03-Oct-2016 11:03 AM
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देश में इस समय चारों तरफ उत्तरप्रदेश में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव चर्चा आम है। जहां राजनीतिक दल यूपी फतह करने की रणनीति बना रहे हैं। वहीं विश्लेषक, मीडिया और आमजन सीटों के गुणा भाग में लगे हुए हैं, लेकिन इसके इतर कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने उत्तरप्रदेश चुनाव के लिए हो रही सभाओं में अपने आपको भावित प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। वे उत्तरप्रदेश में जहां भी जा रहे हैं वहां उत्तरप्रदेश चुनाव की चर्चा करने की बजाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हिसाब मांग रहे हैं।
जिससे यह संकेत मिल रहा है कि वे उत्तरप्रदेश चुनाव की फिक्र न करके 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव की चिंता शुरू कर दी है। इसी कड़ी में अब राहुल गांधी ने एक रिकॉर्ड बना लिया है। अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा पूरी करने के लिए वे अयोध्या भी पहुंच गए। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद अयोध्या पहुंचने वाले नेहरू गांधी परिवार के वो पहले सदस्य बन गये हैं। पूजा के लिए हनुमान गढ़ी मंदिर पहुंचे राहुल गांधी से जुड़ी एक दिलचस्प बात सामने आई है।
राहुल के साथ गये कांग्रेस नेता ने पुजारी से उनके लिए प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद मांगा। हालांकि, राहुल ने चुपचाप पूजा की और चल दिये। मंदिर से निकलने के बाद राहुल गांधी ने मीडिया से दूरी बनाते हुए गाड़ी में बैठकर फैजाबाद रवाना हो गये। क्या राहुल या उनके साथ वालों को शक था कि मीडिया कहीं पूछ न ले- कांग्रेस नेता राहुल के लिये अभी प्रधानमंत्री पद का आशीर्वाद क्यों मांग रहे हैं? क्या यूपी चुनाव के लिए ऐसी कोई जरूरत नहीं है?
आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, मनमोहन वैद्य कहते हैं, मुझे लगता है कि राहुल गांधी की टीम में कुछ माक्र्सवादी शामिल हो गये हैं। वो पूरी तरह माक्र्सवादी लेखकों और प्रोपेगैंडा लेखन में यकीन करते हैं। फिर वैद्य इसकी वजह भी बताते हैं, ...राहुल गांधी हर वक्त किसी दूसरे का लिखा हुआ पढ़ते हैं। इसी वजह से राष्ट्रीय महत्व के मसलों से जुड़े सिद्धांत को लेकर उनका रवैया स्थिर नहीं है। माना जा सकता है कि वैचारिक तौर पर विरोधी होने के कारण वैद्य का राहुल गांधी के बारे में हमेशा यही विचार होगा। लेकिन अगर दुश्मन से भी कुछ सीखने को मिले तो कोई बुराई नहीं। असल में, राहुल गांधी को किसी ऐसे सलाहकार की जरूरत है जो उन्हें ये बातें समझा सके। राहुल और उनके सलाहकारों की हरकतें तो यही बता रही हैं कि उनका यूपी चुनाव में कोई खास इंटरेस्ट नहीं है - बल्कि हर मोड़ पर मोदी-मोदी सुनकर ऐसा लग रहा है जैसे वो 2019 की तैयारी कर रहे हों।
बड़ा सवाल ये भी है कि क्या वो खुद से कर रहे हैं? या, यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उन्हें ऐसा करने की सलाह दे रहे हैं। या, पीके से ऊपर कोई सुपर सलाहकार भी है जो उन्हें लगातार गुजरने जमाने के आइडिया दे रहा है। एक समस्या ये हो सकती है कि जो पुराने कांग्रेसी हैं वो खुद को अपडेट नहीं करते इसलिए उनसे उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। जो नये हैं, जिन्हें अपने कांग्रेसी पिताओं के बाद विरासत मिली है, उन्हें भी राहुल की कामयाबी से ज्यादा अपनी नौकरी प्यारी होगी। देखें तो दोनों मिलकर पार्टी का बेड़ा गर्क ही कर रहे हैं।
अगर मोटे तौर पर भी सोचें तो व्यावहारिक राजनीति और शासन-प्रशासन के गुर सीखने के लिए तो राहुल गांधी को किसी बाहरी एक्सपर्ट की जरूरत नहीं है, सिर्फ सोनिया गांधी की स्मृतियां ही काफी हैं। दस साल तक गठबंधन की सरकार चलाना - और सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखे रहना कोई मामूली बात है क्या। भला इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि राजीव की कामयाबी में सोनिया का भी बड़ा रोल नहीं होगा। अगर राहुल अब भी नाकाम रहते हैं तो इस पर उन्हें किसी से सलाह लेने से ज्यादा आत्ममंथन की जरूरत है। और अगर इससे भी बात नहीं बनती तो राजनीति से इतर और भी जहां है शौक पूरे करने के लिए। जनता की तमाम आर्थिक समस्याओं के बावजूद उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति-धर्म में पूरी तरह बंट चुकी है। वह वर्गीय समस्याओं को भी अस्मिता के आवरण में ही देखना पसंद करती है। ऐसे माहौल में कांग्रेस साठ और सत्तर के दशक के समाजवादी और कम्युनिस्ट मुद्दों के सहारे अपने को 21वीं सदी में अगर पुनर्जीवित कर सकती है तो यह चौंकाने वाली बात होगी। कुछ विश्लेषकों को तो कांग्रेस द्वारा किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा उठाने पर भी आपत्ति है, जो देश की वित्तीय स्थिति के लिए ठीक नहीं है। देश के बैंकों की हालत पहले से ही खराब है और ऊपर से किसानों की कर्ज माफी जहां किसानों को परजीवी बनाएगी, वहीं बैंकों को और तबाह करेगी।
गणित के हिसाब से भी 2019 से पहले 2017 आता है। 2014 में अर्धशतक भी नहीं लगा पाई कांग्रेस के लिए फिलहाल यूपी चुनाव ज्यादा अहम है। हां, अगर उसमें कोई इंटरेस्ट नहीं हो तो बात और है। वरना, अभी मोदी-मोदी से कांग्रेस को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। वैसे तो साक्षी महाराज जैसे नेताओं के बयानों पर अब कम ही अटेंशन मिलता है। राहुल गांधी की क्षमताओं पर निशाना साधते हुए साक्षी ने फिर कहा है कि वो अभी पप्पू हैं और अगर उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए तो भारत अपने आप कांग्रेस मुक्त हो जाएगा। ठीक है मान लेते हैं मोदी सरकार किसान विरोधी है - लेकिन आपके पास क्या है? आप अपना प्रचार कर रहे हैं या मोदी सरकार का। अगर लोगों को आप समझा भी लिये कि मोदी सरकार खराब है तो लोग विकल्प की तलाश करेंगे। अगर नयी तलाश में आप नजर नहीं आए तो दूसरों का रुख करेंगे। इस तरह तो सही में आप खुद ही देश को कांग्रेस मुक्त बना देंगे। कांग्रेस ने 27 साल यूपी बेहाल का नारा जरूर दिया है लेकिन ये बीजेपी के शाइनिंग इंडिया की याद ज्यादा दिला रहा है जिसका जमीनी हकीकत से कोई वास्ता नहीं दिखता। क्या राहुल गांधी यूपी चुनाव में सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी नरेंद्र मोदी को ही मानते हैं? दरअसल यह राहुल में राजनीति के नकारेपन की झलक है।
आखिर कौन दे रहा सलाह
राहुल गांधी के सलाहकार ऐसी हरकत कर रहे हैं जैसे
जाड़े की ठिठुरन के बावजूद कोई स्वेटर की जगह सस्ता कूलर खरीद लाए ये सोच कर कि गर्मियों में तो जरूरत पड़ेगी ही।
राहुल गांधी को ये क्यों नहीं समझा आता कि हर मोड़ पर मोदी-मोदी करके कुछ नहीं मिलने वाला। क्या राहुल को कोई बताने वाला नहीं है कि मोदी-मोदी फिलहाल उन्हें नहीं बल्कि अरविंद केजरीवाल को ज्यादा सूट करता है। कांग्रेस के नेता बताते हैं कि केजरीवाल की सियासी पैदाइश से पहले से राहुल गांधी भी चीजों के बारे में वैसे ही सोचते हैं। तो क्या अब राहुल, केजरीवाल के फैन बन गये हैं कि उनसे सुर में सुर मिलाते हुए मोदी-मोदी करते रहेंगे।
स्वजनों के संघर्ष से कुछ सीखें राहुल
कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं कि राहुल को संभालने के लिए जो विरासत मिली है उसे तो वो अपने मां-बाप के अनुभवों के सहारे ही आगे बढ़ा सकते हैं, बशर्ते वक्त रहते ये बात उन्हें समझ में आ जाये। उन्हें इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के संघर्षों से कुछ सीखना चाहिए। वह कहते हैं कि बेहतर तो ये होता कि राहुल गांधी एक बार फिर लंबी छुट्टी पर चले जाते और इस बार किसी और के बारे में नहीं राजीव गांधी के बारे में ही ठीक से पढ़ लेते। नेहरू और इंदिरा की बात छोड़ भी दें तो राहुल आखिर राजीव जितना भी क्यों नहीं सोच पाते? जिस दूर संचार क्रांति की माला कांग्रेस जपती है, ऐसे और भी कार्यक्रम तो होंगे राजीव के जमाने के जो पूरे नहीं हो पाए। राहुल उन पर भी अमल की कोशिश करते तो बहुत बेहतर होता। इधर-उधर भटकने की बजाए कम से कम एक सोच तो थी। क्या राहुल ऐसा बिलकुल नहीं सोचते या कोई है जो उन्हें सोचने नहीं देता।
-दिल्ली से रेणु आगाल