03-Sep-2016 06:19 AM
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आम आदमी पार्टी का ग्रह नक्षत्र शुरू से ही उल्टा-पुल्टा हो रहा है। पार्टी अपने आपको जितना जनप्रिय बनाने की कोशिश कर रही है। उसके साथ उतने ही हादसे हो रहे हैं। आलम यह है कि जहां पार्टी के 12 विधायक जेल की हवा खा चुके हैं वहीं 21 विधायकों की सदस्यता पर खतरा मंडरा रहा है। हद तो यह है कि इन 21 विधायकों में से कइयों के पास वकील को देने के लिए पैसे भी नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या दिल्ली के विधायक इतने गरीब हैं?
दरअसल, आप का अभ्योदय आंदोलन के गर्भ से हुआ है। इस कारण इस पार्टी में ऐसे लोग बहुतायत में हैं जो मौके पर चौका मारकर आए हैं। इनमें से अधिकांश लोगों की आर्थिक स्थिति मध्यमवर्गीय है। तत्कालीन यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को आप में संभावना दिखी और पार्टी ने जिसको टिकट दिया वह जीत गया। कई नेता विधायक तो बन गए लेकिन उनके पास इतनी हैसियत नहीं थी कि वे विधायक का रुतबा दिखा सकें। इसलिए धीरे-धीरे वे सारी सरकारी सुविधाएं लेने लगे। अब जब 21 विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर अरविंद केजरीवाल उनके रसूख को मालदार बनाने जा रहे थे तो उसमें कायदे कानून आड़े आ गए हैं। विधायकों को आर्थिक लाभ तो हुआ नहीं अब उन्हें केस लडऩे के लिए घर से पैसे देने पड़ रहे हैं।
19 अगस्त की सुनवाई में 21 में से लगभग एक दर्जन विधायक अपने वकीलों के साथ आए। लेकिन बाकी बचे विधायकों की दलील अनूठी थी। दलील ये दी गयी कि उनके पास वकील करने के लिए पैसा नहीं है। जी बिलकुल, दिल्ली के विधायकों का यही रोना है। मजेदार बात तो ये है कि जब 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में है, और उनका मामला केंद्रीय चुनाव आयोग के सामने पेंडिंग है। ऐसे में इन विधायकों की इस दलील के पीछे मकसद क्या है। ये वाकई एक टेढ़ा सवाल है। खास तौर पर तब जबकि उनकी सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव आया, विधानसभा में पारित भी हुआ, लेकिन केंद्र के साथ लड़ाई कुछ ऐसी चली कि प्रस्ताव की हवा बीच में ही निकल गयी। ऐसे में जब इसी बीच चुनाव आयोग के सामने 21 विधायकों की सदस्यता को लेकर मामला पिछले कई महीनों से चल रहा है, उसमें सुनवाई के बीच अचानक इस मुद्दे को उठा देना क्या इस मामले को और लंबा खींचने की एक सोची समझी रणनीति है या वाकई दिल्ली के विधायकों की आर्थिक हालत खस्ताहाल है?
संसदीय सचिव लाभ का पद है या नहीं इस पर केंद्रीय चुनाव आयोग में सुनवाई जुलाई से ही चल रही है। पहली दो सुनवाई में तो आयोग ये ही तय करने में लगा रहा कि पूरे मामले में दिल्ली सरकार, दिल्ली बीजेपी और दिल्ली कांग्रेस को पार्टी बनाया जाए या नहीं। क्योंकि 21 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की याचिका एक वकील प्रशांत पटेल ने डाली है। खैर, दो सुनवाई के बाद आयोग ने ये तो तय कर लिया है कि न तो केजरीवाल सरकार, और न ही कांग्रेस या बीजेपी इसमें पार्टी होंगे। बल्कि जब भी उनकी सहायता की जरूरत आयोग को पड़ेगी वो उन्हें सुनवाई में शामिल करेगा।
चुनाव आयोग संतुष्ट नहीं
ऐसा मसला किसी विधायक की तरफ से शायद ही देश के इतिहास में पहले कभी आया हो। हालांकि चुनाव आयोग ने उनकी बात में दम नहीं पाया और कहा कि ऐसी सुविधा सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को ही मुहैया कराई जाती है। लिहाजा वो अगली सुनवाई में या तो खुद अपना पक्ष रखें या फिर अपने वकील को साथ लेकर आएं। मामले को थोड़ा और खींचने का ये पहला मौका नहीं है। इससे पहले भी हुई सुनवाई में विधायकों ने ये तक कहा था कि सदस्यता के मसले पर चुनाव आयोग को सुनवाई का अधिकार ही नहीं है। इसलिए उनके खिलाफ लगी याचिका पर चुनाव आयोग सुनवाई बंद कर दे। लेकिन वहां पर भी उनकी एक न चली।
-इन्द्र कुमार