जमीन की जगह तिजोरियों का सूखा खत्म!
03-Sep-2016 06:48 AM 1234804
महाराष्ट्र सरकार ने जलसंरक्षण के लिए दिसंबर, 2014 से जलयुक्त शिवारÓ यानी पानी से भरी जमीन अभियान शुरू किया है लेकिन, इसके इंतजाम हाथी के दांतÓ सरीखे ही हैं। दरअसल, जून 2014 में महाराष्ट्र में 70,000 करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले का खुलासा हुआ था। लिहाजा, इससे सबक लेते हुए फडणवीस सरकार अपने इस अभियान पर बड़ी रकम आवंटित या खर्च नहीं कर रही है। अभी तक सरकार ने प्रदेश में जलसंरक्षण के लिए जितने भी कदम उठाएं हंै वह जमीनों का सूखा खत्म करने की जगह तिजोरियों का सूखा खत्म करती दिख रही है। महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज होते ही फडणवीस सरकार ने दिसंबर, 2014 में एक अभियान शुरू किया। नाम दिया, जलयुक्त शिवार।Ó यानी पानी से भरी जमीन। मुख्यमंत्री ने राज्य को सूखा मुक्त करने का जो लक्ष्य तय किया था, उसे हासिल करने के लिए शुरू किए गए इस अभियान के तहत केंद्र और राज्य के तमाम जलसंरक्षण योजनाओं को एक ही छत या छाते के नीचे ले आया गया। मतलब सबको इस अभियान से जोड़ दिया गया। साथ ही सुनिश्चित किया गया कि गांव वालों और नगरीय निकायों की सक्रिय भागीदारी भी इस अभियान में हो। चूंकि जून 2014 में महाराष्ट्र में 70,000 करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले का खुलासा हुआ था। लिहाजा, इससे सबक लेते हुए फडणवीस सरकार अपने इस अभियान पर बड़ी रकम आवंटित या खर्च नहीं कर रही है। सरकार के दावे की मानें तो पौने दो साल में अब तक जलयुक्त शिवारÓ पर बमुश्किल 700 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए हैं। इसके तहत 36 जिलों के 6,202 गांवों में जलसंरक्षण के 60,000 काम किए गए। सरकार ने एक और काम किया। नवंबर, 2014 में एक आदेश पारित किया। इसमें कहा कि अभियान के तहत अगर कोई परियोजना तीन लाख रुपए से ज्यादा बजट की है तो उसका ठेका ई-नीलामी के जरिए ही दिया जाए। वैसे, यह इंतजाम कोर्ट की सख्ती की वजह से किया गया था। दरअसल, लातूर के रहने वाले वि_ल हजगुड़े ने बॉम्बे हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी। वि_ल मिट्टी खोदने वाली मशीनें संचालित करने का कारोबार करते हैं। उन्होंने याचिका में आरोप लगाया था कि राज्य का कृषि विभाग जल और मिट्टी संरक्षण से जुड़ी तमाम परियोजनाओं के ठेके देने में पक्षपात करता है। कुछ चुनिंदा ठेकेदारों को ही बार-बार काम दिया जाता है। कोर्ट ने इस पर सरकार को फटकार लगाई और जवाब मांगा। इसके बाद सरकार ने ठेके देने का तरीका ही बदल दिया। फरवरी 2015 में हाईकोर्ट ने भी सरकार के इस नए तरीके पर मुहर लगा दी। सतही तौर पर ये तमाम इंतजामात आकर्षक और पुख्ता लग सकते हैं। लेकिन गहराई से आंकलन करें तो यह महज हाथी के दिखने वाले दांतÓ ही हैं। सरकार ने तीन लाख रुपए से ऊपर की परियोजनाओं के लिए ई-नीलामी का नियम तो बना दिया। लेकिन उसके अपने कृषि विभाग ने पूरे एक साल तक उस पर अमल करना भी जरूरी नहीं समझा। दलील दी कि इस आदेश को मानना अनिवार्य नहीं है। लेकिन जब नवंबर, 2015 में कोर्ट की फटकार पड़ी तो विभाग ने इस पर अमल शुरू दिया। अमल क्या किया, उसका तोड़ निकाल लिया। अभियान के तहत कराए जाने वाले कामों को इतने टुकड़ों में तोड़ दिया कि किसी भी हिस्से का बजट तीन लाख से ऊपर जा ही न पाए। उदाहरण उसी लातूर का ले लीजिए, जहां सूखे की वजह से पानी की ट्रेन पहुंची थी। जिले के आउसा तालुका के 29 गांवों को जलयुक्त शिवारÓ के तहत जलसंरक्षण के कामों के लिए चुना गया। सरकार की एक वेबसाइट के मुताबिक, इन 29 गांवों में 206 काम कराए गए। इनमें 109 का बजट तीन लाख से कम था। इनमें भी 49 का बजट तो दो लाख 90 हजार से तीन लाख के बीच ही था। जलयुक्त शिवारÓ में भ्रष्टाचार ही इकलौती चिंता नहीं है। इस अभियान के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों पर भी बहस जारी है। क्योंकि पूरे राज्य में तमाम नदी-नाले, ताल-तलैया, यूं ही खोदे और गहरे किए जा रहे हैं। इन पर न किसी इंजीनियर का निर्देशन है और न ही किसी पर्यावरण विशेषज्ञ की निगरानी। ऐसे में आशंका है कि कहीं यह अभियान राज्य के जल संकट की स्थिति और खराब न कर दे। आंकड़ों की बाजीगरी जलयुक्त शिवारÓ का रिकॉर्ड रखने वाली वेबसाइट बताती है कि देवतला गांव में जलसंरक्षण की 32 परियोजनाएं पूरी की गईं। लेकिन गौर से नजर डालें तो मालूम होता है कि कई परियोजनाओं के वर्क कोड एक जैसे हैं। एक जैसे वर्क कोड वाली परियोजनाओं को अगर मिला दें तो गांव में किए गए कामों की संख्या महज आठ ही रह जाती है। इनमें ही एक नाला गहरीकरण का काम भी है। इनमें भी छह परियोजनाओं के काम से जुड़ी तस्वीरें वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। जिनके जरिए पता चलता है कि काम कौन-कौन से चरण में कब-किस तरह पूरा हुआ। -मुंबई से ऋतेन्द्र माथुर
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