17-Sep-2016 07:05 AM
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कुपोषण मामले में देश में मप्र और प्रदेश में श्योपुर भले ही दूसरे स्थान पर हो। लेकिन हकीकत यहां कुपोषण के हालात इन कागजी आंकड़ों से भी ज्यादा भयावह होने की ओर इशारा कर रही है। जमीनी धरातल की यही स्थिति गोलीपुरा और कराहल विकास खण्ड क्षेत्र में कुपोषण सहित दूसरी वजहों से हुई मौतों ने उजागर क्या की, अधिकारियों के पैरों तले से जमीन ही खिसकती हुई दिखी। प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री रुस्तम सिंह ने भी श्योपुर के कुपोषण वाले गांवों का दौरा कर जायजा लिया है और कहा है कि व्यवस्था में कहीं न कहीं खोट है।
ज्ञातव्य है कि श्योपुर सहित प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में भी कुपोषण की खबर आने पर अधिकारी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। आंकड़ों के जरिए कुपोषण की स्थिति को कमतर दिखाने में जुटे अफसर पहले तो इन स्थितियों को नकारते रहे, लेकिन जब हकीकत बनकर कुपोषित अफसरों के आगे आकर खड़े हुए तो फिर कुपोषण के यह हाल अफसरों को भी स्वीकारने पड़े। इसी का परिणाम रहा कि जहां श्योपुर जिले की एनआरसी क्षमता से दुगने बच्चों के साथ फुल हो गईं। वहीं कुपोषितों को ढूंढकर उपचार को लाने के लिए आधा दर्जन करीब टीमें कराहल विकासखण्ड क्षेत्र में उतारी हुई हैं। यही नहीं स्वयं कलेक्टर पीएल सोलंकी भी जिला महिला बाल विकास विभाग के जिलाधिकारी और स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों के साथ कराहल क्षेत्र के कलमी, ककरधा, खोरी आदि गांव का भ्रमण करके स्थितियों को देखा और मौतों के संबंध में जानकारी की। यहां उन्होंने ग्रामीणों को भी कुपोषण को लेकर समझाइश दी, साथ ही कुपोषितों को एनआरसी पहुंचाए जाने के निर्देश दिए। कुपोषण की स्थिति सामने आने के बाद महिला बाल विकास विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर ने भी रविवार को कराहल क्षेत्र के हालात देखे।
प्रदेश के लिए कुपोषण अभिशाप बन गया है। इस अभिशाप से मुक्ति के लिए पिछले 12 साल से सरकार पानी की तरह पैसा बहा रही है। लेकिन कुपोषण दूर होना तो बाद की बात है कम भी नहीं हो पा रहा है। आखिर कुपोषण दूर हो भी तो कैसे? जरूरतमंदों तक सरकार की सुविधाएं पहुंच ही नहीं रही हैं। इसे बदकिस्मती नहीं कहेंगे, ये साजिश ही तो होगी कि एक ओर सरकार प्रदेश को सबसे विकसित राज्य होने का दावा कर रही है वहीं इसी प्रदेश के नौनिहालों की एक बड़ी आबादी आसन्न मृत्यु से जूझ रही है। हद तो यह देखिए की हर साल कुपोषण की चपेट में आकर हजारों बच्चों की मौत होने के बाद भी सरकार इसके लिए जिम्मेदार को चिन्हित नहीं कर पाई है। जबकि पोषण आहार में भ्रष्टाचार करने वालों की हकीकत सामने आ गई है। आलम यह है कि श्योपुर में
कुपोषित बच्चों की मौत का मामला देशभर में सुर्खियों में है।
प्रदेश में कुपोषित बच्चों को पोषण आहार उपलब्ध कराने और मासूम नौनिहालों को उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तकनीकी तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केंद्रों की देहरी पर बच्चे दम तोड़ रहे हैं। कुपोषण और उसके प्रभाव से शरीर में अनायास पैदा हो जाने वाली बीमारियों से प्रदेश में औसतन 58 बच्चे रोजाना प्राण गंवा रहे हैं। कुपोषण की सहायक बीमारियों में निमोनिया, हैजा, बुखार, खसरा, तपेदिक, डायरिया, रक्त अल्पता और चेचक शामिल हैं। ये हालात पिछले पांच साल से बद से बदतर होते जा रहे हैं। यह वह समय था जब सरकार ने पोषण आहार की सप्लाई की जिम्मेदारी बड़ी कंपनियों का दी गई थी। दरअसल, सरकारी योजनाओं का लाभ आमजन तक नहीं पहुंच पा रहा है। इस कारण कुपोषण मौत बनकर टूट रहा है।
आदिवासी बहुल जिलों में हालत सबसे अधिक खराब
कुपोषित बच्चों की ज्यादा संख्या उन जिलों में है, जो आदिवासी बहुल हैं और जो आसानी से कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। आधुनिकता व शहरीकरण का दबाव, बड़े बांध और वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों के संरक्षण की दृष्टि से बड़ी संख्या में विस्थापन का दंश झेल रही ये जनजातियां कुपोषण व भूख की गिरफ्त में हैं। सरकार अकसर हकीकत पर पर्दा डालने की दृष्टि से बहाना बनाती है कि ये मौतें कुपोषण से नहीं बल्कि खसरा, डायरिया अथवा तपेदिक से हुई हैं। यहां पांच साल से कम उम्र के 60 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं। जबकि ऐसे बच्चों का राष्ट्रीय औसत 42.5 फीसदी है। प्रदेश के अनुसूचित जाति के बच्चों का तो और भी बुरा हाल है। ऐसे 71 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं, जबकि ऐसे बच्चों का राष्ट्रीय औसत 54.5 प्रतिशत है। प्रदेश के शहरी इलाकों में ऐसे बच्चों की संख्या 51.3 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 62.7 प्रतिशत है। कुपोषण और कुपोषण जन्य बीमारियां अल्पपोषण से ही शिशु-शरीर में उपजती हैं। राज्य में आज भी करीब 4,225 आदिवासी बस्तियों में लोग समेकित बाल विकास योजना के लाभ से वंचित हैं।
-विकास दुबे