्थितियां अनुकूल हुईं मुख्यमंत्री खांडू सहित कांग्रेस के 44 में 43 विधायक एक साथ पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश में शामिल हो गए। इस पार्टी को भाजपा का समर्थन है और यह पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन (एनईडीए) की सहयोगी है। यह गठबंधन भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपने पांव पसारने के लिए बनाया है।Ó अब यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मंशा को भाजपा अपनी किस रणनीति के तहत पूरी करती है। और अपनी इस रणनीति को अंजाम देने के लिए अमितशाह लगे हुए हैं।
अरुणाचल से सबक लेने की कोशिश
अरुणाचल के राजनैतिक दांव-पेंच में हार जाने के बाद अब कांग्रेस तमाम तरीके से खुद को सांत्वना देने की कोशिश कर रही है। वह इस तथ्य पर बार-बार ध्यान दिला रही है कि प्रेमा खांडू की अगुवाई में कांग्रेस के बागियों ने भाजपा में शामिल होने को प्राथमिकता नहीं दी। वे सभी क्षेत्रीय पार्टी में शामिल हुए। जबकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और पूर्वोत्तर में उसके मुख्य रणनीतिकार हिमंता बिस्वा सरमा ने आखिरी मौके तक कोशिश की कि ये सभी बागी उनकी पार्टी में शामिल हो जाएं। ऐसे में, अरुणाचल के प्रयोग को भाजपा की जीत कैसे माना जा सकता है। यह असल में उनकी हार है।Ó लेकिन जैसा कि पहले ही याद दिलाया जा चुका है, कांग्रेस के ये शब्द सांत्वना ही ज्यादा नजर आते हैं। और कहीं ऐसा न हो कि ऐसे ही सांत्वना के शब्द मणिपुर विधानसभा चुनाव के बाद भी उसकी ओर से सुनने को मिलते रहें।
उम्मीदों को निकाय
चुनाव में लगे पंख
कांग्रेेस मुक्त मणिपुर करने के भाजपा के अभियान को अभी हाल ही में संपन्न नगर निगम चुनाव में जीत मिलने से पंख लग गए हैं। हालांकि 2012 के पिछले विधानसभा चुनाव में इस राज्य में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी। लेकिन पिछले साल हुए उपचुनाव में जरूर उसने दो सीटें जीत लीं। यही नहीं, अभी हाल में ही हुए इम्फाल नगर निगम के चुनाव में तो भाजपा ने कुल 27 में 10 सीटें जीत लीं और यहीं से उसकी उम्मीदों को पंख लगने शुरू हुए। क्योंकि इससे पहले 2011 के नगर निगम चुनाव में उसे सिर्फ एक सीट मिली थी। इस घटनाक्रम पर मणिपुर में सत्तासीन कांग्रेस की भी नजदीकी नजर है। राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा में फिलहाल उसके पास 48 सीटें हैं। लेकिन भाजपा के बढ़ते प्रभाव से कांग्रेस के नेता चिंतित नजर आते हैं। एक वरिष्ठ कांग्रेसी पदाधिकारी मानते भी हैं, भाजपा ने शहरी क्षेत्रों में अपना आधार बढ़ाया है और निश्चित रूप से यह हमारे लिए चिंता की वजह है।Ó और इनकी बात गलत नहीं कही जा सकती क्योंकि भाजपा पूरे इलाके में न सिर्फ हिन्दुत्व का एजेंडा आगे बढ़ा रही है, बल्कि धनबल का भी जमकर इस्तेमाल कर रही है। अरुणाचल में सालभर के भीतर दो-दो बार भाजपा ने जिस तरह का खेल खेला और कांग्रेस वहां तमाशबीन बनी रही, वह इसका ताजा-जीवंत उदाहरण है।
-विशाल गर्ग