शाह की शाहंशाही
03-Sep-2016 07:14 AM 1234854
अमित शाह भाजपा के महाबली के रूप में अवतरित हो गये हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वस्त साथियों में उन्हें शुमार किया जाता है। बताया जाता है कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर नेताओं की इच्छा के विपरीत उन्हें भाजपा की कमान सौंपी गयी थी। भाजपा की राजनीति में शाह को काफी जूनियर नेता माना जाता था। मगर मोदी की नजदीकी ने शाह को महाबली बना दिया। संघ का स्वयंसेवक होने के कारण आरएसएस को भी शाह के नाम पर कोई एतराज नहीं था। शाह राजनीति के निपुण खिलाड़ी हैं। वह गुजरात दंगों से बेदाग निकले थे। कभी कोई चुनाव भी नहीं हारा। विश्वसनीयता उनके रग-रग में थी। अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने मोदी विरोधियों को किनारे लगाया और पार्टी में एक नई संस्कृति को जन्म दिया। उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में मिली सफलता ने उन्हें आसमान पर पहुँचा दिया। यहीं से शाह ने राजनीति की नवीन पारी शुरू की। सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नितिन गडकरी सरीखे नेताओं ने भी शाह को नेता स्वीकार करने में अपनी भलाई समझी। बताते हैं हाल के केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में भी शाह की ही चली। भाजपा में आज शाह की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। इतना तो तय है कि शाह के योगदान का आभार पार्टी के सबसे बड़े नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जताते हैं। भाजपा में शाह का उदय मोदी के समानांतर ही रहा और उन्हें पार्टी की रणनीति तय करने वाला चाणक्य और मोदी का सबसे खास भी माना जाता है। फिलहाल शाह का भाजपा के मुखिया के रूप में दूसरा कार्यकाल चल रहा है। 2014 में उन्होंने यह पद उस वक्त हासिल किया था जब राजनाथ सिंह के केंद्रीय गृहमंत्री बनने के बाद यह रिक्त हो गया था। भारतीय राजनीति के इतिहास में अमित शाह एक अद्भुत व्यक्तित्व हैं और उनकी विरासत को सबसे चतुर राजनीतिक रणनीतिकार के साथ ही बेहद विवादास्पद चरित्र वाले व्यक्ति के साथ भी जोड़ा जाएगा। जानिए वो सात बातें जिनके लिए अमित शाह का कार्यकाल सर्वाधिक याद किया जाएगा। शाह के नेतृत्व में भाजपा ने कई विधानसभा चुनाव जीते और कुछेक गठबंधन के रूप में ही सही पांच राज्यों में सरकार का गठन किया। इन राज्यों में हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, असम और जम्मू-कश्मीर भी शामिल हैं। इन पांच में से हरियाणा, असम और जम्मू-कश्मीर जैसे तीन राज्यों में भाजपा पहली बार सत्ता में आई। इन जीतों के जश्न को दिल्ली, बिहार और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में मिली भारी हार ने कम कर दिया। इनमें से भी दिल्ली और बिहार भाजपा के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण राज्य थे क्योंकि 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी ने इन राज्यों में बेहतरीन प्रदर्शन किया था। इनमें भाजपा को शिकस्त देने वाली पार्टियों के मुख्यमंत्री यानी दिल्ली में आप के अरविंद केजरीवाल और बिहार में जेडीयू के नीतीश कुमार अब भाजपा के सबसे मुखर विरोधी बने हुए हैं। शाह ने तमिलनाडु के साथ ही केरल में भी विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रचार अभियान का नेतृत्व किया। यद्यपि पार्टी ने पहली बार केरल विधानसभा चुनाव में अपना खाता खोलने में सफलता पाई, लेकिन इसे केवल एक ही सीट से संतोष करना पड़ा। तमिलनाडु में पार्टी ने 168 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी। एक तरफ शाह ने पार्टी के तेजी से फैलते क्षेत्र में कई नए राज्यों को शामिल किया तो दूसरी तरफ उनके और मोदी के गृह राज्य गुजरात में पार्टी की पकड़ कमजोर होती दिखी। इस दौरान कम से कम दो भारी प्रदर्शनों ने राज्य और भाजपा सरकार को हिला दिया। अंत में मोदी की विश्वासपात्र मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। कहा जाता है कि राज्य को अकेले अपने नियंत्रण में लेने के फेर में शाह ने पटेल का जीवन मुश्किल कर दिया था। हालांकि उनकी गणना धराशायी हो गई और तमाम लोगों का कहना है कि अगर गुजरात में अभी चुनाव करा लिए जाएं तो भाजपा के अच्छे प्रदर्शन की कोई संभावना नहीं है। शाह ने सावधानीपूर्वक एक विशाल सदस्यता अभियान चलाया और करीब 11 करोड़ सदस्यों के बल पर पार्टी अब दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल होने का दावा करती है। 2014 चुनाव के पहले और बाद में पार्टी की लोकप्रियता में जबर्दस्त उछाल आया और लोकसभा के बाद हुए विधानसभा चुनाव में इसके खाते में आई सीटों में भी यह दिखा। लेकिन मुख्य रूप से विपक्षी कांग्रेस पार्टी द्वारा सदस्यता के इन आंकड़ों को आंकड़ों की कारीगरी बताया जा रहा है। आज भाजपा के अधिकांश पर्यवेक्षकों की राय है कि अब पार्टी में फैसला लेने वालों का बिल्कुल केंद्रीकरण हो चुका है। कहा जाता है कि अब सभी प्रमुख फैसले मोदी-शाह द्वारा लिए जाते हैं और अन्य सभी नेता, भले ही उनका पार्टी या सरकार में वे किसी भी कद के हों, फैसले की घोषणा तक पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में की जाने वाली बैठने की व्यवस्था इस संदर्भ में पूरी तस्वीर साफ करती है। इसमें मोदी और शाह सबसे आगे बैठे होते हैं और सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह और वेंकैया नायडू जैसे अन्य वरिष्ठ नेता इनके साथ की कतार में बैठे होते हैं। एक इकाई के रूप में आज की भाजपा सबसे ज्यादा अंदरूनी टकराव और अंतरविरोधों से भरी नजर आती है। अगर इसकी तुलना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पहली बार बनी भाजपा की सरकार से करें तो आज यह ज्यादा विरोधाभासी और आक्रामक है। पार्टी कार्यकर्ता, नेता और यहां तक की मंत्री भी अपने राजनैतिक विरोधियों से बातचीत में बेहद उग्र तेवरों का प्रदर्शन करते हैं। यह उग्रता न केवल संसद भवन में विपक्षी नेताओं के साथ बातचीत में नजर आती है बल्कि तमाम प्रेस कॉन्फ्रेंस में पत्रकारों के साथ भी उनका यही रवैया दिखता है। इन स्थितियों के मद्देनजर यह जानना दिलचस्प है कि हाल ही में अमित शाह ने खुद भी कहा था कि वो देश में 67 सालों से चली आ रही राजनीतिक संस्कृति को बदलना चाहते हैं, इस लिहाज से यह पार्टी की सोची समझी रणनीति का एक हिस्सा प्रतीत होता है। शाह का भाजपा में बढ़ता कद किसी को पसंद आए या न आए फिलहाल मोदी और संघ को पसंद आ रहा है। इसका असली असर तो 2019 में देखने को मिलेगा। एक-एक को किया दूर अमित शाह का भाजपा में कद कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वे मोदी के आसपास के लोगों को एक-एक कर दूर करते जा रहे हैं। आज के भारत की राजनीति के चाणक्य के रूप में प्रख्यात प्रशांत किशोर ने 2014 लोकसभा चुनावों में मोदी की ऐसी आंधी बनाई थी, जिसके बहाव में सभी पार्टियां धराशाई हो गईं। वो मोदी के बेहद नजदीकी थे और उनके गांधीनगर के घर में 3 वर्षों तक साथ रहे। पर शाह को प्रशांत किशोर कभी पसंद नहीं थे।  लोकसभा चुनावों में मिली जीत के बाद अमित शाह, मोदी के मैन ऑफ द मैच बन गए। प्रशांत किशोर को जीत का कोई श्रेय नहीं दिया गया। इसी तरह जिस स्मृति ईरानी को मोदी ने अपनी बहन मानते हुए मंत्री मंडल में मानव संसाधन जैसे महत्वपूर्ण विभाग दिया था उनका भी पर कतर दिया। उन्हें कपड़ा मंत्री बनवा दिया। जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो भाजपा के दिल्ली दरबार में अगर कोई एक व्यक्ति हमेशा नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़ा रहा तो वो था अरुण जेटली। राजनैतिक गलियारों में ऐसा माना जाता है के मोदी बगैर जेटली के सलाह के कोई भी बड़ा काम नहीं करते थे। लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद उन्हें न केवल मंत्री बनाया गया बल्कि वित्त एवं रक्षा जैसा महत्वपूर्ण विभाग दिया गया। हालांकि अमित शाह से जेटली के सम्बन्ध अच्छे माने जाते रहे हैं पर पिछले मंत्रिमंडल विस्तार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय लेकर न केवल उनका पर कतर दिया गया बल्कि विजय गोयल और एसएस अहलूवालिया को मंत्रिमंडल में लिया गया, जिनके साथ जेटली के अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे । मोदी की आंख बने अमित अमित शाह प्रधानमंत्री मोदी के आंख, कान एवं नाक बन गए हैं। भाजपा के किसी भी नेता का पद और उसका प्रोमोशन इस बात पर निर्भर नहीं कि वह प्रधानमंत्री के कितना करीब है, बल्कि ये कि क्या वह भाजपा अध्यक्ष का भी चहेता है। गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन नितिन पटेल को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में थीं, लेकिन उनकी एक नहीं चली। अमित शाह ने उनके लाख विरोध के बावजूद भी अपने करीबी विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनवाया। केवल यही नहीं, नए मंत्रिमंडल में आनंदीबेन कैबिनेट के नौ मत्रियों को जगह नहीं दी गई, जिन में से कई न केवल पूर्व मुख्यमंत्री के बेहद करीबी थे बल्कि बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी काम कर चुके थे। -दिल्ली से रेणु आगाल
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