03-Sep-2016 07:02 AM
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भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। 2014 में उसे अपने चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा था और उसे 50 से भी कम सीटें मिली थीं। वैसे तो किसी चुनाव में हार-जीत सामान्य है, लेकिन यह हार कुछ अलग थी और इसे कांग्रेस के लिए सामान्य नहीं कहा जा सकता है। 2014 के आम चुनाव के दौरान हमने पहली बार कांग्रेस मुक्त भारत का नारा सुना था, जो अब धीरे-धीरे सही होता जा रहा है। क्योंकि कांग्रेस की नांव लगातार मझधार में फंसती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस का भविष्य क्या है? यह सवाल कांग्रेसजनों की चिंता की गहराई बताने वाला है। कांग्रेस
नेताओं और कार्यकर्ताओं का आज नंबर
एक संकट उनकी मनोदशा है। भारत की राजनीति में पार्टियों की मनोदशा के दो छोर
हैं। एक भाजपा का और दूसरा कांग्रेस का। भाजपा गलतफहमियों में है और कांग्रेसजन भारी निराशा में।
भाजपा में मूड है कि उनकी पार्टी 2019 तक के चुनाव एक के बाद एक जीतती जाएगी तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं में फिक्र यहां तक है कि जिन प्रदेशों में भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी इन्कंबेंसी हो सकती है वहां भी उनकी पार्टी आगामी चुनाव जीत सकती है या नहीं? यह मनोदशा तभी बदल सकती है जब कांग्रेस उत्तर प्रदेश और पंजाब में कुछ कमाल दिखाए। इस हिसाब से दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का भविष्य उत्तर प्रदेश और पंजाब से नत्थी हो गया है। कांग्रेस का मामला इसलिए विकट है क्योंकि पंजाब में उसे आप पार्टी निगलने वाली है तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस तब तक नहीं उठ सकती है जब तक बसपा से एलायंस नहीं हो या प्रिंयका गांधी-वरूण गांधी का कोई अप्रत्याशित धमाल न हो। प्रशांत किशोर ने बहुत सोच समझ कर शीला दीक्षित-राज बब्बर की बिसात बिछाई लेकिन उससे उत्तर प्रदेश की जमीन में हलचल नहीं है। मतलब यह लग रहा है कि जब तक प्रियंका गांधी अपने को प्रोजेक्ट न करें ब्राह्मण- फारवर्ड वोट शायद ही टस से मस हो।
सो, राहुल, प्रिंयका और प्रशांत किशोर अभी अपनी रणनीति को और बदलेंगे। आज की तारीख में दूर-दूर तक कांग्रेस के पंजाब और उत्तर प्रदेश में अवसर नहीं हैं। कांग्रेस की नंबर एक समस्या अरविंद केजरीवाल हो गए हैं। पंजाब में केजरीवाल-सिद्घू के धमाल में कांग्रेस की जो दुर्गति होगी तो उसके बाद अरविंद केजरीवाल गुजरात, गोवा, हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस के वोट काटने पहुंच जाएंगे। मानना है कि पंजाब, गोवा, गुजरात, हिमाचल, दिल्ली की कोई 52 लोकसभा सीटों पर आप पार्टी कांग्रेस का खेल बिगाडऩे की स्थिति की तरफ बढ़ रही है। इस हिसाब से कई सीटों पर एंटी इन्कंबेंसी के आधार पर कांग्रेस के अवसर 2019 में अपने आप बन सकते थे मगर अब आप पार्टी बीच में खड़ी होकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ेगी।
उस नाते आप पार्टी का सिरदर्द कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए बन गया है। पंजाब के चुनाव के बाद यह और गंभीर बनेगा। सोचे, यदि आप मैदान में नहीं होती और अमरेंदर सिंह के बूते पंजाब में कांग्रेस जीतती हैं तो एनडीए के खिलाफ कांग्रेस का विकल्प अपने आप उन राज्यों में भी हवा पा जाता जहां सीधे भाजपा की सरकारों को विधानसभा चुनाव लडऩा है। आज की तारीख में आप के मैदान में खड़े हो सकने वाले राज्यों को छोड़े तो भाजपा बनाम कांग्रेस के आमने-सामने की सीधी लोकसभा चुनाव की लड़ाई की करीब 160 सीटें बनती हैं। इसमें उत्तर प्रदेश और बिहार नहीं हैं। इसलिए कि यहां भाजपा का मुकाबला क्षेत्रीय पार्टियों से है। पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, छतीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड जैसे ऐसे राज्य है, जिनमें कुछ में मई 2019 से पहले विधानसभा चुनाव हैं तो लोकसभा चुनाव वहां भाजपा सरकार की एंटी इन्कंबेंसी की दशा में होंगे। इनमें कांग्रेस का गणित कहीं अजित जोगी बिगाड़ेंगे तो कहीं आप भी पहुंच सकती है। फिर तीसरी कैटेगरी के केरल, पश्चिम बंगाल जैसे वे प्रदेश हैं, जहां हालिया चुनाव के कारण कांग्रेस लोकसभा चुनाव तक शायद ही खड़ी हो पाए। तभी जमीनी हकीकत कांग्रेस के लिए बहुत विकट हो गई है।
झारखंड, बिहार से लेकर पश्चिम बंगाल सबमें कांग्रेस को अब लेफ्ट या छोटी क्षेत्रीय पार्टियों पर निर्भर होना पड़ेगा। छोटी पार्टियां कांग्रेस को डिक्टेट करेंगी न की कांग्रेस उन्हें। इस सबको कांग्रेस के जमीनी, समझदार नेता समझ रहे हैं। राहुल गांधी और उनकी टीम 2019 के लोकसभा चुनाव तक के सिनेरियों को सोचते हुए काम नहीं कर रही है। ये मोदी सरकार के प्रदर्शन और भाजपा के ग्राफ में अपना ग्राफ अपने आप बढऩे की गलतफहमी में हैं। राजनीति क्षेत्रीय पार्टियों-क्षत्रपों और अरविंद केजरीवाल के अकल्पनीय संभावी समीकरण की तरफ बढ़ रही है। उसका सीधा अर्थ भाजपा बनाम सेकुलर एलांयस की बिसात बनने का है। उसमें कांग्रेस हाशिए की खिलाड़ी होगी। जैसा उत्तर प्रदेश और पंजाब में होता लगता है। भाजपा को कांग्रेस से निपटने में दिक्कत नहीं है लेकिन बसपा, समाजवादी और आप से पार पा सकना उसके लिए ज्यादा मुश्किल है। उस नाते कांग्रेस, जहां भाजपा के लिए आसान दुश्मन है वहीं छोटी-क्षेत्रीय पार्टियों की चुनौती अधिक गंभीर है। तभी नोट करके रखे कि अंतत: राहुल गांधी, प्रिंयका वाड्रा और कांग्रेस को नई बैशाखियां पकडऩी पड़ेगी। कोई आश्चर्य नहीं होगा कि 2019 में नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव आदि कांग्रेस नेताओं को कहे आप चुपचाप बैठिए। हम नरेंद्र मोदी और भाजपा से चुनावी मुकाबला करेंगे। तब कांग्रेस चुपचाप, बिना शर्त गर्दन हिलाएगी। हां, कांग्रेस का कुछ ऐसा ही रोडमैप बनता लगता है।
2014 में लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस अभी तक संभल नहीं पाई है और एक के बाद एक विफलताएं उसकी नियति बन गई हैं, वह लगातार कमजोर हुई है। आज भाजपा ने भारतीय राजनीति में कांग्रेस का स्थान ले लिया है और कांग्रेस के सामने एक क्षेत्रीय पार्टी के रूप में बदलने का खतरा मंडरा रहा है। इधर पार्टी की मुश्किलें भी बढ़ती जा रही है, वह नेशनल हेराल्ड और अगस्ता वेस्टलैंड जैसे नये आरोपों का सामना कर रही है जिसके घेरे में सीधे तौर पर शीर्ष नेतृत्व है। पहले जब कभी भी वह सत्ता से बाहर हुई है, तो उसकी वापसी पर किसी को संदेह नहीं होता था, लेकिन आज कांग्रेस की वापसी को लेकर कांग्रेसी ही संदेह करते हुए देखे जा सकते हैं। आज कांग्रेस का मुकाबला अकेले भाजपा से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके विशाल परिवार से है, जो बहुत तेजी से नेहरु के आईडिया ऑफ इंडिया के बदले आईडिया ऑफ संघ की दिशा में काम कर रहा है। इसके प्रतिरोध में कांग्रेस की तरफ से कोई ठोस प्रतिरोध दिखाई नहीं पड़ता है।
कांग्रेस भ्रम में
कांग्रेस विचारधारा को लेकर भी भ्रम का शिकार है, पार्टी अपनी विचारधारा कब का छोड़ चुकी है और अब भाजपा का पिछलग्गू बनने की कोशिश करती हुई नजर आती है। लोकसभा चुनाव में हार के बाद अभी तक कांग्रेस कमोबेश वहीं कदमताल कर रही है, जहां भाजपा ने उसे 2014 में छोड़ा था। इस दौरान पार्टी ने जो थोड़ी-बहुत सफलता का स्वाद चखा है वह भाजपा की गलतियों की वजह से हुआ है न कि कांग्रेस के अपने प्रयासों की वजह से, लेकिन शायद कांग्रेस को ऐसा नहीं लगता है शायद इसीलिए पार्टी ने 2017 में होने वाले उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश के लिए हायर किया है।
12 साल में भी राहुल की राजनीति समझ से परे
अपने बारह साल के पॉलिटिकल कैरियर में राहुल ज्यादातर समय अनिच्छुक और थोपे हुए गैर-राजनीतिक प्राणी लगे, वे भारतीय राजनीति की शैली, व्याकरण और तौर-तरीकों के लिहाज से अनफिट नजर आए। उनकी छवि एक कमजोर संकोची और यदाकदा नेता की बन गई, जो अनमनेपन से सियासत में है। पिछले साल राहुल गांधी जब अपनी बहुचर्चित छुट्टी पर गए थे, तो कांग्रेस के एक नेता ने उनकी तुलना अल्फ्रेड द ग्रेट से की थी। 1100 साल पहले इंग्लैंड का एक राजा जो जंग हारने के बाद रहस्यमय तरीके से गायब हो गया था लेकिन जब वापस आया तो उसने हर मोर्चे पर जीत हासिल की। इन सबके बावजूद जिस लेवल का संकट है उसके मुकाबले यह नाकाफी है। वे अभी तक अपनी पार्टी में ही अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर पाए हैं और पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह राहुल को एक प्रेरणादायक और चुनाव जिता सकने वाले नेता के तौर पर स्वीकृति नहीं मिली है। पार्टी की राज्य इकाईयों पर भी राहुल गांधी की कोई पकड़ दिखाई नहीं पड़ रही है। उनमें नेतृत्व की क्षमता और संकट के समय जोखिम लेने की क्षमता का आभाव दिखाई पड़ता है।
-रजनीकांत पारे