03-Sep-2016 06:07 AM
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देश के किसी कोने में बुंदेलखंड का नाम लेते ही भोले-भाले उपेक्षित लोगों का चेहरा सामने आ जाता है। इन लोगों की किसी से बहुत बड़ी अपेक्षाएं भी नहीं है। फिर भी ये लोग सत्ताधीशों की चालाकी का शिकार होते रहते हैं। बुंदेलखंड का अधिकांश क्षेत्र ग्रामीण है, जहां विकास की बेहद जरूरत है। पांच साल बाद जब भी चुनाव आते हैं यहां के लोगों को विकास के हवाई सपने दिखाए जाता है। और उसके उनकी स्थिति अदम गोंडवी की इन पंक्तियों तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है। मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी हैÓ जैसी हो जातर है।
दरअसल, बुंदेलखंड को सूखा से ज्यादा तकलीफ सत्ता-सिस्टम के भीतर संवेदानाओं के अकाल ने पहुंचाया है। बुंदेलखंड प्राकृतिक संसाधनों और खनिज-संपदा से परिपूर्ण है। लेकिन इसका फायदा यहां के आमजन को नहीं मिल पाता है। रसूखदार लोग यहां की संपदा का दोहन कर लाल होते जा रहे हैं और आमजन दिन पर दिन कंगाल। अवैध खनन ने बुंदेलखंड के पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुंचाया है। इतनी की हालात बद से बदतर हो चुकी है। पेड़ों की हरियाली दूर-दूर तक नजर नहीं आती। बुंदेलखंड से गिट्टी-बालू लादकर सरपट शहरों की तरफ भागते ट्रकों की रेलम-पेल और जगह-जगह पुलिस की वसूली साफ बताती है कि बुंदेलों की धरती खनन के नाम पर अवैध खनन से जूझ रही है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं। खनन में बंधे हुए हिस्सों ने यूपी के इस हिस्से को बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। महोबा, चित्रकूट, झांसी, हमीरपुर के साथ बांदा में घायल पड़े पहाड़ और के्रशर की घड़घड़ाहट के बीच उड़ती बेतहासा धूल बताती है कि किस तरीके से बुंदेलखंड का सीना चाक किया जा रहा है।
यूपी वाले बुंदेलखंड के हिस्से में 1300 से ज्यादा खनन क्षेत्र हैं। खदानों में गोरा पत्थर, सीमेंट पत्थर, बजरी के भंडार हैं। केन, बेतवा समेत बालू से भरी नदियों के कोख को गहरे तक खोदा जा रहा है। इसका असर यह हो रहा है कि जीवनदायिनी नदियां बांझ होती चली जा रही हैं। पर्यावरण चक्र भी इससे प्रभावित हो रहा है। इसका बुरा असर बुंदेलखंड की भूतलीय प्रस्तर पर पड़ रहा है। पानी का लेबल लगातार नीचे जा रहा है। इस उद्योग पर रोक लगाने वाला कोई नहीं है। कट्टे और पट्टे की बदौलत यहां की खनिज संपदा लूटी जा रही है। बुंदेलखंड में केवल पहाड़ों के उत्खनन से प्रदेश सरकार को सालाना 5 अरब रुपए से ज्यादा का राजस्व प्राप्त होता है। यूपी के हिस्से वाले बुंदेलखंड के सातों जिलों में 1024 चयनित क्षेत्रों में पत्थर उत्खनन का पट्टा चल रहा है। इनमें से ज्यादातर राजनीतिक दलों या नौकरशाहों से जुड़े लोगों या उनके रिश्तेदारों, नजदीकियों के हैं। बुंदेलखंड से वैध-अवैध तरीके से अरबों रुपए के बालू और मोरंग का खनन और कारोबार हो रहा है। खनिज विभाग के आंकड़ों को देखें तो बांदा में 190, महोबा में 330, झांसी में 349, चित्रकूट में 141, हमीरपुर में 83, जालौन में 89 तथा ललितपुर में 129 यानी कुल 1311 स्थानों को उत्खनन क्षेत्र घोषित किया गया है। बांदा में 86, महोबा में 327, झांसी में 279, चित्रकूट में 118, हमीरपुर में 78, जालौन में 38 तथा ललितपुर में 98 स्थानों यानी 1024 पर खनन का काम चल रहा है। प्रदेश सरकार को बांदा से 60 करोड़, महोबा से 105 करोड़, झांसी से 70 करोड़, चित्रकूट से 85 करोड़, हमीरपुर से 75 करोड़, जालौन से 65 करोड़ तथा ललितपुर से 50 करोड़ की सालाना आमदनी होती है। जाहिर है, गिने-चुने लोग खनन और खदानों से अरबपति हो रहे हैं तो बुंदेलखंडी अपनी संपदा मजदूर बनकर दूसरों को सौंपने को मजबूर। जिम्मेदार लोग जब इस उद्योग में हिस्सेदार हैं, तो फिर रोक लगाने की उम्मीद किससे की जाए?
बुंदेलखंड में सरकारी कुर्सियों को खरीद कर पहुंचने वाले ज्यादातर विभागों के अधिकारी अक्सर दंभी हो जाते हैं। उनका यहां के लोगों, किसानों या ग्रामीणों के साथ ऐसी कोई संवेदना नहीं होती, जिसके जरिए वह बुंदेलखंड की समस्याओं का समाधान करने की मजबूत पहल करें। वे जनसेवा करने नहीं बल्कि नौकरी करने आते हैं और उद्योग से मिले लाभांश को लेकर चले जाते हैं। हां, इस लाभांश का हिस्सा वे अकेले नहीं रखते, इसके परसेंटेज राजनीतिक आंकाओं तक बंटते हैं।
धंधेबाजों के कारण बदहाल हो रहा क्षेत्र
बुंदेलखंड के नाम पर मिलने वाले अरबों के पैकेज को धंधा बना लेने वाले ये लोग नहीं चाहते कि यहां की स्थितियों में कोई सकारात्मक बदलाव हो और यह चलता-फिरता उद्योग उनके हाथों से छिन जाए। बाहर से आकर बुंदेलखंड की रिपोर्टिंग करने वाले मीडियाकर्मी भी घूम-फिरकर ऐसे ही स्वयं सेवियों के पास पहुंच जाते हैं, जिनका इलाके से बाहर थोड़ा बहुत नाम है। एनजीओ चलाने वाले, खुद को आरटीआई कार्यकर्ता कहने वाले और कुछ तथाकथित जर्नलिस्टों का ये गिरोह इन पत्रकारों को उन्हीं स्थानों पर ले जाता है या ऐसे लोगों से मिलवाता है, जो उनकी मंशा के अनुरूप बुंदेलखंड की तस्वीर पेश कर सकें। इसके बाद दिल्ली-लखनऊ से आने वाले रिपोर्टर को बुंदेलखंड की बदहाली की स्टोरी मिल जाती है और इन गिरोहों को सिस्टम पर दबाव बनाकर वसूली करने का मौका। यह खेल बदस्तूर जारी रहता है। किसान मरते हैं और उद्योग-धंधा चलता रहता है। बेरोकटोक। अनवरत।
-धर्मेंंद्र सिंह कथूरिया