03-Oct-2016 10:48 AM
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मध्यप्रदेश में कुपोषण ऐसा कलंक बन गया है कि पानी की तरह योजनाओं पर पैसा बहाने के बाद भी कुपोषण का दंश कम नहीं हो रहा है। आलम यह है कि कुपोषण के मामले में विकसित मध्यप्रदेश में बीमारू ओड़ीसा से भी अधिक बदतर स्थिति है। यही नहीं अब कुपोषण से पीडि़त खण्डवा जिले को मध्यप्रदेश का कालाहांडी कहा जाने लगा है। कालाहांडी ओड़ीसा का वह क्षेत्र है जहां जनता सुविधाओं के अभाव में तिल-तिल कर मर रही है।
वैसे वर्तमान समय में प्रदेश के कई जिलों में कुपोषण से बच्चों के मरने की खबरें आ रही हैं। इसकी शुरुआत राज्य के उत्तरी हिस्से श्योपुर और मुरैना से हुई थी। लेकिन अब राज्य के सुदूर दक्षिणी हिस्सों से भी कुपोषण की खबरें सामने आ रही हैं। ताजा मामला मध्यप्रदेश के निमाड़ में पडऩे वाले खंडवा जिले का है, जहां का खालवा क्षेत्र इन दिनों कुपोषण से जूझ रहा है। हालात ये हैं कि गांव में बच्चों की कुल आबादी का आधा हिस्सा कुपोषित है। यहां के आवल्या नागौतार गांव में तो पांच साल से कम उम्र के लगभग 250 बच्चों का वजन 5 किलो से भी कम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर यहां के अधिकतर बच्चे खरे नहीं उतरते। लेकिन विडंबना देखिए कि जिस इलाके में बड़ी तादाद में कुपोषित बच्चे हैं, वहां उनके अभिभावक अस्पतालों में उनका इलाज ना करावकर उन्हें पीपल के पत्ते और लहसुन की माला पहनाकर उनके स्वस्थ होने का इंतजार कर रहे हैं। यहां किसी बच्चे के गले में सूत का नाड़ा डला हुआ है तो किसी ने लोहे का तार गले में डाल रखा है। अस्पताल में इलाज नहीं मिलने के कारण दम तोड़ते बच्चों को बचाने के लिए गांव के लोग अब इन्हीं अन्धविश्वास के सहारे हैं। इन लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच नहीं है।
इस पूरे खालवा क्षेत्र में 86 पंचायते हैं और 167 गांव। दिलचस्प है कि इनके बीच सिर्फ एक एमबीबीएस डॉक्टर है जो खालवा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में पदस्थ है। इसके अलावा इस क्षेत्र में सिर्फ दो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र रौशनी और सेंधवाल में हैं। ये स्वास्थ्य केंद्र सिर्फ एक-एक नर्स के भरोसे हैं। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत समझी जा सकती है। दूसरी तरफ, गांव की बड़ी आबादी के बीमारियों के प्रति जागरूक नहीं है। आदिवासी बहुल इलाका होने के कारण ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं और घरेलू नुस्खों से ही बीमारी को काबू में करने की कोशिश में रहते हैं। हालांकि, लगातार उठ रहे सवालों को देखते हुए अब सरकार भी जागी है और जिलों से निकल कर स्वास्थ्य विभाग की टीमें अब उन गांवों तक पहुंच रही है, जहां कुपोषित बच्चे मिल रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग की टीमें ना केवल लोगों को जागरूक कर रही हैं, बल्कि कुपोषित बच्चों को अस्पताल पहुंचाने का काम भी कर रही है।
मप्र में तो कुपोषण ऐसा अभिशाप बन गया है कि सालाना करीब 1,400 करोड़ रूपए खर्च किए जाने के बाद भी वह सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है। आलम यह है कि तू डाल-डाल और मैं पात-पात की तर्ज पर मप्र में कुपोषण बढ़ रहा है। मप्र में कुपोषण रोकने के लिए जितनी योजनाएं और फंड है उतना किसी अन्य राज्य में नहीं है। इसके बावजुद तीन साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चों की तादाद पूरे देश में जहां 40.4 फीसदी है तो मध्य प्रदेश में 57.9 फीसदी। जो इस बात का प्रतीक है कि सरकार ने कुपोषण को रोकने के लिए जितनी योजनाएं संचालित कर रखी हैं उनमें जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है। क्योंकि जिन जिलों में सर्वाधिक भ्रष्टाचार और शोषण हुआ हैं वहां सबसे अधिक कुपोषण के मामले आ रहे हैं। उल्लेखनीय है कि एमडीजी (सहस्राब्दि विकास लक्ष्य या एमडीजी) की रिपोर्ट्स में ये तथ्य सामने आए हैं कि मप्र किस तरह योजनाओं का बंटाढ़ार कर कुपोषण और गरीबी को बढ़ावा दिया जा रहा है। उधर, यूनीसेफ के साथ मिलकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी ने एक रिपोर्ट तैयार की है। जिसके मुताबिक, मानव विकास के अधिकांश सूचकांकों पर मध्यप्रदेश का प्रदर्शन बेहद खराब है। बच्चों को जन्म देते वक्त महिलाओं की मौत के मामले में मध्यप्रदेश देश का पांचवां सबसे खराब राज्य है। यहां हर एक लाख गर्भवती महिलाओं में से 221 को प्रसव के वक्त जान से हाथ धोना पड़ता है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा 167 है। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकारी योजना क्यों फेल हो रही हैं।
किराए पर चल रहे आंगनवाड़ी केंद्र
मध्यप्रदेश में हाल ही में पोषण आहार में भारी भ्रष्टाचार सामने आया है। ये पोषण आहार प्रदेश की 13 हजार से अधिक आंगनवाड़ी केंद्रों में बांटा गया। पर, इससे भी बड़ा मामला अब सामने आया है। मध्यप्रदेश में चल रहे इन 13 हजार आंगनवाडिय़ों में से करीब 45 फीसदी किराए की इमारतों में चल रही हैं। कई इमारतों का किराया उसकी निर्माण लागत से भी ज्यादा है। अनूपपुर, शहडोल व उमरिया जिले में ही नजर डालें तो यहां 3377 में से 533 आंगनबाड़ी किराए के भवन में हैं। वहीं 406 केंद्र दूसरे विभागों की इमारतों में चल रहे हैं, जिनका किराया दिया जाता है। महज 2438 ही खुद के भवनों में हैं। 90 प्रतिशत केंद्रों के लिए बरसों पहले मंजूरी के बाद भी भवन नहीं बने। आंगनवाड़ी के लिए किराए के भवन मिलना भी आसान नहीं रहता है। वजह तय मानक के हिसाब से किराया औसत आठ सौ से तीन हजार रुपए तक हर माह दिया जाता है। इसलिए शहरों में भवन मिलना आसान नहीं है। 625 वर्गफीट जगह अनिवार्य नियम का पालन नहीं हो रहा। ऐसे में छोटी जगहों पर भी आंगनवाड़ी केंद्र चल रहे हैं।
-धर्मेन्द्र सिंह कथूरिया