लगातार चिंतन का सबब
17-Sep-2016 06:38 AM 1234887
छत्तीसगढ़ में राजसत्ता इन दिनों आशंकाओं के दौरे से गुजर रही है। आशंकाएं-कुशंकाएं सत्तारुढ़ भाजपा की चौथी पारी को लेकर है, जिसे दो वर्ष बाद अक्टूबर-नवंबर 2018 में चुनाव समर में उतरना है। मुसीबत की जड़ है छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) जिसे अस्तित्व में आए महज चंद दिन ही हुए हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा खुलने से भाजपा में चिंता के बादल गहरा गए हैं। एक तरफ उसे कांग्रेस से मुकाबला करना है और दूसरी तरफ जोगी कांग्रेस से। घबराहट इसलिए भी है क्योंकि पिछले राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 0.75 प्रतिशत वोटों से पीछे रह गई थी। वोटों के मामूली अंतर से भाजपा तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब तो जरूर हो गई किन्तु उसे अहसास हो गया कि चौथी पारी के लिए कुछ ज्यादा मशक्कत करनी होगी लेकिन राज्य में बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए पार्टी की चिंता द्विगुणित हो गई है। उसे महसूस हुआ है कि जब तक सत्ता और संगठन में आपसी सामंजस्य नहीं होगा, नौकरशाही नियंत्रित नहीं होगी, सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ सीधे गरीब तबके तक पहुंचाने में सरकार को संगठन की मदद नहीं मिलेगी, तब तक 2018 को फतह करना नामुमकिन होगा। इसी चिंता में डूबी प्रदेश भाजपा ने नए तेवरों के साथ कवायद शुरू कर दी है। अंबिकापुर में 22-23 जून 2016 को प्रदेश कार्य समिति की बैठक और उसके तुरंत बाद 27-28 जून 2016 को राजधानी से कुछ किलोमीटर दूर बारनवापारा के सुरम्य अरण्य में चिंतन शिविर को इसी कवायद का हिस्सा माना गया। इसके बाद 28 जुलाई को चंपारण में प्रशिक्षण का आयोजन, जो इस बात का संकेत है कि भाजपा की स्थिति पहले जैसी नहीं है। छत्तीसगढ़ का राजनीतिक परिदृश्य छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) के उदय के बाद काफी बदल गया है। जनता के पास तीसरा विकल्प आ गया है बशर्ते जोगी कांग्रेस कम से कम दो वर्षों तक मजबूती के साथ टिके रहे तथा आम जनता का विश्वास अर्जित करे। इस लिहाज से उसके पास अभी काफी वक्त है और इतना ही वक्त अपना घर दुरुस्त करने भाजपा और कांग्रेस के पास भी है। दोनों की तैयारियां भी इसी दृष्टि से हैं। कांग्रेस के सामने भी दोहरी चुनौती है। उसे इस बात का भय है कि जोगी कांग्रेस ने यदि उसके प्रतिबद्ध वोटों पर सेंध लगाई तो 2018 भी उसके हाथ से निकल जाएगा, जबकि कुछ समय पूर्व तक उसे आगामी चुनाव में बेहतर संभावनाएं नजर आ रही थीं। बहरहाल प्रदेश भाजपा वर्ष 2003 से जारी अपनी सत्ता 2023 तक कायम रखने के लिए भारी गुणा-भाग कर रही है, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है बेलगाम सत्ता को नियंत्रण में रखना और योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचाना। सघन प्रचार पार्टी का एक बड़ा हथियार है जिसकी धार को अब अच्छी तरह तराशा जा रहा है। मंत्रियों के पीछे एक-एक पदाधिकारी की तैनाती का जो विचार आया है, उसके पीछे मूल भावना है राज्य सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ कार्यकर्ताओं के माध्यम से सीधे जनता तक पहुंचाना। ये पदाधिकारी मंत्रियों एवं कार्यकर्ताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाएंगे। इसके साथ ही वे उनकी कार्यप्रणाली पर नजर रखेंगे व मंत्रियों के पास समस्याओं को लेकर पहुंचने वाले लोगों के साथ सद्व्यवहार एवं आत्मीय संवाद को सुनिश्चित करेंगे। सत्ता और संगठन के बीच समन्वयक की नियुक्ति का विचार बेहतर है। बशर्ते इसे खेल भावना से लिया जाए। यह जरा मुश्किल है क्योंकि इसमें सत्ता के दो केंद्र बनना तय है। इस वजह से टकराव भी बढ़ सकता है और असंतोष भी या फिर नूरा कुश्ती भी चल सकती हैं। इसीलिए शायद इस विचार को तिलांजलि दे दी गई है। भाजपा की चिंता की झलक इसी बात से मिलती है कि सरकार ने जनकल्याणकारी घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। भाजपा को सता रहा दलित वोट बैंक भाजपा को अब सबसे ज्यादा फिक्र अपने अनुसूचित जाति के वोट बैंक की है। राज्य की 10 विधानसभा सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं। पिछले चुनाव में इस समुदाय के वोटरों ने भाजपा का साथ दिया था। 10 में से 8 सीटें उसे जीतकर दी। लेकिन अब इसमें हिस्सेदारी के लिए अजीत जोगी खड़े हो गए हैं जिनका इन सीटों पर खासा प्रभाव है। कांग्रेस अलग ताल ठोक रही है। यानी अगले चुनाव में इन सीटों का बंटवारा तय है। प्रदेश भाजपा की दूसरी चिंता बस्तर, सरगुजा की अनुसूचित जनजाति की सीटों की है। वर्ष 2013 के चुनाव में इस इलाके की कुल 23 आरक्षित-अनारक्षित सीटों में से सिर्फ 8 सीटें ही भाजपा जीत सकी थी। खासकर बस्तर संभाग में कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा। भाजपा यहां कुल 12 में से 4 सीटें ही जीत पाई। -रायपुर से टीपी सिंह के साथ संजय शुक्ला
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