03-Sep-2016 06:00 AM
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भारत को आजाद हुए 70 साल होने जा रहे हैं लेकिन आज भी भारत के आदिवासियों को स्वतंत्रता का लाभ नहीं मिला.... आदिवासियों ने आजादी के समय नगरीय समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया नतीजतन आदिवासी प्रभुत्व एवं बहुतला वाले क्षेत्रों में अंग्रेज कभी पूर्ण रूप से अपनी सत्ता स्थापित नहीं कर सके, लगातार संघर्ष के चलते अंग्रेजों ने अधिकांश आदिवासी क्षेत्रों को एक्सक्लूडिड एरियाज यानी विनियमन मुक्त क्षेत्र (जहां अंग्रेजों के कानून लागू नहीं होंगे) घोषित कर रूढ़ीजन्य मान्यताओं के पालन हेतु स्वतंत्र ही रखा, हालांकि वन कानून के जरिए आदिवासियों के संसाधनों पर पीछे के रास्ते उन्होंने काफी लूट खसूट की। लेकिन बावजूद इसके आदिवासी काफी हद तक स्वतंत्र रहे। लेकिन आजादी के बाद सुविधाओं के अभाव, वनों और वन भूमि से उनके अधिकार छीन उन्हें गुलाम बना दिया गया है।
2011 की जनगणना के अनुसार देश में अनुसूचित जनजातियों की साक्षरता दर 54 प्रतिशत है, लेकिन जनजाति में कुल 6.8 प्रतिशत और 5.6 प्रतिशत महिलाएं ही 12वीं पास हैं, यही हाल उच्च शिक्षा का है, आदिवासियों में कुल 3.9 प्रतिशत पुरुष और 2.7 प्रतिशत महिलाएं ही स्नातक या उससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त कर सकी हैं जबकि सामान्य वर्ग में यह 11 (पुरुष) और 9.2 (महिलाएं) प्रतिशत है।
बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं
जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है, यहां आज भी नवजात मृत्युदर 62.1 प्रति हजार है, जबकि राष्ट्रीयदर 57 है, मृत्युदर में अधिकता का एक कारण संस्थागत् प्रसूतियों का अभाव है, क्योंकि इन क्षेत्रों में अस्पताल व अन्य स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध नहीं हैं, इसी प्रकार 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्युदर 95.7 है जबकि शेष भारत में यह 74.3 है क्योंकि भुखमरी और कुपोषण यहां की स्थाई समस्या है, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2005-06) के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के 54.4 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कम वजन के हैं इसी प्रकार 53.9 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं, तथा 27.6 प्रतिशत बच्चे कमजोर हैं। हालांकि 2013-14 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए बच्चों के तीव्र सर्वेक्षण के अनुसार 5 वर्ष से कम उम्र के 36.7 प्रतिशत बच्चे कम भार, 42.3 प्रतिशत बच्चे अविकसित और 18.7 प्रतिशत बच्चे कमजोर पाए गए। आदिवासियों की मृत्युदर भी 3.12 है जो शेष भारत (2.7) की तुलना में अधिक है।
वन भूमि का अधिकार
आदिवासियों को वनभूमि पर अधिकार देने के लिए पिछली यूपीए सरकार के अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 बनाकर लागू किया इसके तहत आदिवासियों को वनभूमि पर अधिकार दिया जाना था लेकिन हाल ही के आंकड़ों (31.05.2016 तक के आंकड़े) पर नजर डाली जाए तो स्थिति स्पष्ट होती है कि इसे भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। पूरे देश में अब तक 4, 311, 211 लोगों ने व्यक्तिगत दावे किये हैं, जबकि 1,702,846 को अधिकार पत्र दिये गए इसी प्रकार 116,380 ने सामुदायिक दावे पेश किये इनमें से कुल 43,492 को ही अधिकार मिल सका, कुल मिलाकर पूरे देश में 4,427,613 दावे आये जबकि 1,746,338 को ही अधिकार मिल सका इससे अर्थ निकाला जा सकता है कि सरकार आदिवासी हित से जुड़े इस मामले को कितनी गंभीरता से ले रही है। मध्यप्रदेश की ही बात करें तो यहां व्यक्तिगत् और सामुदायिक कुल 610,591 दावे पेश किए गए जबकि 223,680 को वनभूमि पर अधिकार मिल सका।
जनजातीय नीति का अभाव
जनजातीय कार्य मंत्रालय ने 2006 में राष्ट्रीय जनजातीय नीति का मसौदा तैयार किया था, तब से लेकर अब तक इस पर सभी पक्षों से चर्चा हो चुकी है, लेकिन बीच में कुछ विधायी और नीतिगत् परिवर्तनों के चलते इसे लागू नहीं किया जा सका तथा अब इसमें आगे संशोधनों की जरूरत महसूस होने लगी है। यूपीए सरकार ने अनुसूचित जनजातियों की वर्तमान सामाजिक - आर्थिक, स्वास्थ्य तथा शैक्षिक स्थिति पर एक स्थिति पत्र तैयार करने के लिए अगस्त 2013 में प्रो, वर्जीनियस खाखा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति भी गठित की थी समिति का कार्य जनजातियों के विकास सूचकांकों को बढ़ाने के प्रभावी उपायों को सुझाना भी था, प्रो वर्जीनियस खाखा समिति ने मई 2014 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों तथा अन्य मुद्दों पर 111 सिफारिशें थी, उन्होंने विधायी पता प्रशासनिक ढांचे, आजीविकास और रोजगार की स्थितियों व भूमि अधिग्रहण से लेकर विधायी और संवैधानिक मुद्दों पर सुझाव दिए हैं, समिति की सिफारिशें सरकार के सामने विचाराधीन हैं और इसके कार्यान्वयन के लिए सरकार की ओर से फिलहाल कोई समय सीमा प्रस्तावित नहीं हैं। आजाद भारत में आदिवासी अपनी उपेक्षा से दुखी है, वो शोषण की शिकायत करता है, ऑटोनामी का नारा देता है, नक्सलियों की मदद करता है, वर्तमान को वे खण्ड-खण्ड में देखने का आदि हो गया है, भविष्य का उसके पास कोई ब्लू प्रिंट नहीं है। सरकार की नीतियों के अभाव में पूरा समाज ही दिशाहीन हो चुका है। आज पहली आवश्यकता है एक सशक्त नीति की जो आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ सके।
-राजा पटेरिया