17-Sep-2016 06:46 AM
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6 दशक की बदहाली, तंगहाली, गरीबी और बीमारू राज्य के बाद मध्यप्रदेश पिछले एक दशक से इन समस्याओं से बाहर निकलकर विकास की छलांग लगा रहा है। यहां की साढ़े सात करोड़ जनसंख्या मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के शासन में चैन की बंसी बजा रही है। लेकिन प्रदेश में कुछ ऐसे राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक तत्व हैं जो प्रदेश की खुशहाली पसंद नहीं कर पा रहे हैं। और ऐसे ही लोगों का एक कुनबा मध्यप्रदेश के सुशासन के रंग में भंग डालने के लिए विभीषण की भूमिका निभा रहा है। आखिर यह विभीषण कौन है? नौकरशाही, सरकार के मंत्री, भाजपा के विधायक या भाजपा के असंतुष्ट नेता या फिर वर्षों से मुख्यमंत्री की कुर्सी की लालसा पाले नेता। यह तो शिवराज सरकार, भाजपा संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए खोज का विषय है। लेकिन पिछले कुछ माह से मध्यप्रदेश की राजनीतिक और प्रशासनिक वीथिका में जिस तरह के बगावती तेवर देखने को मिल रहे हैं उससे तो एक बात साफ दिख रही है कि शिव का राज अब बहुतों को रास नहीं आ रहा है।
प्रथम दृष्टया सबकी निगाह अफसरशाही पर जा टिकती है। क्योंकि अफसरशाही किसी एक नेतृत्व से बंधकर रहने की आदी नहीं है। नौकरशाही सवालों के घेरे में इसलिए भी है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बार-बार की हिदायत के बाद भी वह पटरी पर नहीं आ सकी है। मप्र को बीमारू से विकसित राज्य बनाने के लिए मुख्यमंत्री ने कई स्तरों पर अफसरशाही की जमावट पर कार्य किया। फिर भी आज हकीकत यह है कि सरकार की घोषणाओं का 30 फीसदी काम अभी भी अधर में लटका हुआ है। जो काम हो रहा है या पूरा हो गया है उसमें भी खोट है। इसको लेकर जनता में आक्रोश है इसकी शिकायतें लगातार सरकार के पास पहुंच रही हैं। यही कारण है कि मुख्यमंत्री जब भी विभागों की समीक्षा करते हैं वे आग बबूला हो उठते हैं। उन्हें विवश होकर कहना पड़ता है कि मैं जो कहूं उसका पालन होना चाहिए। लेकिन हर बार मुख्यमंत्री के कहे का भी पालन नहीं होता है। शिवराज के सख्त तेवर और कड़ी फटकार के बावजूद अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों की हठधर्मिता ने भी यह सोचने को मजबूर किया है कि ढर्रा बिगड़ा और सुधार की आवश्यकता महसूस हुई यानि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।
मध्यप्रदेश के सरकारी सिस्टम में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी खासे नाराज हैं। इसलिए उन्होंने पहले 6 सितम्बर और फिर 13 सितम्बर को अफसरों की जमकर क्लास ली। 6 सितम्बर को अफसरों-मंत्रियों की क्लास लगाते हुए उन्हें हर हाल में इस भ्रष्टाचार को खत्म करने के सख्त निर्देश दिए। साथ ही कहा कि जो घोषणाएं सरकार ने की हैं, उन्हें हर कीमत पर पूरा किया जाए। साथ ही उन्होंने कई विभागों के अफसरों की कार्यप्रणाली पर सवाल भी उठाए। उन्होंने अफसरों से साफ-साफ शब्दों में कह दिया है कि विभागों से चर्चा के बाद ही घोषणाएं हुई हैं तो आनाकानी का सवाल ही नहीं उठता। मुख्य सचिव को निर्देश दिए कि वे एक-एक घोषणाओं का रिव्यू करें। सीएम ने कहा कि वे भी योजनाओं का रिव्यू करेंगे।
विभागवार चर्चा के दौरान अफसरशाही का अडिय़लपन और मनमर्जी सामने आई। इस पर सीएम ने नाराजगी व्यक्त करते हुए कड़े शब्दों में कहा कि अब मनमर्जी नहीं चलेगी। मुख्यमंत्री ने कहा कि अधिकारी-मंत्री सरकार की छवि सुधारने के लिए काम करें, बिगाडऩे के लिए नहीं। चर्चा के दौरान यह बात भी देखने को मिली कि विभागीय कमियों की जानकारी मंत्री और अधिकारियों को नहीं थी। लेकिन मुख्यमंत्री को सबकुछ पता था। इसका साफ संकेत यह है कि मंत्री और अधिकारी न तो अपने विभाग और न ही विभागीय योजनाओं के प्रति संवेदनशील हैं।
पिछले 8 सालों से प्रदेश में यही मंजर देखने को मिल रहा है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अधिकारियों को योजनाओं के क्रियान्वयन, उनकी मॉनीटरिंग और उन्हें सफल करने की हिदायत अधिकारियों को देते रहे हैं, लेकिन अधिकारी अपनी मनमर्जी से काम कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी इतनी निरंकुश हो गई है कि वह मुख्यमंत्री को छोड़कर और किसी की परवाह नहीं करती है। यही कारण है कि कई मंत्रियों और उनके विभागीय अधिकारियों में पटरी नहीं बैठती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नजर में नौकरशाह ही मध्यप्रदेश की साढ़े सात करोड़ की आबादी के लिए विभीषण का काम कर रहे हैं। यानी नौकरशाही के नकारेपन के कारण सरकार और जनता के बीच खाई बढ़ रही है। यही कारण है कि अगस्त महीने में संघ की समन्वय बैठक में संघ के पदाधिकारियों ने मध्यप्रदेश की नौकरशाही के चाल-चेहरा और चरित्र पर सवाल खड़े किए थे। इसके बाद प्रदेश में यह सिलसिला चल पड़ा है कि हर कोई नौकरशाही को ही निशाना बना रहा है। लेकिन उनका टारगेट शिवराज सिंह चौहान होते हैं।
सबसे अच्छी बात यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बिना किसी द्वेषभाव के अफसरों को सचेत करते रहे हैं। लेकिन न जाने इस प्रदेश की अफसरशाही और कारिंदों को क्या हो गया है कि वे अपने कार्य को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। जबकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जितनी चिंता इस प्रदेश की जनता की करते हैं उतनी ही अधिकारियों और कर्मचारियों की। प्रदेश में अधिकारियों-कर्मचारियों को लगातार वेतन वृद्धि और भत्ते में बढ़ोतरी की जा रही है। इस बार दीपावली पर सरकार सातवां वेतनमान लागू करने की तैयारी में है। फिर भी न जाने क्यों अधिकारी-कर्मचारी सरकार के साथ सहभागिता निभा पा रहे हैं।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मंत्री, भाजपा नेता और आमजन अफसरशाही पर नाफरमानी का आरोप लगा रहे हैं तो इसमें कहीं न कहीं कोई तो बात होगी। जानकारों का कहना है कि दरअसल अफसर और कर्मचारी चाहते हैं कि हर बार सरकार और उसका स्वरूप बदलता रहे। इसलिए वे किसी भी सरकार के प्रति वफादार नहीं होते हैं। भाजपा के एक पदाधिकारी तो कहते हैं कि इस सरकार में अधिकतर वही अधिकारी दमदार हैं जो दिग्विजय सिंह के शासनकाल में थे। ऐसे में इन अधिकारियों पर दिग्विजय सिंह का अधिक प्रभाव है। इसलिए ये शिवराज सिंह चौहान की सरकार के फ्रेम में नहीं उतर पा रहे हैं।
शिवराज की सदाशयता
पड़ रही भारी
सभी जानते हैं कि शिवराज सिंह चौहान संवेदनशील व्यक्ति हैं। वह जानते हैं कि गलती आदमी से होती है। इसलिए वे हर अधिकारी-कर्मचारी को सुधरने का मौका देते रहते हैं। उनकी यही सदाशयता उन पर भारी पडऩे लगी है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि इसे शिवराज की कमजोरी मानकर अफसर निरंकुश होते जा रहे हैं। हालांकि शिवराज यदाकदा अधिकारियों को सस्पेंड करते हैं तो एक मैसेज जाता है कि मप्र में अब भ्रष्टाचार नहीं चलेगा, लेकिन नजर जब उन 45 आईएएस अफसरों के खिलाफ दर्ज 61 मामलों की फाइलों पर जाती है, जिनके खिलाफ अभियोजन की अनुमति वर्षों से लंबित है तो समझ नहीं आता कि शिवराज सिंह क्या संदेश देना चाह रहे हैं। विरोधियों को कहने का मौका भी मिल जाता है अली बाबा 45 चोर।Ó लोकायुक्त पुलिस लम्बे समय से मप्र के 45 दागी आईएएस अफसरों सहित करीब 400 अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ अभियोजन की अनुमति मांग रही है। फाइलें सीएम सचिवालय में धूल चाट रहीं हैं। बार-बार उंगलियां भी उठ रहीं हैं परंतु पता नहीं सीएम शिवराज सिंह चौहान पर ऐसा कौन सा दवाब है कि वो अपनी बदनामी की परवाह किए बगैर, इन फाइलों को लटकाए हुए हैं। जबकि इनमें से कई आईएएस अफसरों के खिलाफ तो गंभीर आर्थिक अपराध के मामले दर्ज हैं। इनमें से कई अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं। इसीलिए संघ भी भाजपा सरकार से नाखुश है। हालांकि मुख्यमंत्री ने मुख्य सचिव से लेकर विभागों के प्रमुख सचिव तक को हिदायत दी है कि अब नाफरमानी बर्दाश्त नहीं होगी। अब देखना यह है कि उनके इस कदम का अफसरों पर क्या असर पड़ता है। लेकिन अफसरशाही का जो रूप देखने को मिल रहा है वह प्रदेश की जनता के लिए विभीषण जैसा ही है।
इस अफसरशाही को जो रोग लगा है। वह दवा से नहीं सर्जरी से ही ठीक होगा। लेकिन ऐसा ही कुछ रोग मंत्रियों और कुछ भाजपा के नेताओं को लग गया है। अचानक न जाने ऐसा क्या हो गया है कि हर किसी के निशाने पर प्रदेश सरकार और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आ गए हैं। मंत्री कह रहे हैं कि अफसर उनकी सुन नहीं रहे हैं। जनता का काम हो नहीं पा रहा है। यही नहीं कभी शिवराज सरकार के संकट मोचक रहे पूर्व मंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय तो बगावती तेवर अपनाए हुए हैं। विजयवर्गीय ने अफसरों के बेलगाम होने पर कहा है कि कभी लोगों को लगने लगता है कि दुनिया उनके भरोसे चल रही है और वे मनमानी करने लगते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों को बीच-बीच में उनकी हैसियत बताना जरूरी होता है। उन्होंने कहा कि कोई कितना भी बड़ा और बिगड़ा अधिकारी क्यों न हो मैं उसे ठीक करना जानता हूं। मुझे बिगड़े घोड़ों पर लगाम लगाना और उनकी सवारी करना आता है। विजयवर्गीय यही नहीं रुकते हैं और आगे कहते हैं कि किसी को भ्रष्ट और ईमानदारी का सर्टिफिकेट बांटने वाला व्यक्ति नहीं है पर जब आम जनता परेशान होती है तब मैं चुप नहीं रह सकता। उन्होंने यहां तक कहा कि मैं किसी अधिकारी को सही काम बताऊं और वह मना कर दे प्रदेश में अभी ऐसी स्थिति नहीं है। यानी उन्होंने बातों ही बातों में यह संकेत दे दिया कि जो नौकरशाही शिवराज की बात नहीं मान रही है वे उससे कुछ भी करवा सकते हैं। हालांकि वह जानते हैं कि अभी उनकी राजनीतिक हैसियत इतनी बड़ी नहीं हो गई है कि वे शिवराज से पंगा ले सकें। इसलिए उन्होंने सहानुभूति जताते हुए डंपर मामले में रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है कि उन्होंने ही प्रहलाद पटेल से साधना भाभी का नाम न लेने को कहा था जो उन्होंने नहीं लिया। विजयवर्गीय की इस सफाई में कहीं न कहीं साजिश की बू आ रही है। इसी तरह कुछ मंत्री और कुछ विधायक भी प्रदेश सरकार पर निशाना साधते रहे हैं।
भाजपा संगठन और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो सरकार की सफलता को पचा नहीं पा रहे हैं। मुख्यमंत्री ही नहीं प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंद कुमार सिंह चौहान और संगठन महामंत्री सुहास भगत द्वारा अपनी टीम के साथ चिंतन और मंथन के बावजूद यदि रोज नया बखेड़ा खड़ा हो जाता है तो फिर नए सवाल खड़े होना लाजिमी है। इन बदलती और बिगड़ती परिस्थितियों में जब विरोधी दल कांग्रेस को निष्क्रिय है तब भाजपा की सत्ता और संगठन में समन्वय का अभाव नजर आता है तो फिर मध्यप्रदेश को लेकर चिंता होना लाजमी है। क्योंकि सत्ता से जुड़ी भाजपा को अंदर से खुद की पार्टी के नेता यह कह कर आगाह करें कि नहीं सुधरे तो हालत कांग्रेस जैसी होगी चिंता में इजाफा ही करते हैं। जबकि सब जानते हैं कि आजादी के 6 दशक तक मध्यप्रदेश बीमारू राज्य था। लेकिन पिछले एक दशक में उसी मध्यप्रदेश की पहचान अब तेजी से विकास करने वाले प्रदेश के रूप में होती है। यह अब कई क्षेत्रों में देश में अगुआ और अव्वल भी बन गया है। मध्यप्रदेश को अपने सेवा संकल्प, समर्पण, जिद और जुनून से आज देश का विकसित राज्य बनाने में जिस करिश्माई व्यक्तित्व का योगदान रहा है वह हैं शिवराज सिंह चौहान! उनकी नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम है कि आज प्रदेश में हुए अद्भुत कामों की गूंज न केवल देश में बल्कि दूर देशों तक सुनाई दे रही है। लेकिन तेजी से विकसित हो रहे प्रदेश और प्रदेशवासियों की खुशहाली पर कुछ विभीषणों की नजर लग गई है। ये विभीषण कौन है यह तो सत्ता और संगठन का विषय है। लेकिन बरसों पुरानी कहावत है कि घर का भेदी लंका ढाए। अब जो लंका ढहाने का ठेका लेगा तो वह अपनी मजदूरी तो हासिल करेगा ही। राम-युग की ही तरह विभीषण आज के युग की भी मजबूरी बन चुके हैं। वह हर युग में बिकाऊ रहा है, मौकापरस्त रहा है, कुर्सी का पाया पकडऩा उसका स्वभाव है। वह सत्ता के लिए कुछ भी दांव पर लगा सकता है क्योंकि बिकने के सिवा उसने और कुछ सीखा ही नहीं है। शिवराज सिंह चौहान को यह समझना चाहिए कि विभीषण किसी व्हिप को नहीं मानते। वे अपनी मर्जी की रस्साकशी करते हैं। आंकड़ों के खेल की तो पूरी बागडोर ही विभीषणों के हाथों में होती है। जब तक विभीषण सम्माननीय रहेंगे तब तक इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जाएगी। इसलिए विभीषणों की पहचान कर उन पर कार्यवाहीं जरूरी है।
रसूखदार अफसरों की कार्यप्रणाली संघ और संगठन का रास नहीं आ रही
प्रदेश में भाजपा संगठन और संघ की नाराजगी की एक वजह है सरकार में लंबे समय से जमे रसूखदार अफसरों की कार्यप्रणाली। यही कारण है कि पिछले महीने संघ की समन्वय बैठक में भ्रष्टाचार और चुनिंदा अफसरों की मनमानी की वजह से सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए गए थे। इसके बाद संगठन और संघ को उम्मीद थी कि सरकार में जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी करने वाले अफसरों को किनारे किया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो फिर भाजपा नेताओं ने फिर से बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया। मप्र सरकार में मुख्यमंत्री सचिवालय से लेकर, विभिन्न विभाग और मलाईदार पदों पर जमे अफसरों की मनमानी की शिकायतें पार्टी नेता और सरकार के मंत्रियों द्वारा संघ कार्यालय से लेकर पार्टी हाईकमान तक की। संगठन की ओर से हाईकमान को यह संदेश भी भिजवाया था कि सरकार में मंत्रियों से ज्यादा गिनेचुने नौकरशाहों की चल रही है। इन अफसरों की छवि ईमानदार है, लेकिन वे जिन विभागों की कमान संभाले हुए हैं, उनमें करोड़ों के भ्रष्टाचार हैं। संघ की समन्वय बैठक के तत्काल बाद मुख्यमंत्री सचिवालय से इकबाल सिंह बैस और जल संसाधन विभाग से राधेश्याम जुलानिया की विदाई हो गई, लेकिन दोनों का दखल बरकरार है। रसूखदार अफसरों को किनारे करने की इस कार्रवाई से संगठन और संघ संतुष्ट नहीं है।
संकल्प, विजन और मंथन में उलझी व्यूरोक्रेसी
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हैं कि मध्यप्रदेश में विकास कहा दिख रहा है। अगर विकास होता तो न यहां गरीबी रहती न कुपोषण होता। यहां दिखावे के लिए केवल समीक्षा और बैठक का खेल चल रहा है। पिछले एक दशक में नौकरशाही के कार्य कलाप को देखें तो हम पाते हैं कि वह संकल्प, विजन और मंथन में उलझी हुई है। जबकि हकीकत यह है कि न मंत्री और न ही अधिकारी जनता की फिक्र कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अपने प्रिय अधिकारियों के साथ विदेशों का दौरा कर रहे हैं। वे निवेश के दावे तो खूब कर रहे हैं, लेकिन निवेश कहां हो रहा है वह किसी को दिख नहीं रहा है। आलम यह है कि प्रदेश में हर तरफ कागजी काम हो रहा है। भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि मंत्रियों के संरक्षण में योजनाओं का बंटाधार किया जा रहा है। यह हम नहीं संघ और भाजपा संगठन के नेता ही कह रहे हैं। प्रदेश में कानून व्यवस्था और विकास के दावों की पोल तो राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो की रिपोर्ट में हर बार सामने आ रहा है। मुख्यमंत्री खुद अफसरों को संकल्प, विजन और मंथन में उलझाए रहते हैं तो वे मैदानी हकीकत कैसे जान पाएंगे।
जनता त्रस्त, मंत्री मस्त, अफसर भ्रष्ट, कानून व्यवस्था नष्ट
मध्यप्रदेश में ब्यूरोक्रेश को लेकर जो बवाल मचा है उस पर कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि शिवराज सरकार में प्रदेश की जनता त्रस्त है और मंत्री मस्त हैं जबकि अफसर भ्रष्ट हैं और कानून व्यवस्था नष्ट है। ऐसे में हंगामा तो मचेगा ही। वह कहते हैं कि पिछले 13 साल से भाजपा ने जनता को केवल हवाई सपने दिखाए है। नया परिवर्तन लाना होगा तभी दलित, आदिवासी, महिलाएं व आम जन सुरक्षित होंगे। इम्तहान का समय आ गया है। 10 सालों में भ्रष्टाचार चरम पर है। सिंधिया कहते हैं कि सूबे में कांग्रेस के जो भी मुख्यमंत्री रहे हैं उन्होंने प्रगति व विकास पर जोर दिया था जबकि भाजपाइयों ने सिर्फ भ्रष्टाचार किया है। वह कहते हैं कि प्रदेश में कुछ आंकड़े सिर झुका देते हैं। यहां 44 फीसदी भ्रूण हत्या, सर्वाधिक 10 प्रतिशत बलात्कार के मामले सामने आए हैं। आदिवासियों के साथ हुए अत्याचारों में इजाफा हुआ है। यानी पूरी तरह प्रदेश का बंटाधार किया गया है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि आखिर मुख्यमंत्री बार-बार यह कहकर क्या दर्शा रहे हैं कि नौकरशाही बेलगाम हो गई है। अब सरकार उनकी है तो लगाम भी उन्हें को कसनी है। जनता क्या कर सकती है?
दिखने लगा मुख्यमंत्री की मीटिंग का असर
मंत्रालय में मुख्यमंत्री की मीटिंग का असर अब विभागों में दिखने लगा है। जहां सामान्य प्रशासन विभाग ने जाति प्रमाणपत्र को लेकर श्योपुर, गुना, टीकमगढ़, सागर, सतना, रीवा, इंदौर, कटनी, भोपाल सहित 10 जिलों के कलेक्टरों को डीओ पत्र लिखा है। साथ ही लोकसेवा अधिनियम का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई करने का निर्देश भी दिया है। वहीं राजस्व विभाग ने 29 मामलों में लोकायुक्त को अभियोजन की स्वीकृति दे दी है। जिसमें से 25 मामले तो केवल रमेश थेटे पर हैं। इसी तरह अन्य विभाग भी मुख्यमंत्री के कड़े रुख को देखते हुए अपने-अपने विभाग के पेंडिंग पड़े मामलों को निपटाने में जुट गए हैं।
फंस गए महिला एवं बाल विकास के पीएस
मुख्यमंत्री के साथ हुई समीक्षा बैठक में महिला एवं बाल विकास विभाग के प्रमुख सचिव जेएन कंसोटिया ने तो प्रजेंटेशन बहुत अच्छा दिया। लेकिन कुपोषण और बाल मृत्युदर के मामले में फंस गए हैं। अब उन्हें कुछ भी सूझ नहीं रहा है। उधर एमपीआरडीसी के एमडी मनीष रस्तोगी भी मंत्री से बहस करके फंस गए हैं। बताया जाता है कि इस विभाग को सड़कों के निर्माण के लिए बड़ा बजट मिलने वाला है। कहीं ऐसा तो नहीं इस विभाग में किसी नए को लाने के लिए इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए। वहीं वहीं एससी-एसटी आयुक्त दीपाली रस्तोगी को विभाग में काम करने की संभावनाएं हैं, लेकिन वे अभी तक विभाग को समझ नहीं सकी है।