04-Feb-2013 07:41 AM
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दिल्ली दुष्कर्म मामले में क्रूरता की सारी सीमाओं को लांघने वाले अवयस्क आरोपी को महज इस आधार पर जून माह में जेल से और सभी आरोपों से मुक्ति मिल सकती है कि वह अपराध करते समय नाबालिग था। नाबालिग की इस परिभाषा ने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है। 17 वर्ष छह माह के करीब पहुंचे इस वहशी नवयुवक ने उस लड़की के साथ जो दरिंदगी की थी उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। लड़की को बुरी तरह घायल करने के साथ-साथ इस नाबालिग अपराधीÓ ने दो बार बलात्कार किया और लड़की को सड़क पर फेंकने के बाद उसे कुचल डालने का सुझाव भी इसी का था। जिस युवक में सबूत मिटाने और पीडि़त को पूरी तरह नष्ट करने की समझ हो उसे नाबालिग नहीं माना जा सकता, लेकिन स्कूल सर्टीफिकेट के आधार पर जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने उसे नाबालिग करार दिया है और अब उसकी उम्र के सही निर्धारण के लिए उसका बोन टेस्ट भी नहीं होगा। क्योंकि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 15जी के अनुसार किसी अवयस्क को अधिकतम तीन वर्ष तक बाल सुधार ग्रह में रखा जा सकता है। उसके बाद प्रोबेशन पर छोड़ा जाएगा। जबकि इसी कानून की धारा 16 के मुताबिक अब अपराधी को 18 वर्ष की उम्र के बाद बाल सुधार गृह से भी मुक्ति दी जा सकती है और उसे इसके बाद जेल भी नहीं भेजा जा सकता। यानी यह आरोपी जिसने जघन्य अपराध को अंजाम दिया वह 4 जून के बाद कानून का फायदा उठाकर छूट सकता है।
यहां प्रश्न यह नहीं है कि अपराधी को मुक्ति मिल जाएगी। सजा का उद्देश्य है अपराधी को इस बात का आभास कराना कि जो कुछ उसने किया है वह समाज के मान्य सिद्धांतों के विपरीत होने के साथ-साथ पाश्विक भी है। प्रश्न यह है कि क्या इस अपराधी को 4 जून तक यह इल्म हो सकेगा कि जो कुछ उसने किया वह गलत था। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। इसी कारण इस कानून पर बहस शुरू हो चुकी है। इस कानून के विरोधियों का कहना है कि किसी भी अपराध के बाद अपराधी को उसकी उम्र के अनुसार सजा अवश्य दी जानी चाहिए यदि वह नाबालिग है तो सजा में छूट दी जा सकती है किंतु यह छूट ऐसी नहीं होनी चाहिए कि उसे अपने किए पर कोई पश्चाताप ही न हो और कानून का भय समाप्त हो जाए। चिंता की बात यह भी है कि ऐसे कानूनों का फायदा उठाकर देश में जघन्य अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है। अपराध ब्यूरो के आंकड़ों का ध्यान करें तो पता चलता है कि भारत में नाबालिगों द्वारा दुष्कर्म करने और जघन्य अपराध करने की घटनाएं 170 प्रतिशत तक बढ़ गई हैं। नाबालिगों में अपराध का यह प्रतिशत कानूनी ढील और मामूली सजा के कारण बढ़ा है। दूसरी तरफ अपराधी मनोवृत्ति के मास्टर माइंड लोग नाबालिगों का उपयोग तस्करी से लेकर आतंकवादी घटनाओं में भी बेखौफ कर रहे हैं क्योंकि उन्हें यह ज्ञात है कि नाबालिगों से संबंधित कानून का फायदा उठाकर बचना संभव है।
दिल्ली दुष्कर्म मामले के इस सबसे बर्बर आरोपी की जन्मतिथि स्कूल सर्टीफिकेट में 4 जून 1995 दर्ज की गई है। अपराध के वक्त (16 दिसंबर 2012) उसकी उम्र 17 साल छह माह 12 दिन थी। यानी वह वयस्क होने से मात्र छह माह दूर था। क्या केवल इस आधार पर उसे सजा में छूट मिल सकती है? मौजूदा कानूनों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि इस अपराधी को भारत के कानून के तहत सजा नहीं दी जा सकती। उसे कुछ माह ही सुधारगृह में गुजारने होंगे। यही कारण है कि अब सरकार पर यह दबाव बनाया जा रहा है कि वह नाबालिग उम्र को घटाकर 16 वर्ष कर दे। जिस तरह का माहौल वर्तमान में है उसके चलते बच्चों की समझदारी की उम्र घट गई है। अब वे पहले की अपेक्षा अधिक समझदार हैं और अपना भला-बुरा कम उम्र में ही समझने लगते हैं। बल्कि कुछ पेशों में 18 वर्ष की उम्र तक बच्चों की नौकरी भी लग जाती है। सेना से लेकर बहुत से अन्य क्षेत्र ऐसे हंै जहां कम उम्र से ही नौकरी प्रशिक्षण इत्यादि जिम्मेदारी का काम दे दिया जाता है। ऐसे हालात में 16 वर्ष से अधिक उम्र के युवक को नासमझ नहीं कहा जा सकता। बल्कि खेल सहित कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां इस उम्र के युवकों के ऊपर भारी जिम्मेदारियां हैं। ऐसे में खूंखार अपराधियों को रियायत भला कैसे दी जा सकती है। यह सवाल बार-बार पूछा जा रहा है। दूसरी तरफ राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो का भी आंकलन है कि सजा में छूट से बाल अपराधियों के सुधरने का कोई ताल्लुक नहीं हैं, बल्कि पिछले एक दशक में बाल अपराधियों द्वारा किए जा रहे अपराधों में बहुत तेजी आई है। माता-पिता भी अपने बच्चों की कारगुजारियों से मुंह मोड़ लेते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि अपराधी यदि नाबालिग है तो उसे मामूली सजा ही मिलेगी। इसी कारण नाबालिग अपराधियों का हौसला दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है और ऐसे कई प्रकरण है जिनमें उन्होंने पेशेवर अपराधियों की तरह अपराध को अंजाम दिया तथा निडर होकर हत्या से लेकर कई घृणित अपराध किए। इसी कारण नाबालिग संबंधी कानूनों का विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि जघन्य अपराधों में रियायत दिए बगैर यह मामला अदालतों पर छोड़ा जाए तो बेहतर होगा।
ऋतेन्द्र माथुर